किसान नेताओं और मंत्रियों के सार्थक संवाद से यह आशा बंधी है कि इस बार का गणतंत्र-दिवस, गनतंत्र दिवस में कदापि नहीं बदलेगा। यों भी हमारे किसानों ने अपने अहिंसक आंदोलन से दुनिया के सामने बेहतरीन मिसाल पेश की है। उन्होंने सरकार से वार्ता के लगभग दर्जन भर दौर चलाकर यह संदेश भी दे दिया है कि वे दुनिया के कूटनीतिज्ञों-जितने समझदार और धैर्यवान हैं। उन्होंने अपने अनवरत संवाद के दम पर आखिरकार सरकार को झुका ही लिया है। सरकार आखिरकार मान गई है कि वह एक-डेढ़ साल तक इन कृषि-कानूनों को ताक पर रख देगी और एक संयुक्त समिति के तहत इन पर सार्थक विचार-विमर्श करवाएगी। उसने बिना कहे ही यह मान लिया कि उसने सर्वोच्च न्यायालय के कंधे पर से जो छर्रे छोड़े थे, वे फुस्स हो गए हैं। अदालत ने चार विशेषज्ञों की समिति घोषित करके जबर्दस्ती ही अपनी दाल पतली करवाई। अब वह अपनी इज्जत बचाने में जुटी हुई है।
अच्छा हुआ कि सरकार अदालत के भरोसे नहीं रही। अब जो कमेटी बनेगी, वह एकतरफा नहीं होगी। उसमें किसानों की भागीदारी भी बराबरी की होगी। अब संसद भी डटकर बहस करेगी। किसानों को सरकार का यह प्रस्ताव सहर्ष स्वीकार लेना चाहिए।सरकार का यह प्रस्ताव अपने आप ही यह सिद्ध कर रहा है कि हमारी सरकार कोई भी बड़ा फैसला लेते वक्त उस पर गंभीरतापूर्वक विचार नहीं करती। न तो मंत्रिमंडल उस पर ठीक से बहस करता है, न संसदीय कमेटी उसकी सांगोपांग चीर-फाड़ करती है और न ही संसद में उस पर जमकर बहस होती है। सरकार सिर्फ नौकरशाहों के इशारे पर थिरकने लगती है।
यह किसान आंदोलन मोदी सरकार के लिए अपने आप में गंभीर सबक है। फिलहाल, सरकार ने जो बीच का रास्ता निकाला है, वह बहुत ही व्यावहारिक है। यदि किसान इसे रद्द करेंगे तो वे अपने आप को काफी मुसीबत में डाल लेंगे। यों भी पिछले 55-56 दिनों में उन्हें पता चल गया है कि सारे विरोधी दलों ने जोर लगा दिया, इसके बाजवूद यह आंदोलन सिर्फ पंजाब और हरयाणा तक ही सीमित रहा है। किसानों के साथ पूर्ण सहमति रखने वाले लोग भी चाहते हैं कि किसान नेता इस मौके को हाथ से फिसलने न दें। पारस्परिक विचार-विमर्श के बाद जो कानून बनें, वे ऐसे हों, जो भारत को दुनिया का सबसे बड़ा खाद्यान्न-सम्राट बना दें और औसत किसानों की आय भारत के मध्यम-वर्गों के बराबर कर दे।
डा. वेदप्रताप वैदिक
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं)