मित्र ऐसे हों तो शत्रु का क्या काम ?

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दिल्ली की सीमाओं पर विरोध प्रदर्शन कर रहे किसान का हाल काफी हद तक जोनाथन स्विफ्ट के बहुचर्चित वृत्तांत ‘गुलिवर्स ट्रैवल्स’ के गुलिवर जैसा हो गया है। भारत के आधुनिक मिथकों के महायोद्धा इस ‘अन्नदाता’ के पास हिल-डुल पाने की भी गुंजाइश नहीं बची है, क्योंकि वह 21वीं सदी के लिलिपुटवासियों की तरह-तरह की महत्वाकांक्षाओं से खुद को जकड़ा हुआ पा रहा है। दुनिया के मजदूर वामपंथी राजनीतिक उद्यमियों के उकसावों के बावजूद कुछ खास एकजुट नहीं हुए, सो उनके आह्वान को वास्तविक बनाए रखने का जिम्मा अराजकतावादियों, जाग्रत पूंजीपतियों और सिलेब्रिटी समाजवादियों ने अपने ऊपर ले लिया है। इसी बदलाव का नतीजा है कि वर्ग संघर्ष को पुनर्जीवित करने की उम्मीदों का टोकरा इस जमावड़े ने भारतीय किसान की पीठ पर टिका रखा है।

पूछा क्यों नहीं

ऐसा भी नहीं कि मोदी सरकार ने समाधान की संभावना को सामने रखकर आपसी समझदारी से कोई रास्ता निकाल लेने का दरवाजा ही बंद कर दिया था। बात बस इतनी-सी है कि किसान अपने उद्देश्य के न्यायसंगत होने और अपनी प्रासंगिकता के लिए जारी संघर्ष के सच्चे होने को लेकर पूरी तरह आश्वस्त है। निश्चित रूप से इसके साथ किसानों के अपने कुछ सीधे-सरल विक्षोभ भी जुड़े रहे हैं, जो केंद्र द्वारा कानून लिखे जाने से पहले उनसे बातचीत न किए जाने के शातिरपने को उनकी नजर से उतरने ही नहीं दे रहे। बड़ी तकलीफ के साथ ये लोग पूछते हैं कि सरकार इतनी ढीठ भला कैसे हो सकती है कि जो किसान मातृभूमि की किस्मत का खाका खींचता है, खुद उसी की किस्मत तय करने से पहले उससे राय-सलाह करना भी जरूरी न समझे।

लेकिन बड़े अफसोस की बात है कि कहीं कोई सोने का खेत पंजाब और हरियाणा के किसानों की बाट नहीं जोह रहा है। विरोध प्रदर्शनों में जुटे किसान और उनके सहयोद्धा अगर सरकार को तीनों विवादित कृषि कानून वापस लेने पर मजबूर कर देते हैं, तब भी उनकी यह जीत सब कुछ मटियामेट करके हासिल की गई जीत ही होगी। कोई भी अर्थशास्त्री आपको यही बताएगा कि थोड़े-बहुत बदलावों के बाद ये कानून अगर अच्छी तरह से अमल में उतार दिए जाएं तो किसानों को पशुचारी जीवन की अनंत यातना से बाहर लाने का रास्ता यहीं से निकल सकता है। यहां तक कि जो विपक्ष आज किसानों के इस खौफ पर अपनी रोटियां सेंक रहा है कि कृषि उपजों पर याराना पूंजीपतियों का कब्जा हो जाएगा, वह कुछ समय पहले तक कॉरपोरेटाइजेशन को इतनी सख्ती से नहीं देख रहा था।

सबूत के तौर पर पिछले साल जुलाई में तैयार की गई ‘पंजाब की आर्थिक रणनीति’ शीर्षक रिपोर्ट देखें। यह रिपोर्ट कांग्रेस की अगुआई वाली पंजाब सरकार को सलाह देने के लिए गठित समिति ने तैयार की थी। यह विजन डॉक्युमेंट कोविड-19 के बाद पैदा हुए हालात से निपटने के लिए उपज की मार्केटिंग से जुड़े सुधारों का जिक्र करता है। इसमें खासतौर से रेखांकित किया गया है कि राज्य द्वारा नियंत्रित मंडी या फिर कृषि उत्पाद विपणन समितियों से परे बाजार को एक और अधिक उदार व्यवस्था की जरूरत है। रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि यह उदार व्यवस्था बहुत जरूरी है, ताकि कृषि उत्पाद तैयार करने वालों, इनका एक्सपोर्ट करने वालों या संगठित खुदरा विक्रेताओं की ओर से राज्य में आने वाला निवेश उत्तर प्रदेश या हरियाणा जैसे राज्यों में न चला जाए।

गौरतलब है कि इस रिपोर्ट में पीडीएस सिस्टम को त्यागने की बात कही गई है, ताकि किसानों को चावल और गेहूं जैसी फसलों तक सीमित रहने के बजाय महंगे दामों वाली फसलें उगाने के लिए प्रोत्साहित किया जा सके। संक्षेप में कहें तो रिपोर्ट का सारा जोर इस बात पर है कि निजी पूंजी की छवि खराब किए बगैर किसानों को समृद्ध बनाया जाए। विरोध पर उतारू किसानों को सलाह देने में जुटे लोगों के वास्तविक विचारों और किसानों की तरफदारी में उनके द्वारा सार्वजनिक रूप से कही जा रही बातों में अंतर दिखाने वाला यह अकेला उदाहरण नहीं है। ग्रेटा थनबर्ग को ही लीजिए। ज्यादा स्वच्छ और हरित विश्व को लेकर उनके आग्रह ने दुनिया भर में जलवायु परिवर्तन से जुड़े विमर्श को मजबूती प्रदान की है। लेकिन क्या उन्हें मालूम है कि ‘किसान नेता’ केंद्र सरकार से खुले में पराली जलाने के मामलों में खुद को दंडात्मक कार्रवाई से छूट दिए जाने का वादा हासिल कर चुके हैं?

हर साल पंजाब, हरियाणा और यूपी के कुछ हिस्सों के किसान करीब 10 करोड़ टन पराली खुले में जला देते हैं। नतीजा यह होता है कि दिल्ली जैसे राज्यों में व्यापारिक गतिविधियां प्रभावित होती हैं, निर्माण कार्यों पर रोक लगानी पड़ती है और स्कूल खुलने की तारीखों में भी बदलाव करने पड़ते हैं। इससे आर्थिक और जन स्वास्थ्य के मोर्चे पर होने वाले नुकसान का अंदाजा भी नहीं लगाया जा सकता। इस जहरीली सड़ांध की जड़ में है अप्रत्यक्ष सबसिडी राज जो खेती को टिकाऊ नहीं बनने दे रहा। पंजाब-हरियाणा में किसानों को खेती के लिए मुफ्त बिजली देने से बजट पर तो असहनीय बोझ पड़ता ही है, पर्यावरण की भी अपूरणीय क्षति होती है। इससे धान की खेती को बढ़ावा मिलता है जिसमें पानी की खपत ज्यादा होती है। नतीजा यह कि भूजल का स्तर खतरनाक ढंग से नीचे होता जाता है।

भविष्य की सुरक्षा

पानी की ज्यादा खपत का एक परिणाम यह भी बताया जाता है कि पंजाब के मैदानों में तापमान तेजी से चढ़ रहा है जो दीर्घकालिक तौर पर जलवायु परिवर्तन का कारण बन रहा है। संरक्षणवादी चेता रहे हैं कि बिजली सबसिडी की यह नीति जारी रही तो कृषि योग्य भूमि की पूरी पट्टी बर्बाद हो जाने का खतरा पैदा हो जाएगा, जो बड़े पैमाने पर विस्थापन और संघर्ष का कारण बनेगा। अप्रत्यक्ष सबसिडी किसानों की जेब को आज थोड़ा भारी बना सकती है, लेकिन उनके भविष्य को सुरक्षित नहीं कर सकती। किसान समर्थकों को अगर सचमुच उनके कल्याण की चिंता है तो उन्हें अपने फायदे के लिए उनकी असुरक्षा को भुनाने का कारोबार बंद कर देना चाहिए।

राहुल शिवशंकर
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार है,ये उनके निजी विचार हैं)

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