मेरे पास मॉं है…

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यश चोपड़ा ने एक बार कहा था कि सलीम जावेद की अमर पंक्ति ‘मेरे पास माँ है’ ने फिल्म ‘दीवार’ को अविस्मरणीय बना दिया है। भारतीय फिल्मों में माँ हमेशा रही है, शुरू में देवी के रूप में और बाद में सद्गुणों के प्रतिमान के रूप में।

दर्शक माँ की आत्म-बलिदान वाली छवि पर हमेशा से फिदा रहे और फिल्मकारों ने इस छवि को भुनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। तो सिलाई मशीन पर झुकी हुई खांसने वाली विधवा महिला हो या अपने बच्चों के पालन-पोषण के लिए अथक परिश्रम करने वाली मां, यह छवि फिल्म दर फिल्म दोहराई जाती रही। हां, रेशम की साड़ी पहने सम्पन्न, मिलनसार और हंसमुख माताएं भी परदे पर आती रहीं, फिल्म के नायक को गाजर का हलवा खिलाती हुई।

हम मदर्स डे की बात करें और 1957 की ‘मदर इंडिया’ की राधा (नरगिस) का उल्लेख न हो, यह संभव ही नहीं है। वह एक रोल मॉडल बन गई थी। उस लिहाज से ‘आराधना’ की शर्मिला टैगोर थोड़ी कम मुखर थीं, जबकि सत्तर के दशक में आई ‘दीवार’ की सुमित्रा (निरूपा रॉय) ‘मदर इंडिया’ की राधा का ही रिप्ले थी। मेेरे ख्याल से शीर्षक भूमिकाएं नायक वाली नहीं थीं, लेकिन सामाजिक रूप से जागृति लाने वाली इन फिल्मों में सवाल करने वाली माताओं ने भूमिका निभाई जो धीरे-धीरे स्क्रीन पर स्टीरियोटाइप माँ की भूमिकाओं में बदल गईं।

माताओं की मेरी खास सूची के शीर्ष पर सुलोचना हैं जो बिमल राय की सुजाता में ‘नन्ही कली सो चली …’ लोरी गुनगुनाते हुए नवजात को थपकी देकर सुला रही हैं। बगल के ही कमरे में एक अछूत की परित्यक्त बच्ची सो रही है, जो बस संयोगवश ब्राह्मण के घर में आई है। पति (तरुण बोस) जब खिड़की से देखता है कि उसकी पत्नी उस अजनबी बच्चे की अनदेखी कर रही है तो वह झूठ बोलता है कि वह बच्ची बुखार में तप रही है। सुलोचना तत्काल अपने बिस्तर से निकलकर बच्ची की आंखों को छूती है। अचानक उसे महसूस होता है कि उसके साथ छल किया गया ताकि वह उस ‘अछूत’ बच्ची को छू सके।

बाद के वर्षों में सुलोचना की एक और खास फिल्म रही ‘जॉनी मेरा नाम’। इसके दो दृश्य मुझे आज भी याद आते हैं। पहला दृश्य तो वह है जब देव आनंद भेस बदलकर उनके घर आते हैं और सुलोचना उनकी नकली मूंछें खींचकर कहती हैं कि उन्हें बेवकूफ नहीं बनाया जा सकता। दूसरा दृश्य फिल्म के क्लाइमेक्स का है जब खलनायक जीवन उसे अपने बेटे पर बंदूक तानने को कहता है, लेकिन सुलोचना, देव आनंद को बचाने के लिए जानबूझकर प्राण की ओर बंदूक तान देती हैं।

भारतीय सिनेमा के परदे पर पति और बेटे के बीच विवाद होने पर मां हमेशा पति के पक्ष में ही खड़ी मिली, लेकिन अस्सी के दशक में पहली बार यह बदलाव फिल्म ‘मैंने प्यार किया’ में हुआ। अपने पिता के विरोध के बाद जब सलमान खान माँ रीमा लागू की ओर मुड़ते हैं और पूछते हैं, ‘मैंने क्या गलत किया?’ तो मां इनकार में सिर हिला देती है।

नब्बे के दशक में ‘दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे’ में फरीदा जलाल अपनी पुत्री काजोल से कहती हैं कि वह शाहरुख खान के साथ भाग जाएं और अपने सपने पूरे करें, क्योंकि परंपरा के नाम पर उनके साथ जो हुआ, वह नहीं चाहती कि उनकी बेटी के साथ भी वही हो। फिर 2000 का दशक आया और इस दौर में हमें व्यावहारिक माता-पिता की झलक देखने को मिली। आज परदे पर माता-पिता अब दोस्त की भूमिका में ज्यादा नजर आ रहे हैं।

फिल्मों में भाभी मां

‘भाभी की चूड़ियां’ में मीना कुमारी के लिए ‘भाभी मां’ शब्द गढ़ा गया था। वहीं ‘छोटा भाई’ के एक दृश्य में नूतन अपने शरारती नन्हें देवर को छत पर एक पैर पर खड़े होने की सजा दे देती है। शाम को जब वह परिवार को खाना परोसती है, तब अचानक उसे ध्यान आता है कि उसके आदेश के इंतजार में वह अब भी वहीं खड़ा है। नूतन तेजी से सीढ़ियों पर भागते हुए देवर के पास पहुंचती हैं। फिल्म एक बहुत ही मजबूत सामाजिक संदेश देती है कि भाभी एक माँ के बराबर है, बल्कि शायद उससे भी ऊपर।

भावना सोमाया
(जानी-मानी फिल्म लेखिका, समीक्षक और इतिहासकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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