कितने थानों में हैं महिला शौचालय ?

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हमारे उत्तर प्रदेश की सरकार एक बेमजा समस्या में उलझ रही है। उलझन का कारण कोई ज्यादा नहीं हैं बल्कि हाईकोर्ट प्रयागराज का एक सवाल है, जो उसने प्रदेश की सरकार पर दागा है। सवाल है कि प्रदेश के कितनों थानों में महिला शौचालय की व्यवस्था है। एक तरफ तो किसान आंदोलन दूसरी ओर चीन से तनातनी इसके बावजूद हाईकोर्ट का ये सवाल सरकार को उलझन में फंसा रहा है। कोर्ट का ये सवाल जनरल नोलेज के लिए नहीं पूछा गया है बल्कि कानून की कुछ छात्राओं की शिकायत पर उसने ये जानकारी मांगी है। दरअसल छात्राओं की शिकायत है कि थानों में औरतों के लिए अलग से शौचालय नहीं हैं। कुल मिलाकर कानून तक औरतों की सीधी पहुंच रोकने के लिए जितने रोड़े अटकाए गए, थानों में शौचालय न होना, उनमें से एक है। ये थाने को महिलाओं के लिए वर्जित जगह बना देता है। ठीक वैसे ही, जैसे रात में घर से बाहर की दुनिया। जैसे रात में महिलाएं अपनी इज्जत- आबरू की खातिर घर से बाहर निकलने पर हिचकिचाती हैं ठीक वैसे ही जिन थानों में महिला शौचालय की व्यवस्था नहीं वहां प्रवेश वर्जित है। कानूनी मामलों पर शोध करने वाली संस्था विधि सेंटर फॉर लीगल पॉलिसी के मुताबिक 100 जिलों में महिला शौचालय नदारद हैं।

यहां शौचालय तो हैं, लेकिन उन पर पुरुषों का कब्जा रहता है। वे पुरुषों की जरूरतों के हिसाब से बने हुए हैं। अब आप ही बताएं कि यदि किसी महिला को बंदी के रूप में थाने में रखा जाता है तो वह अपनी जरूरत के लिए कहां जाएंगी। हाईकोर्ट का ये सवाल हमारी सरकारी व्यवस्था को उजागर कर रहा है जहां या तो महिला शौचालय की व्यवस्था है ही नहीं, यदि हैं तो उनपर भी पुरुषों का कब्जा है। एक रिपोर्ट में तो यह भी दावा किया गया है कि देश की 555 अदालतों में केवल चालीस प्रतिशत वाशरूम ही काम कर रहे हैं। शेष साठ प्रतिशत का क्या होगा? शेष में कहीं पानी की व्यवस्था नहीं तो कहीं दरवाजे टूटे पड़े हैं। कहीं सबकुछ है तो वहां एक मोटा ताला आने से रोकता है। हाल ऐसे हैं कि इंसाफ के लिए अदालत आने वाली औरतों को तो छोडि़ए, वहां महिला वकीलों का भी रहना मुश्किल है।वैसे थाने-अदालतें तो खैर भली औरतों के लिए हैं ही नहीं। औरतें घर में खाना पकाती, या फिर ज्यादा हुआ तो कभी बाजार निकल गईं और आटा-मसाला या खुद के लिए इत्र-फुलेल खरीद लें, लेकिन उनका बाजार जाना भी खासी शामत लेकर आता है। घंटे-आध घंटे में बच्चे चॉकलेट न मांगें, लेकिन औरत को फारिग होने की तलब जरूर हो आती है।

पेट को दबाए, कंधे झुकाए वो या तो आनन-फानन में काम निपटा भर देती है या फिर बगैर खत्म किए ही लौट आती है। वहीं साथ निकले पति महोदय आराम से मुंह फेरकर हल्के हो लेते हैं। ठीक वहां, जहां लिखा हो. यहां दीवार गंदी करना मना है। घर लौटकर पत्नी को डांट भी सुननी होती है। जब तुमसे जरा देर भी नहीं रहा जाता तो बाहर निकलती ही क्यों हो? औरतों से जरा देर भी नहीं रहा जाता। खुद साइंस ये कहता है। वो बताता है कि क्यों औरतों की वॉशरूम इस्तेमाल करने की जरूरत मर्दों से कई गुना ज्यादा होती है। इसकी कई वजहें हैं। एक वजह तो है पीरियड। पीरियड के दौरान महिलाओं का ब्लैडर उतनी बेहतर ढंग से काम नहीं कर पाता तो इस समय उन्हें बार.बार ऐसी जरूरत महसूस होती है। दूसरी वजह भी पीरियड है। जी हांए पीरियड की घड़ी टिकटिकाने पर ज्यादातर महिलाएं बार.बार पक्का करना चाहती हैं कि कहीं उनका समय तो नहीं आ गया।

तीसरी वजह भी इसी से जुड़ी है। पीरियड के दौरान औरतों को पैड बदलने और साफ. सफाई में समय लगता है। ऐसे में वे अगर पब्लिक शौचालय में हों तो बाहर कतार लंबी होती जाती है। हमारी सरकार क्या बादशाह से शाहजहां से कमजोर है जो महिलाओं का ध्यान नहीं रखेगी। शाहजहां ने अपनी बहन मुमताज महल के लिए बुरहान पुर में भी हमाम (गुसलखाना) बनवाया था जहां औरत की अंदरूनी जरूरतों को पूरा करने का ख्याल रखा गया था। आगरा में भी ताजमहल बनवाने के साथ शौचालय बन वाया था। आप भी बड़े-बड़े वादे न करके केवल शौचालय बनवा दें जिसकी जरूरत सबसे ज्यादा होती है। हमारे पीएम मोदी जी से ही सीख लें जिन्होंने लोगों की जरूरतों को समझते हुए और खुले में शौच की आदत को छुड़ाने के लिए घरघर शौचालय बनवा दिए। अब आप भी सरकारी कार्यालय, थानों और अदालतों में शौचालय बनवादें।

एम. रिज़वी मैराज
(लेखक एक पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं)

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