भारत कोविड की दूसरी लहर के दौर में है। इस लहर में मामलों की बेतहाशा वृद्धि के लिए लोगों का कोविड के ‘बचाव अनुकूल आचरण’ नहीं अपनाने को जिम्मेदार माना जा रहा है। लोग टीका लगवाने में भी हिचक रहे हैं। दोनों बातें चिंताजनक हैं। समझने की जरूरत है कि क्यों लोग बचाव अनुकूल आचरण नहीं अपना रहे और टीकाकरण नहीं करा रहे? क्यों सरकारी स्वास्थ्य व्यवहार परिवर्तन अभियान आंशिक रूप से ही सफल रहे? और, अब क्या किया जाना चाहिए? इत्यादि।
जवाब इतना सीधा-सरल नहीं है कि लोगों ने बीमारी को गंभीरता से लेना बंद कर दिया है। कुछ हद तक जवाब ‘सामाजिक अनुबंध’ (सोशल कॉन्ट्रैक्ट) के सिद्धांत में है। इस नज़रिये से, स्वास्थ्य, सरकार व लोगों के बीच एक ‘सामाजिक अनुबंध’ है, जिसके तहत लोग व्यक्तिगत जीवन से जुड़े कुछ निर्णयों पर सरकारी नियम स्वीकारते हैं। बदले में, वे तर्कसंगत अपेक्षा रखते हैं कि सरकार उनके स्वास्थ्य की देखभाल के लिए जरूरी कदम उठाएगी।
महामारी की शुरुआत में लोगों ने काफी हद तक कोविड के बचाव अनुकूल आचरण अपनाया, साथ ही लॉकडाउन में हुई परेशानी के बावजूद सरकार के साथ खड़े रहे। उम्मीद थी कि इससे देश और राज्य सरकारों को स्वास्थ्य सुविधाएं दुरुस्त करने का वक्त मिलेगा। बाद के महीनों में, भले ही बिस्तर, वेंटिलेटर्स, PPE किट और टेस्ट सुविधाएं बढ़ीं, लेकिन सच्चाई यह भी है कि कोविड-19 की जांच और इलाज के लिए लोगों को संघर्ष करना पड़ा।
भर्ती हो पाने से पहले, कुछ लोगों को कई अस्पतालों में भटकना पड़ा। कई मामलों में अनचाहे, निजी अस्पतालों की राह लेनी पड़ी। जो कोविड प्रभावित हुए, उनका अनुभव कड़वा रहा। एक तरह से, स्वास्थ्य प्रणाली में कमियों ने स्वास्थ्य देखभाल की लगभग पूरी जिम्मेदारी लोगों के कंधों पर डाल दी। कह सकते हैं कि, इसने सरकारी स्वास्थ्य तंत्र पर लोगों के भरोसे को और कमजोर कर दिया। किसी भी अनुबंध की सफलता के लिए जरूरी है कि दोनों पक्ष ईमानदारी से अपनी-अपनी जिम्मेदारी निभाएं।
जब लोगों को लगा कि सरकारी स्वास्थ्य सेवाएं नाकाफी हैं और उन्हें अपने स्वास्थ्य की देखभाल की जिम्मेदारी स्वयं ही उठानी है, यहां ‘सोशल कॉन्ट्रैक्ट’ टूटता हुआ दिखा। यह दूर की कौड़ी नहीं है कि इसकी सामूहिक और मौन प्रतिक्रिया लोग कोविड के बचाव अनुकूल आचरण का पालन न करके और टीकाकरण न कराकर दें। विशेषज्ञों की नज़र में यह व्यवहार तर्कसंगत भले ही न हो, लेकिन कभी कभी लोगों के व्यवहार को उनकी ‘उनकही बात’ की तरह भी देखना चाहिए।
समय आ गया है कि स्वास्थ्य के ‘सामाजिक अनुबंध’ को मज़बूत किया जाए। केंद्र और राज्य सरकारें स्वास्थ्य सेवाओं की मजबूती और पूर्ण क्रियाशील बनाने के सारे पुराने वादों की तरफ मुड़कर देखें और क्रियान्वित करें। स्वास्थ्य को लोगों के लिए सुविधा नहीं, बल्कि अधिकार की तरह दिया जाए।
फ़िलहाल, महामारी से लड़ने के लिए चाहिए की जन स्वास्थ्य विशेषज्ञ और समाज और व्यवहार वैज्ञानिक मिलकर लोगों द्वारा, व्यक्तिगत स्तर पर, कोविड के बचाव अनुकूल आचरण पालन करने और टीके लगवाने के लिए प्रेरित करने के तरीकों पर काम करें।
कुछ प्रमाणित तरीके हैं, जैसे कि 2017 नोबेल प्राइज से सम्मानित प्रोफेसर रिचर्ड थेलर का ‘नज दृष्टिकोण’, जो ‘व्यावहारिक अर्थशास्त्र’ का इस्तेमाल करते हुए लोगों को उपयोगी व्यवहार अपनाने के लिए प्रेरित करने के सिद्धांतो को समझाता है। जन-भागीदारी सिर्फ महामारी से लड़ने के लिए ही नहीं बल्कि स्वस्थ समाज का आधार है।
प्रत्येक नागरिक, हर बार कोविड के बचाव अनुकूल आचरण जैसे फेस मास्क, हाथ धोना, सार्वजनिक जगहों पर शारीरिक दूरी बनाए रखने, का पालन करे, यह महामारी से लड़ने की एक महत्वपूर्ण रणनीति है। हमारे पास बतौर नागरिक ये दिखाने का अवसर है कि हम समझदार और जिम्मेदार दोनों हैं और अपने साथी नागरिकों के लिए कुछ कर सकते हैं।
डॉ. चन्द्रकांत लहारिया
(लेखक जन नीति और स्वास्थ्य तंत्र विशेषज्ञ हैं ये उनके निजी विचार हैं)