लाल किले की प्राचीर पर शान से लहराता तिरंगा भारत की आन बान और शान का प्रतीक है। यह प्रतीक है भारत की राष्ट्रीय अस्मिता का, भारत की एकता का, भारत की अखंडता का लेकिन गणतंत्र दिवस के दिन लाल किले पर उपद्रवियों ने जो हमला किया उससे हर देशभक्त भारतीय आहत है। लाल किले को जो नुकसान पहुँचाया गया है उसकी क्षतिपूर्ति तो समय के साथ हो जायेगी लेकिन भारत की अखंडता की प्रतीक किले की ऊँची-ऊँची दीवारें न्याय माँग रही हैं। आजाद भारत में लाल किले पर इस तरह के उपद्रव की हिमाकत की कोई सोच भी नहीं सकता लेकिन पंजाब के किसानों ने यह कर दिखाया। गणतंत्र दिवस के दिन लाल किले पर शान से फहरा रहे तिरंगे का अपमान भुलाये नहीं भूलेगा। लाल किले की प्राचीर पर जहाँ से हर वर्ष स्वतंत्रता दिवस पर देश के प्रधानमंत्री राष्ट्रीय ध्वज फहराते हैं वहाँ धार्मिक झंडा लगाकर संविधान का अपमान तो किया ही गया है, राष्ट्रीय भावना को भी आहत किया गया है। सरकार इस मुद्दे पर कानून सम्मत कार्रवाई करेगी ही लेकिन न्यायालय को भी चाहिए कि वह स्वतः संज्ञान लेते हुए दोषियों को कड़ी से कड़ी सजा सुनिश्चित करे। राष्ट्रीय अस्मिता को ठेस पहुँचाने वालों के खिलाफ लोकतंत्र के सभी स्तंभों को संयुक्त कार्रवाई करनी ही चाहिए।
क्या इतिहास को दोहराया गया है ?
यह सवाल इसलिए उठ रहा है क्योंकि सिखों की ओर से ‘किला फतह’ की बात कही जाती है। सिख इतिहास बताता है कि सिख योद्धा बाबा बंदा सिंह बहादुर, बाबा बघेल सिंह, जस्सा सिंह आहलूवालिया और जस्सा सिंह रामगढ़िया ने मुगलों को कड़ी टक्कर देते हुए उन्हें शिकस्त दी थी। यही नहीं दिल्ली सिख गुरुद्वारा कमेटी की ओर से लाल किले पर दिल्ली फतह समारोह भी आयोजित किया जाता है। गुरुद्वारों में भी दिल्ली फतह समारोह आयोजित किये जाते हैं। इसीलिए लाल किले पर ‘निशान साहिब’ को जिस तरह लहराया गया उसे इतिहास दोहराने का प्रयास कहा जा रहा है। सिख इतिहास में उल्लेख मिलता है कि सन् 1783 की शुरुआत में सिखों ने किला-ए-मुअल्ला (लाल किले) पर कब्जे की रणनीति बनाकर हजारों सैनिकों के साथ दिल्ली कूच किया था। इतिहास की किताबों में उल्लेख मिलता है कि शाहजहां ने लाल किले को दो नाम दिये थे- किला-ए-मुअल्ला और किला-ए-मुबारक। किला बाहर से लाल दिखता था इसलिए आम लोगों ने इसे लाल किला बोलना शुरू कर दिया था। तो किला-ए-मुअल्ला पर कब्जे के लिए निकले सिख योद्धाओं ने 11 मार्च को लाल किले पर हमला कर वहां निशान साहिब चढ़ाया और दिवान-ए-आम पर कब्जा कर लिया। सिख इतिहास बताता है कि इस हमले के बाद मुगल बादशाह शाह आलम द्वितीय ने उनके साथ समझौता कर लिया था। हालांकि इतिहासकार सिख इतिहास के इस दावे पर मतभेद रखते हैं।
ट्रैक्टर भी लज्जित है
गणतंत्र दिवस पर जिस तरह युवाओं ने लाल किले पर कोहराम मचाया और उस पर प्रसन्नता भी जाहिर की वह निंदनीय है। मीडिया रिपोर्टों के अनुसार एक युवा सिख ने तो यहाँ तक कहा कि लाल किला शक्ति का प्रतीक है और हम इस पर कब्जा कर प्रधानमंत्री को अपनी बात सुनाना चाहते हैं। लेकिन अपनी बात सुनाने, अपनी बात सरकार तक पहुँचाने के लोकतंत्र में संविधानसम्मत कई तरीके हैं जिनका इस्तेमाल यह किसान लगभग दो महीने से कर ही रहे हैं। इनकी बात सरकार तक नहीं पहुँच रही यह कोई नहीं मान सकता क्योंकि सरकार के साथ किसान नेताओं की दस दौर की वार्ता हो चुकी है और भारत का उच्चतम न्यायालय भी किसानों की माँगों को लेकर एक विशेषज्ञ समिति का गठन कर चुका है। किसानों ने ट्रैक्टर परेड की जो अनुमति माँगी थी वह अनुमति दी गयी। किसानों ने ट्रैक्टर परेड निर्धारित मार्गों पर ही निकालने और इसके शांतिपूर्ण रहने के भी वादे किये थे लेकिन हुआ इसका उलटा। ट्रैक्टर से पुलिसवालों को कुचलने का प्रयास किया गया। ट्रैक्टर से पुलिस के वाहनों को टक्कर मार-मारकर तोड़ा गया, ट्रैक्टर से कोहराम मचाया गया। किसानों के खेतों में भूमि को जोतने वाले ट्रैक्टर का ऐसा इस्तेमाल दुनिया ने पहली बार देखा। अपने इस वीभत्स प्रयोग से शायद ट्रैक्टर भी लज्जित होगा।
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बहरहाल, एक बड़ा सवाल यह भी है कि जब माँगे कृषि से संबंधित हैं तो आंदोलन में धार्मिक प्रतीकों का क्या काम? लाल किले पर जिस तरह धार्मिक झंडा फहराया गया क्या वह हमारे संविधान में उल्लिखित धर्मनिरपेक्षता का अपमान नहीं है? लाल किले पर सिर्फ तिरंगा ही लहरा सकता है अन्य किसी धर्म, संगठन के झंडे का यहाँ कोई काम नहीं है। सभी को यह समझना चाहिए कि हमारे धर्म से बड़ा है राष्ट्र धर्म। पहले राष्ट्र के प्रति धर्म निभाइये उसके बाद अपने धर्म को रखिये। यह दुर्भाग्यूपर्ण रहा कि गणतंत्र दिवस, जिस दिन नागरिकों को संविधान ने अधिकार दिये और उनके लिए कुछ कर्तव्य भी निर्धारित किये, उस दिन उपद्रवी किसानों ने अपने कर्तव्यों की खुलेआम अनदेखी की।
नीरज कुमार दुबे
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)