एक ओर सरकार वार्ता का प्रलोभन देकर आंदोलित किसानों को शांत करने का प्रयास कर रही है, दूसरी ओर सुरक्षा के नाम पर दिल्ली जाने वाले रास्तों पर बेरिकेडिंग व कीलों का जाल बिछाकर रास्ता रोक रही है। सरकार की दोहरी कूटनीति का अर्थ यही है कि वह कृर्षि कानून पर किसानों की मांग नहीं मानना चाहती। वह केवल किसानों को उलझाकर रखना चाहती है। लगभग 69 दिन से चल रहे किसान आंदोलन का सरकार पर कोई प्रभाव पड़ता नहीं दिखाई नही पड़ रहा है। उधर किसान भी बिना कानून वापसी के आंदोलन को खत्म करने के मूंड में नहीं है। लालकिले की घटना को लेकर सरकार अपनी ताकत के बल पर किसानों के उत्साह को हराना चाहती है। इसलिए गाजीपुर, कुंडली, टिकरी व सिंघु बार्डर से राजधानी को जाने वाले मार्गों पर न केवल बैरिकेडिंग लगाई बल्कि कंटीले तार व सड़क पर कीलों का जाल बिछाकर रास्ता रोका जा रहा है, ताकि आंदोलित किसान फिर से दिल्ली में प्रवेश न कर सकें। यही नहीं, पुलिस जवानों के हाथों में स्टील की लाठियां भी दे दी गई हैं। प्रशासन के इस कृत्य से जहां आम आदमी, जो पेट की आग बुझाने के लिए दिल्ली जाते थे, उनका जाना भी दुश्वार हो रहा है।
इस दिशा में रेलवे ने भी कदम उठाते हुए पंजाब से आने वाली गाड़ी पंजाब मेल का रूट बदल दिया। एक ट्रेन को तो रद कर दिया। क्या यह सब करना एक तानाशाही का प्रतीक नहीं? सरकार के इस कृत्य से नाराज किसान नेताओं का यह कहना कि अब हमें दिल्ली जाना नहीं है, दिल्ली वालों को ही हमारे पास आना हो तो आएं। भाकियू के प्रवता राकेश टिकैत का यह कहना कि आंदोलन लंबा चलेगा, सरकार आसानी से उनकी मांगों को पूरा करने के मूंड में नहीं है। इस बात का प्रतीक है कि किसान इस आंदोलन को लंबा चलाएंगे जिससे आंदोलन सशत हो और उसमें आम आदमी की भागीदारी भी हो सके। किसान इस आंदोलन को लंबा चलाने के लिए नई रणनीति बनाने के मूंड में, जिसमें आधे किसान आंदोलन में तो आधे खेत में होंगे। अभी पश्चिमी उत्तर प्रदेश में गन्ना की छिलाई व पंजाब और हरियाणा में रबी की फसल बोने व तैयार करने में किसान व्यस्त हैं। अप्रैल मई तक व्यस्त किसान भी अपने कृषि कार्यों से निवृत होकर आंदोलन में सहयोग कर सकते हैं। इससे पहले सरकार का प्रयास होगा कि साम, दाम, दंड भेद के हथकंडे अपनाकर इस आंदोलन को प्रभावित किया जाए।
राकेश टिकैत का यह कहना कि सरकार रोटी को संदूक में बंद करना चाहती है। उनके इस वतव्य का मतलब सरकार किसानों से उनकी शर्तों के आधार पर कोई वार्ता नहीं करना चाहती है। वह केवल उसी प्रस्ताव पर वार्ता चाहती है, जो उसने विज्ञान भवन की अंतिम वार्ता में दिए थे। कृषि मंत्री नरेंद्र तोमर का यह वतव्य कि आंदोलित किसान कृषि कानून महत्व को समझें, हिंसा से इसका समाधान नहीं हो सकता, वार्ता से ही समाधान निकलेगा। वार्ता के लिए आगे बढ़ें। इस बात की ओर संकेत कर रहा है कि यदि किसान संगठन वार्ता चाहते हैं तो पहल उन्ही को करनी होगी, यदि किसान अपनी ओर से पहल करते हैं, (जिसकी अभी कोई संभावना नहीं दिखाई दे रही है) उससे सरकार का पलड़ा भारी रहेगा। योंकि सरकार इन कानून को रद नहीं करना चाहती, वह केवल कानून को डेढ़, वर्ष के लिए होल्ड पर रखकर किसानों से आंदोलन को खत्म कराने का दबाव बनाना चाहती है। उनके इस कथन का दूसरा नजरिया यह निकल रहा है कि वह आम जनता को यह संदेश देना चाहती है कि वह वार्ता को तैयार है, लेकिन किसान नहीं मान रहे हैं।