लॉकडाउन से डरकर काम नहीं चलेगा

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फ्रैंकफर्ट स्कूल आफ फाइनैंस के अनुसार यदि लॉकडाउन नहीं लगाते हैं तो मृत्यु दर बढ़ती है और उससे आने वाले समय में अर्थव्यवस्था में गिरावट आती है। इसके विपरीत अगर लॉकडाउन लगाते हैं, तो अर्थव्यवस्था में तत्काल गिरावट आती है। वित्तीय संस्था जेफ्रीज ने बताया है कि अमेरिका के तीन राज्य ऐरिजोना, टैक्सस और यूटाह में लॉकडाउन न के बराबर लगाए गए। परिणाम यह हुआ कि इन राज्यों में कोविड का फैलाव अधिक हुआ और अर्थव्यवस्था में ज्यादा गिरावट आई। इसी अध्ययन में स्कैंडिनेविया के दो देशों का तुलनात्मक अध्ययन किया गया। स्वीडन में लोगों को स्वैच्छिक सोशल डिस्टेंसिंग अपनाने के लिए प्रेरित किया गया। इसके विपरीत डेनमार्क में लॉकडाउन लगाया गया। पाया गया कि स्वीडन में पांच गुना अधिक मृत्यु हुई। यूनिवर्सिटी ऑफ ऑक्सफर्ड और ‘वाइली क्लिनिकल प्रैक्टिस’ पत्रिका में दो अलग-अलग लेखों में इंग्लैंड के लॉकडाउन के संबंध में बताया गया कि देर से लॉकडाउन लगाने के कारण वहां मृत्यु दर अधिक हुई, जिसका अर्थव्यवस्था पर नकारात्मक असर पड़ा।

कैसा हो लॉकडाउन
इन अध्ययनों से स्पष्ट है कि लॉकडाउन तो हमें लगाना ही पड़ेगा। लॉकडाउन नहीं लगाते हैं तो महामारी का फैलाव अधिक होता है जो अंततः अर्थव्यवस्था पर भारी पड़ता है। दूसरी तरफ अगर लॉकडाउन लगाते हैं तो अर्थव्यवस्था को सीधे नुकसान होता है। इसलिए हमारे सामने सवाल यह नहीं है कि लॉकडाउन लगाएं या न लगाएं। सवाल यह है कि लॉकडाउन किस तरह लगाया जाए, उसका प्रकार कैसा हो।

लॉकडाउन विशेष स्थानों, कार्यों एवं तरकीब से लगाया जा सकता है जिससे कि आर्थिक दुष्प्रभाव कम हो और महामारी का फैलाव भी कम हो। ‘इकनॉमिक्स टुडे’ पत्रिका के अनुसार अगर कंस्ट्रक्शन उद्योग से कह कर श्रमिकों को साइट की चारदीवारी के अंदर ही रहने की सुविधा मुहैया कराई जाए, तो आर्थिक गतिविधि जारी रखते हुए भी महामारी के फैलाव पर काबू पाया जा सकता है। इसी प्रकार की व्यवस्था कल-कारखानों में भी की जा सकती है।

यह भी देखना चाहिए कि लॉकडाउन का तात्कालिक और दीर्घकालिक कुल प्रभाव क्या है। स्कूलों में लॉकडाउन लगाने से वर्तमान में विशेष नकारात्मक प्रभाव न दिखाई दे, तो भी दीर्घकाल में इसका बहुत अधिक प्रभाव पड़ता है। इसलिए वहां टेस्टिंग और ट्रेसिंग की जाए। इसकी तुलना में होटल, रेस्ट्रॉन्ट, मंदिर और तीर्थयात्रा पर लॉकडाउन लगा देना बेहतर है, क्योंकि इन गतिविधियों से कोविड के फैलाव की संभावना अधिक होती है।

सरकार को अलग-अलग गतिविधियों पर अलग-अलग तरकीब से लॉकडाउन लगाने के नफा-नुकसानों का आकलन करना चाहिए। प्राइमरी, सेकेंडरी और उच्च शिक्षा के विद्यालयों में लॉकडाउन लगाने से संक्रमण में कितनी बचत होती है, और अर्थव्यवस्था को कितनी हानि होती है, यह देखा जाए। इसी प्रकार विदेश यात्रा, होटल, रेस्ट्रॉन्ट और तीर्थयात्रा को प्रतिबंधित करने से कितनी लाभ-हानि होती है, यह भी देखा जाए। कंस्ट्रक्शन के मामले में भी इसे खोलने, बंद करने अथवा श्रमिकों को चारदीवारी के अंदर रखने- इन तीनों विकल्पों के अलग-अलग नफा-नुकसानों की ठीक से गणना की जानी चाहिए। तब जिस विकल्प में लाभ अधिक हों, उसको अपनाना चाहिए। ऐसा करने से अर्थव्यवस्था की मूल गति बनी रह सकती है।

‘वाइली क्लिनिकल प्रैक्टिस’ पत्रिका में इस बात पर जोर दिया गया कि लॉकडाउन को केवल ऊपर से लगाने से बात नहीं बनती है। इसमें जनता का सहयोग हासिल करना महत्वपूर्ण होता है। मेरे ध्यान में है कि पिछले वर्ष कोविड महामारी के प्रारंभिक समय में न्यू यॉर्क के गवर्नर कुओमो हर रोज सुबह प्रेस वार्ता करके जनता को परिस्थिति की विस्तृत जानकारी देते थे। इसी प्रकार यदि प्रत्येक राज्य के स्वास्थ्य मंत्री प्रतिदिन जनता को सही परिस्थिति से अवगत कराएं और स्वयं भी उन नियमों का पालन करें, जिनकी अपेक्षा वे जनता से करते हैं, तो जनता का उन्हें सहयोग मिलेगा। याद करें कि लाल बहादुर शास्त्री ने पाकिस्तान से युद्ध के समय संपूर्ण देश का आह्वान किया था कि सबको सप्ताह में एक दिन का उपवास करना चाहिए, जिससे अनाज की बचत हो सके। उनके आह्वान का संपूर्ण देशवासियों पर गहरा प्रभाव पड़ा था क्योंकि वह स्वयं भी उस सलाह का निष्ठापूर्वक पालन कर रहे थे।

अध्ययन बताते हैं कि लॉकडाउन का प्रभाव गरीबों पर अधिक पड़ता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के डेविड नवारो ने यह बात जोर देकर कही है। हार्वर्ड यूनिवर्सिटी के एक अध्ययन में भी कहा गया है कि सख्त लॉकडाउन के कारण गरीब के पास भोजन नहीं होता है और वह भूखे मरने के स्थान पर लॉकडाउन को तोड़ कर जीविका चलाना पसंद करता है। ऐसे में लॉकडाउन विफल हो जाता है। अर्थव्यवस्था लॉकडाउन के कारण कमजोर पड़ती है, और महामारी लॉकडाउन तोड़ने के कारण बढ़ती है। इसलिए हार्वर्ड यूनिवर्सिटी का कहना है कि सख्त लॉकडाउन के साथ-साथ गरीबों को सीधे वित्तीय सहायता देनी चाहिए। ‘वाइली क्लिनिकल प्रैक्टिस’ एवं लंदन स्कूल आफ इकनॉमिक्स के लेखों में कहा गया है कि गरीबों और छोटे उद्योगों को लॉकडाउन की अवधि पार करने के लिए ऋण देने की नीति सफल नहीं होगी, क्योंकि लॉकडाउन का प्रभाव लंबे समय तक रहता है। वे ऋण अदा नहीं कर पाएंगे और ज्यादा गहरे संकट में गिरेंगे। सरकार को यह नीति तो तत्काल त्याग देनी चाहिए।

लंबा चलेगा संकट
नेशनल ब्यूरो ऑफ इकनॉमिक रिसर्च कैंब्रिज के अनुसार 1918 की फ्लू महामारी का आर्थिक दुष्प्रभाव चार दशक तक रहा। यूरोप के सेंटर फॉर इकनॉमिक पॉलिसी रिसर्च के अनुसार महामारी के एक वर्ष बाद का आर्थिक प्रभाव 15 प्रतिशत नकारात्मक होता है और पूरी तरह संभलने में तीन वर्ष लग जाते हैं। साफ है कि यह समस्या अभी लंबे समय तक चलेगी। सरकार को लॉकडाउन लगाते समय छोटे उद्योगों और गरीबों को सीधे वित्तीय मदद देनी चाहिए। इस मदद के लिए रकम अर्जित करने के लिए सरकारी खपत में कटौती करनी चाहिए, ऋण नहीं लेना चाहिए। आने वाले समय में संकट बरकरार रहेगा और सरकार के लिए ऋण की आदायगी कर पाना आसान नहीं होगा। अर्थव्यवस्था को वापस अपनी राह पकड़ने में काफी समय लग सकता है।

भरत झुनझुनवाला
(लेखक आर्थिक विशेषज्ञ हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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