कोरोना से 219 देशों के 13 करोड़ से ज्यादा लोग संक्रमित हुए और 28 लाख से ज्यादा ने जिंदगी गंवाई। आज भी कोरोना का बढ़ता संक्रमण हमारे स्वास्थ्य और चिकित्सा तंत्र के लिए चुनौती बना हुआ है। जो बात अभी भी इस विमर्श में अपनी जगह नहीं बना पाई है, वह है इन सबसे भोजन और खाद्य सुरक्षा के सवालों का गहरा नाता। एक तरफ दुनिया में इतना भोजन उपलब्ध है कि हम आसानी से सबका पेट भर सकते हैं, दूसरी तरफ आज भी इस पृथ्वी पर 69 करोड़ लोग ऐसे हैं, जो रात में भूखे ही सोते हैं। अफसोस यही है कि जहां भुखमरी अपने पांव फैला रही है, वहीं बड़े देशों का फूड वेस्ट रुक नहीं रहा। अपने देश की बात करें तो यहां भी नैशनल फैमिली हेल्थ सर्वे के अनुसार वर्ष 2018 में कुपोषित बच्चों की संया पांच वर्ष पहले की तुलना में कम होने के बजाय और बढ़ गई है। यह सर्वे 22 राज्यों में किया गया था। मामला सिर्फ नौकरशाही की लापरवाही का या नीतियों और कल्याणकारी योजनाओं पर अमल में गड़बड़ी का नहीं है। मूल बात यह है कि विकास की रूपरेखा तैयार करते हुए स्वास्थ्य और भोजन को स्थानीय जनसमुदायों की आदत, जरूरत, मौसम और जलवायु से उसके रिश्तों से जोड़कर देखने की कोशिश ही नहीं हुई। विभिन्न जलवायु क्षेत्रों में पैदा हुए लोगों को वहां उपलब्ध अलग-अलग तरह के भोजन से जोड़कर न देखने के कारण हमारी प्रतिरोध क्षमता क्षीण होती गई।
किसी भी जलवायु विशेष में किसी व्यक्ति का मेटाबॉलिज्म इस बात पर निर्भर करता है कि वह क्या खाता है। जलवायु विशेष में पाए जाने वाले पेड़- पौधे उसी मिट्टी से जुड़े होते हैं, जो मनुष्य के जीवन का भी आधार होती है। इन दोनों का आपस में एक तालमेल होता है, जिसे हमने जाने-अनजाने तोड़ा और उसके संभावित नतीजों से अनजान रहे। यही कारण है कि एक वायरस ने आकर कहर ढा दिया और हमारी कुदरती प्रतिरोधक क्षमता शरीर को बचाने में सफल नहीं हो सकी। दुनिया भर में पिछले 200-300 सालों में मानव सयता के विकास की जो गति रही, उसमें सबसे बड़ा आक्रमण भोजन शैली पर ही हुआ। सारी दुनिया में एक ही तरह के व्यावसायिक भोजन को परोसने की जो कोशिश होती आई है, उसने हमारी भूख को जरूर मिटाया, लेकिन हमारी उन जरूरतों को नकार दिया, जिनकी पूर्ति प्रकृति पूरी सहजता से, हमें अहसास कराए बगैर कर दिया करती थी। हमारी खाद्य सामग्रियों में पहले काफी वन उत्पाद भी जुड़े होते थे। ये शरीर को उन तत्वों की आपूर्ति करते थे, जिन्हें आजकल ट्रेस एलिमेंट कहा जाता है। आज बहुतायत में ऐसी फसलों को बढ़ावा दिया जा रहा है जो खाद्य सुरक्षा तो ला सकती हैं, पर सूक्ष्म तत्वों की शरीर की आवश्यकता की अनदेखी कर देती हैं।
एक अध्ययन के अनुसार पहले हर व्यक्ति की आवश्यकताओं का करीब 30 फीसदी उसके चारों तरफ के वनों से जुड़े हुए कंदमूल फलों, अन्य वन उत्पादों या स्थानीय साग-भाजी से पूरा होता था। आज यह बहुत कम है। इसकी एक वजह जंगलों का सिमटते जाना और हमारी खेती और भोजन शैली भी। लिहाजा सूक्ष्म तत्वों की आवश्यकता जो जलवायु विशेष से पूरी होती थी, उसकी पूर्ति का कोई तरीका नहीं रह गया। आज हमें जलवायु के संदर्भ में समाज विशेष की शारीरिक आवश्यकताओं पर ध्यान देना चाहिए और उस वर्तमान भोजन शैली पर भी जो हमारे लिए घातक बन चुकी है। सीधे शब्दों में कहा जाए तो यह सुनिश्चित करना चाहिए कि भोजन भूख मिटाने की भूमिका तक सीमित न रहे, शरीर की सूक्ष्म तत्वों की आवश्यकता भी पूरी करे। सवाल यह है कि यह संभव कैसे होगा। लेकिन इस सवाल पर जाने से पहले यह समझ लेना जरूरी है कि कुपोषण जैसा मुद्दा किसी विशेष आर्थिक वर्ग से जुड़ा नहीं है। यह अनिवार्य तौर पर गरीबी और अभाव की उपज नहीं है। संपन्न तबके या मध्यम व उच्च मध्यमवर्ग के लोग भी इसके शिकार पाए जाते हैं। आज शहरी सयता ने जिस तरह के फूड हैबिट को बढ़ावा दिया है, उसमें भोजन में उन विशेष तत्वों का अभाव ही शायद ऐसे कुपोषण को जन्म दे रहा है।
एक बार फिर प्रतिरोध क्षमता की ओर लौटें तो यह समझना जरूरी है कि हमारी प्रतिरोध क्षमता दो बातों पर सीधे निर्भर करती है। एक, हम किस तरह का भोजन उपयोग में ला रहे हैं और दो, हमसे कितना शारीरिक श्रम जुड़ा है। श्रमहीन होना कई तरह की शारीरिक असंगतियां पैदा करता है। हमारी जीवनशैली में श्रम के लिए भी गुंजाइश कम होती जा रही है। यह देखना दिलचस्प है कि दुनिया भर में ग्रामीण क्षेत्रों ने कोविड से लडऩे में बेहतर क्षमता प्रदर्शित की। वजह यही मानी गई कि उनकी भोजन शैली काफी हद तक उनके पारंपरिक तौर-तरीकों के अनुरूप बनी रही थी जबकि शहरों में यह काफी हद तक बदली हुई दिखाई दी। भारत में ही हुए अध्ययन पर गौर किया जाए तो कोविड 19 ने ऐसे राज्यों में ज्यादा प्रकोप फैलाया जहां समृद्धि ज्यादा थी। यह अध्ययन विश्व बैंक का था। महाराष्ट्र, दिल्ली और गुजरात में ज्यादा संक्रमण भी हुआ और ज्यादा गंभीर केस भी आए बनिस्बत ग्रामीण बहुल राज्यों के। समय आ गया है कि स्वास्थ्य को पारिस्थितिकी दृष्टिकोण से भी तोला और समझा जाए क्योंकि यही रास्ता होगा जो हमें एक ऐसे स्थिर स्वास्थ्य व्यवस्था के लिए तैयार करेगा, जिसमें पारिस्थितिकी और स्थानीय भोजन का तालमेल तो बना ही रहेगा, हम महामारियों से भिडऩे के लिए भी तैयार होंगे।
अनिल पी जोशी
(लेखक पर्यावरण विद हैं ये उनके निजी विचार हैं)