पृथ्वी के लोग और चीन का मौका !

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कभी क्या सोचा कि महामारी के तांडव के वक्त में “ब्लैक लाइव्स मैटर” क्यों इतना फैला? अमेरिका में फैला तो अन्य गोरे देशों में भी फैला। जाने कि इस महामारी से दुनिया ने जाना है कि गोरे देशों में वायरस से काले लोग अपेक्षाकृत अधिक बीमार हुए। वे अधिक मरे। यों यह बात हर मुल्क में बहुसंख्यक आबादी में अल्पसंख्यक याकि हाशिए में रहने वाले ग्रुप पर लागू होती लगती है। बावजूद इसके गोरे बनाम कालों की खाई, फॉल्टलाइन का महामारी के बीच फट पड़ना सभ्यता के संघर्ष के भावी सिनेरियो में वैसा ही पहलू है, जैसे इस्लाम बनाम ईसाई का है, हिंदू बनाम मुसलमान का है। लोकतंत्र बनाम तानाशाही का है। चीन याकि हान सभ्यता बनाम शेष सभ्यताओं का है। चीन बनाम भारत का है। अपना मानना है आने वाले वक्त में अफ्रीका महाद्वीप में अपेक्षाकृत (दक्षिण एशिया, मध्य एशिया आदि के मुकाबले) तेज विकास होना है। विश्व राजनीति में अगली निर्णायक आबादी अफ्रीका, दक्षिण अफ्रीका की अश्वेत आबादी होगी। पश्चिम एशिया, इजराइल, अरब देशों का संघर्ष अपनी जगह लेकिन इथियोपिया से ले कर दक्षिण अफ्रीका के देशों की लीडरशीप में जो चमत्कारिक सुधार है और विकास की इनकी धुन को पश्चिमी देशों व चीन से जैसा समर्थन है उससे अफ्रीका और अश्वेत आबादी का आगे वैश्विक गांव में बड़ा रोल होगा। उस रोल की बानगी में अमेरिका में “ब्लैक लाइव्स मैटर” और ट्रंप के गोरे समर्थकों के रूख पर गंभीरता से सोचें तो समझ आएगा कि गोरों बनाम कालों के रिश्तों में इतिहास के घाव गहरे हैं। इसमें पीड़ा है, मानवीय सरोकार हैं तो एक-दूसरे को देख लेने का खूंखारपना भी है। पश्चिमी सभ्यता के लिए यह इसलिए घातक हो सकता है क्योंकि अंदरूनी मामला है तो भितरघात का खतरा बनेगा, जिसे इस्लाम के जिहादी भुनाने की कोशिश करेंगे तो चीन भी इसके भीतर अपने पैंतरे चल सकता है। हां, रिपोर्ट है कि कोरोना वायरस के कारण अमेरिका से लेकर यूरोप, जापान, ऑस्ट्रेलिया सभी ओर चीनी चेहरों के प्रति नफरत दिखलाई दी।

न्यूयॉर्क, वाशिंगटन, लंदन आदि में चीनी लोग घरों में दुबके हुए हैं। मतलब पश्चिमी सभ्यता के देशों में मुसलमान को लेकर जैसा शक है वैसा कुछ भाव चीनियों को ले कर बना है। तभी अमेरिका, ब्रिटेन जैसे गोरे-ईसाई देशों में वायरस काल में काली आबादी का मसला चुनौती की तरह उभरा है। इस्लाम पहले से चुनौती है तो चीनी आबादी पर शक, नफरत का नया एंगल इन गोरे देशों में क्या मनोदशा बनाएगा, इसका अनुमान लगाया जा सकता है। जाहिर है सन् 2020-21 के क्षण की भावनाओं में, महामारी की आपदा में वह सब हो रहा है, वे बीज बन रहे हैं, जिनसे आगे समाज-देश में संघर्ष की खदबदाहट बढ़े। इसे भारत के उदाहरण से समझें। सन् 2020-21 के लम्हे में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार ने भारत के समाज में वायरस पर हिंदू बनाम मुस्लिम का जो भेद बनाया है उसने आबादी को दो फाड़ बना इतिहास के घाव को ऐसे हरा किया है कि राजनीतिक नफा-नुकसान चाहे जो हो इस लम्हे के घाव स्थायी रहेंगे। भारत में यह काम सरकार के स्तर पर हुआ तो उसके नतीजे अलग तरीके से होंगे जबकि अमेरिका, ब्रिटेन में बीमारी बता रही है कि काले ज्यादा मर रहे हैं तो वहा कालों-गोरों की इससे बनती खाई अलग तरह का संघर्ष बनवाएगी। “ब्लैक लाइव्स मैटर” ने अमेरिका और ब्रिटेन में, जहां नस्ली भेद की आग सुलगाई तो पश्चाताप, आत्मग्लानि का वह भाव भी बना, जिसमें ऐतिहासिक स्मारकों, मूर्तियों, झंडे तक को हटाने, बदलने के फैसले हैं। ये छोटी-छोटी बातें इतिहास को जिंदा करती हैं। मनोभावों में गुस्सा, ग्लानि, खेद लाती हैं और यदि ऐसे वक्त लीडरशीप सही नहीं हो तो घाव भरने की बजाय पकते जाते हैं। जैसा मैंने पहले लिखा कि सन् 2001 में दुनिया के भूमंडलीकृत गांव में बदलने तक मानवता समरस भाव आगे बढ़ रही थी। दिशा सही थी। अचानक बिन लादेन के इस्लामी जिहाद का वह वज्रपात हुआ, जिससे गुजरा वक्त लौट आया और तब से आज तक का संकट है कि दुनिया की कमान परिस्थितिजन्य नेताओं के हाथ में है।

स्वंयस्फूर्त राजनीतिक प्रक्रिया में निकले मौलिक, विजनरी नेताओं का नेतृत्व अब क्योंकि दुनिया को प्राप्त नहीं है तो दुनिया आतंकवाद में भी फंसी रही तो महामारी व आर्थिक विनाश के मौजूदा वक्त में भी सर्वत्र लाचारगी है। जाहिर है पृथ्वी का संकट प्रजा और नेता दोनों से है। बुश से लेकर डोनाल्ड ट्रंप सब क्योंकि इस्लाम-आंतकवाद से लड़ने में खपे रहे तो अमेरिका का बीस सालों में ध्यान नहीं बना कि चीन बतौर भस्मासुर आगे पश्चिमी सभ्यता के लिए खतरा हो सकता है। या पृथ्वी पर आबादी का शक्ति संतुलन गड़बड़ा रहा है इसलिए नए समीकरण, नए एलायंस बने। कोई माने या न माने अपना तर्क है कि इस्लाम से संघर्ष के चलते अमेरिका-ब्रिटेन, फ्रांस-जर्मनी याकि दुनिया की चौकीदार ताकतों, पश्चिमी सभ्यता ने लापरवाही बरती जो पृथ्वी पर लोकतंत्र को अधिकाधिक पैठाने, पृथ्वी की आबादी में निजता, निज स्वतंत्रता की ऑक्सीजन के सुख का अहसास करवाने वाले प्रयास नहीं हुए। अमेरिका ने लापरवाही की जो अरब वसंत को फलने-फूलने नहीं दिया। इस्लाम को, चीन को लोकतांत्रिक औजारों से कमजोर नहीं बनाया। पश्चिमी सभ्यता की बीस वर्षों की सबसे बड़ी गलती, चूक, लापरवाही यह है कि दुनिया में निज स्वतंत्रता, बुद्धि, ज्ञान-विज्ञान-आधुनिकता, लोकतांत्रिक अधिकारों की चेतना का प्रचार-प्रसार नहीं बनवाया। इसका नतीजा है कि इस्लाम हो या चीन या तानाशाही के तमाम टापू जस के तस सभी कठमुल्ला-लड़ाकू हैं। बीस सालों में वह राष्ट्रवाद, धर्मवाद, नस्लवाद, साम्राज्यवाद, निरंकुशतावाद लौटा हुआ है जो बीसवीं सदी में घटता या खत्म होता लगता था। गौर करें आज पृथ्वी के सात अरब 60 करोड़ लोगों में से कितने लोग सच्चे लोकतंत्र में आजादी की सांस लिए हुए हैं? मुश्किल से सवा अरब लोग। यूरोपीय संघ, अमेरिका, जापान, ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड आदि की सवा अरब आबादी ही असली लोकतंत्र का सुख भोगने वाली है।

मैं इसमें भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, दक्षिण अफ्रीका जैसे लोकतंत्र को इसलिए नहीं जोड़ता हूं क्योंकि पिछले बीस वर्षों में इन देशों में बुद्धि और आजादी का ऐसा हरण व लोप है कि यहां लोकतंत्र महज नाम का रह गया है। इन देशों में लोकतंत्र, मीडिया, अदालत, कार्यपालिका, विधायिका सबका अर्थ दिखावे का है या विलुप्त है। इमरान खान, नरेंद्र मोदी, हसीना वाजिद, आंग सान सू की कथित लोकतांत्रिक सत्ता में आदमी की निजता, निज स्वंतत्रता, चेक-बैलेंस, संस्थाओं-नागरिकों की गरिमा, मानवाधिकार और बुद्धि बल व आजादीपना कहां-कितना है इसे दुनिया जानती-समझती है तो इन देशों के नागरिक भी अनुभव कर रहे हैं। सो, सात अरब 60 करोड की वैश्विक आबादी में बुद्धि और स्वतंत्रता की सच्ची मशाल लिए सिर्फ सवा अरब लोग। बाकी पांच अरब चालीस करोड़ लोगों में चीन, निरंकुश देशों की वह जमात है, जिसमें इस्लामी हुक्मरान हैं तो अफ्रीकी, लातिनी देश हैं जो अपने-अपने कारणों से चीन से गठज़ोड़ बना सकते हैं। कोई आर्थिक मदद से, कोई ईसाईयत से खुन्नस में या जिहाद और तानाशाही में साझे से हान सभ्यता का झंडा लिए चीन से जुड़ सकता है। जाहिर है सन् 2020-21 के लम्हे में चीन वह एडवांटेज लिए हुए है, जिसकी गहराई को न भारत बूझ सकता है और न पश्चिमी सभ्यता। तात्कालिक वजह यह भी है कि सभी को अभी वायरस से लड़ना है। आर्थिकी बचानी है।

फिर सबसे बड़ा पेंच कि वह लीडरशीप कहां है, जो वैश्विक गांव की रियलिटी में गांव का चौधरी हो। डोनाल्ड ट्रंप ने जब अमेरिका को ही दो खेमों में बांट डाला है तो वे दुनिया को क्या नेतृत्व देंगें? बोरिस जॉनसन जब पश्चिमी सभ्यता में ही ब्रेक्जिट ले आए और वायरस के आगे मूर्खताएं कर रहे हैं तो शेष दुनिया में उनका नैतिक बल, लीडरशीप क्या बनेगी? लब्बोलुआब? सन् 2020-21 का लम्हा मानव इतिहास में अकल्पनीय मोड़ वाला है। इंसान की बुद्धि, उसकी निजता, निज स्वतंत्रता का हरण संभव है तो चीन अपने झंडे में इस्लाम, तानाशाह, गरीब देशों को ला कर या भूराजनीतिक-सभ्यतागत-आर्थिक-तकनीकी ताकत में गठजोड़ बना कर वैश्विक गांव में वह दादागिरी बना सकता है कि इंसान को जीना है तो उसके कायदों से जीये! वह है नंबर एक ताकत! उसकी चौधराहट में बाकी पालतू बन कर जीना सीखें! क्या सचमुच? जवाब में हमें सन् 2021 के आखिर तक इंतजार करना होगा। जरा मालूम हो जाए अमेरिका और यूरोप किस दशा को प्राप्त होते हैं? बुद्धि-आजादी से उनका बाउंस बैक होता है या नहीं? इतना जरूर नोट रखें कि चीन अकेला उत्तरोतर ताकतवर बनने की परिस्थितियां लिए हुए है और शेष दुनिया के लिए अमेरिका-यूरोप की मशाल, उसकी लीडरशीप आज जीवन-मरण का महत्व लिए हुए है। अमेरिका-यूरोप को लीडरशीप देनी होगी, सच्चे-मौलिक-विजनरी लीडर पैदा करने होंगे।

हरिशंकर व्यास
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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