यूरोप में घिरती काली घटा

0
426

इंग्लैंड में मौलिक सत्ता परिवर्तन के आसार लग रहे हैं। अजीब तरह के युवा झुंड पुराने, भूले हुए स्मारकों को तोड़ने-गिराने में लगे हैं। किन्हीं स्मारकों को नजरों से छिपाकर बचाने की कोशिश हो रही है। वे स्मारक महान लोगों के भी हैं और मामूली भी। परंतु तोड़-फोड़ झुंड में अधिकांश को उन के बारे में शायद ही कोई समझ है। वे बस एक भावना के बहाव हैं। जिस के पीछे न कोई ठोस माँग है, न नेत्तृत्व, न दल, न व्यवस्थित विचार। केवल जिद और अहंकार दिख रहा है कि वे जो चाहें वही हो। किसी तथ्य, विचार-विमर्श या लोकतांत्रिक पद्धति से मतलब नहीं। उन्हें रोकने के बजाए प्रशासक लोग सड़कों पर बाकायदा घुटने टेक कर उन की भावना का आदर कर रहे हैं। विपक्षी नेता उन झुंडों को समर्थन दे रहे हैं। जबकि उन्हें भी नहीं पता कि आंदोलन का लक्ष्य क्या है? लगता है चालू व्यवस्था ऐसे अराजक और विध्वंस पर आमादा झुंड से निपटने की ताब नहीं रखती। या तो उस में नैतिक बल नहीं, या अपने पर विश्वास नहीं है। यह सब व्यवस्था-परिवर्तन की संभावना दर्शाता है। चाहे परिवर्तन बुरी दिशा में ही क्यों न हो। रूस में फरवरी 1917 में इसी तरह शासन में किंकर्तव्यमूढ़ता थी, जब अंततः जार की सत्ता चली गई। बिना किसी विशेष प्रयत्न के। महान लेखक सोल्झेनित्सिन ने उसी का प्रमाणिक इतिहास अपने बहुखंडी ‘लाल चक्र’ में सूक्ष्मता से लिखा है।

फिर, 1989 में पूर्वी यूरोप के कई देशों में कम्युनिस्ट सत्ताएं अपने-आप गिर गईं। सोवियत संघ में 1991 में कम्युनिज्म ही धराशायी हो गया। कहीं एक भी गोली नहीं चली। मूल कारण यही था कि तात्कालिक सत्ताधारी नैतिक बल में कमजोर हो चुके थे। तब स्वभावतः समाज भी उन के लिए सक्रिय खड़े होने की भावना में नहीं था। उस हालत में मुट्ठी भर लोगों ने भी चालू व्यवस्था को धराशायी कर दिया।अभी ब्रिटेन में वैसी ही दुर्बलता झलक रही है। विध्वंस करने वाले झुंड वैचारिक कट्टरता का प्रदर्शन कर रहे हैं। अपनी मनमानी थोप रहे हैं। मानो ब्रिटेन के करोड़ों लोगों के विचार या भावना का कोई मूल्य नहीं। मीडिया में भी विध्वंसक आंदोलनकारियों के प्रति ही झुकाव है। तोड़-फोड़ झुंड से भिन्न विचार वालों, या भिन्न आदर्श मानने वालों को ही दोषी-सा दिखाया जा रहा है! इस तरह, सदियों से यूरोप में स्थापित अभियक्ति-स्वतंत्रता और समानता के मूल्य ताक पर चले गए हैं। मानो सब लोग अपने विचार व आदर्श उन आंदोलनकारियों के अनुरूप बनाएं, वरना चुप रहें! बीबीसी, टाइम्स, सीएनएन, न्यूयॉर्क टाइम्स, आदि का यही रुख है। वे उन झुंडों की बुरी करतूतों, हिंसा, दिशा-हीनता, आदि पर पर्दा डालकर सारा दोष सत्ताधारियों या अन्य लोगों पर डालने का संकेत कर रहे हैं।

विश्वप्रसिद्ध ‘हैरी पॉटर’ लेखिका जे.के. रॉलिंग को जेंडर पर अपना विचार रखने पर ऐसा हंगामा किया गया कि उन्हें तीन बार सफाई देनी पड़ी। यह सब समानता, स्वतंत्रता के विरुद्ध है। मगर सारे ब्रिटिश संस्थान चुप हैं। कानून तोड़ने वालों, हिंसा और तोड़-फोड़ करने वालों पर कार्रवाई के बदले उन से मीठी बातचीत की मुद्रा अपनाई जा रही है। यह सब लंबी कुशिक्षा का ही परिणाम है। चार-पाँच दशकों तक विश्वविद्यालयों में फैलती यह जिद्दी वामपंथी मानसिकता अब समाज के उच्च वर्ग और सड़कों, चौराहों पर हावी हो रही है। कोई भी मूल्य स्वतः नहीं बने रहते। उन्हें नियमित शिक्षा द्वारा प्रतिष्ठित रखना पड़ता है। ताकि नयी पीढ़ी उन मूल्यों को सीख सके, जिन्हें कष्ट सहकर और लंबे अनुभव से विकसित किया गया था। पर पिछले पचास वर्षों में यूरोपीय, अमेरिकी शिक्षा में वामपंथी मतवाद ने अपना डेरा जमा कर धीरे-धीरे युवाओं का मस्तिष्क विषाक्त कर दिया। शासकों ने इसे ‘अभिव्यक्ति स्वतंत्रता’ के नाम पर कोई बड़ी बात नहीं समझा। जोर-जोर से, मुँह से झाग उठते कही जाती ऊल-जुलूल बातों, अपशब्दों को भी तरह दी गई। चलो, बोलने दो, बोल ही तो रहे हैं। मगर वही बातें मानक पाठ्य-सामग्री बनती गईं। झूठे नारों ने सच्चे ज्ञान को धीरे-धीरे विस्थापित कर दिया।

कई विषयों में तो केवल हानिकारक बातें ही भर गईं। यहीं जेएनयू में कई विभागों की पाठ्य-सामग्री में इस का मुलाहिजा कर सकते हैं। यहाँ ‘भारत तेरे टुकड़े होंगे, इंशाअल्लाह…’ उसी विषबेल के फल हैं। चूँकि कहीं भी इस विषैली प्रक्रिया में कोई राजनीतिक पार्टी नहीं थी, इसलिए इसे राजनीतिक चुनौती नहीं समझा गया! जबकि यह देश-समाज के पैरों के नीचे से धीरे-धीरे मिट्टी काटने जैसी प्रक्रिया है। नियमित रूप से कुछ युवा और उन से बनने वाले पत्रकार, प्रशासक, नेता, और शिक्षक, उस विष के प्रसारक बनते हैं। वे लोकतंत्र, समानता, योग्यता, रचनात्मकता, उत्तरदायित्व, जैसे मूल्यों के ऊपर धीरे-धीरे मायनोरिटी, मल्टी-कल्चरिज्म, जेंडर, रेसिज्म, रेसिस्टेंस, आदि नारों को वरीयता देते हैं। मानो इन के लिए सच्चे, विवेकशील, समतापरक ज्ञान की उपेक्षा जरूरी हो। निस्संदेह, यह सब किसी पारदर्शी, खुले विचार-विमर्श से नहीं हुआ। शिक्षा में महान ज्ञान-पुस्तकों, मानवीय मूल्यों को पीछे ढकेल कर नारेबाजियों को छल-प्रपंच और जोर-जबर्दस्ती से आगे बढ़ाया गया। हर कहीं इस प्रक्रिया में देश के बाहरी शत्रुओं ने भी निवेश किया, जो उस देश, समाज को कमजोर करके अपनी पैठ बनाना चाहते थे। उन्होंने विविध तरीके से शिक्षा में वामपंथी विषबेल फैलाने में मदद दी।

इस मामले में भारत और ब्रिटेन की स्थिति समान है। अभी उसी का परिणाम ब्रिटेन भुगत रहा है। ‘नस्लभेद’ या ‘गुलामी’ की बातें कितनी ऊपरी हैं, यह इसी से दिख सकता है कि हाल तक गुलामी-प्रथा चलाने वाले इस्लामी शासकों के खिलाफ एक शब्द नहीं सुना गया। इस्लामी विद्वान आज भी अपनी किताबें अनुकरणीय मानते हैं जिन में गुलामों के उपयोग के नियम लिखे हुए हैं। कुछ मुस्लिम देशों में अभी भी गुलामों की खरीद-फऱोख्त होती है। चार साल पहले इस्लामी स्टेट ने डंके की चोट पर गुलामों का बाजार कायम किया था कि उन्हें प्रोफेट की सीख हू-ब-हू लागू करनी है। मगर उस सीख को अभी तक किसी ने निशाना नहीं बनाया। दूसरी ओर, दुनिया में एक मात्र औपनिवेशिक सत्ता कम्युनिस्ट चीन है जिस ने तिब्बत, अंदरूनी मंगोलिया, हांग-कांग, ताइवान, जैसे कई क्षेत्रों पर अधिकार जमाने और लोगों को सताने का रिकॉर्ड बनाया है। मगर अमेरिका या यूरोप में हो रहे आंदोलन में अभी जारी ऐसे जोर-जुल्म-गुलामी की कोई चिंता नहीं! वे सदियों पहले के किसी नेता का स्मारक तोडकर गुलामी पर हाय-तौबा कर रहे हैं।

इसीलिए लगता है कि सब कुछ तोड़-फोड़ और अराजकता फैलाने का बहाना है। मानो कुछ सही नहीं है। केवल गलत बातें, गलत लोग हैं, जिन्हें ‘कैंसिल’ करना है। इन में पुराने महान लेखकों की पुस्तकें तक हैं। यह हिटलरी नाजीवाद और माओवादी ‘सांस्कृतिक क्रांति’ वाली मानसिकता की झलक है। जिस में महान पुस्तकें जला दी गई थीं। किसी स्वस्थ वैचारिक आदान-प्रदान की गुंजाइश नहीं। किसी विशेष रंग, लिंग, शरीर, या विचार वाले ने जो चीख-चीख कर कहा, बस उस के सामने झुकिए। वरना गाली खाइए। यही अभी अमेरिका और ब्रिटेन में चल रहा है। कहना कठिन है कि इस अराजक आंदोलन का क्या अंत होगा। हिटलर से ब्रिटेन को बचाने वाले महान नेता विन्स्टन चर्चिल का स्मारक खतरे में पड़ने का अर्थ यही है कि अनर्थ भी हो सकता है। या तो ब्रिटिश लोग अपने मूल्य भूल गए हैं। अथवा ऐसे लोग भर गए जो नारेबाजी को ज्ञान और चिल्ला कर कही गई हर बात को आदरणीय मानते हैं। इसलिए अभी जो मूर्तियाँ तोड़ जा रही हैं, उन का कोई महत्व नहीं है। उस से अधिक महत्वपूर्ण है कि आगे क्या बनने वाला है?

शंकर शरण
(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here