महामारी में ‘मृत्यु’ ही है विषय !

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अच्छा नहीं लगा, एक पुण्यात्मा की स्मृति में चंद लोगों को देख कर। वजह? शायद महामारी काल! मतलब मृत्यु काल! वक्त का यह रूप सभी सयताओं में मौत का प्रतिबिंब है। और जब वह सन् बीस-इक्कीस की हकीकत है तो लोग चिंता में जीये, यह स्वभाविक है। उस नाते हिंदी के दोनों शब्द ‘महामारी’ और ‘संक्रमण’ वक्त की सटीक अभिव्यक्ति हैं। इसलिए ऐसे समय व्यक्ति अपनी चिंता करते हुए किसी की मृत्यु के बाद उसकी स्मृति शेष के सामूहिक शोक में शामिल होने से बचा रह सकता है। मसला समझ आता है। बावजूद इसके दिमाग कुलबुलाया कि यदि मृत्यु शोक में लोग न हो, उठावना, गरूड़ पुराण और श्राद्ध क्रिया-कर्म का प्रोटोकॉल और प्रियजनों का संताप नहीं हो तो उस जीवन के साथ क्या अन्याय नहीं होगा, जिसके सानिध्य में, रिश्ते से जीवन हुआ या है! आखिर रिश्तों से ही मानव, मानव है, जीवन है, विश्व है और मनुष्य जीवन का सार। उस नाते सन् बीस का नीच काल रिश्तों को जहां मारता हुआ है वहीं महायुद्धों, विपदाओं से भी ज्यादा खराब। लड़ाई में, विश्वयुद्ध की मौत में मानवीय रिश्तों, संवेदनाओं का कंधा होता है जबकि आज के महामारी काल में संताप बिना कंधों का! या नहीं? महामारी से अकाल मृत्यु और अंतिम सफर बिना कंधों के अकेले! प्रियजन दूर और रिश्तों की बुनावट की भावनाओं व संवेदनाओं में लाचारगी।

न जीवन विशेष की सांसों के बस में कुछ और न प्रियजनों के बस में कुछ! ठीक बात कि महामारी के आगे 21वीं सदी के मानव समाज की सामूहिकता वायरस से निपटने का प्रण लिए हुए है। सामर्थ्य बतलाते हुए है। लेकिन निज जीवन, व्यक्ति और परिवार के अनुभवों में उसका या अर्थ? वह तो बेमौत मौत की अंतिम यात्रा को कंधा देने का साहस भी लिए हुए नहीं। पीड़ा, भावना, संवेदना व्यक्त करना ही जब दूर से है तो गमी में शरीक होने और स्मृतियों से श्रद्वांजलि में जाने का साहस इंसान कहां से लाए? कोई जीवन आईसीयू के आइसोलेशन वार्ड में पहुंचा नहीं कि वह फिर वेंटिलेटर धड़कनों के सुपुर्द। तब मशीनीकृत प्राणवायु को जिजीविषा, भावनाओं का भला या सहारा मिलता होगा! सोचें, पिछले साल आईसीयू और वेंटिलेटर की धड़कनों से जूझते जिन पच्चीस लाख लोगों ने दम तोड़ा उन्हें या तो जिजीविषा का बल मिला होगा और डॉटरों, नर्सों, अस्पतालकर्मियो से लेकर कब्रिस्तान,चर्च की प्रार्थनाओं में किसका-कितना कंधा था? महामारी में मौत कैसी मशीनीकृत व लावारिस होती है और भावाव्यक्ति और संवेदनाओं का कैसा टोटा बनता है, यह दुनिया में सभी और दिख रहा है। सभी तरफ का लब्बोलुआब बिना रूदाली के मृत्यु और वह भी जैसे पात गिरे तरुवर से! हां, वर्ष 2020-21 की महामारी में असंय फोटो जीवन के अंतिम क्षणों, अंतिम यात्रा के निपट अकेलेपन की असहायता के साथ गुमनामी को बतलाते हुए हैं।

सही है मृत्यु कुल मिला कर अकेले का अंतिम सफर है। जिसकी सांसे खत्म, जो सद्गति प्राप्त हुआ उसे क्या मतलब कि उसके शोक में चंद लोग थे क्या भीड़? उसकी अकाल मृत्यु हुई या सहज मृत्यु ? उसके लिए क्या उठावना, क्या गरूड़ पुराण और क्या श्राद्ध क्रिया-कर्म! जब तक सांस थी तभी तक तो दिमागी कुलबुलाहट, सोचना-समझना है। फिर तो सब खत्म! मानव समाज सामूहिकता में जीवन और मृत्यु पर भले सतत विचार करता रहे और उससे वह जीवन को उत्तरोत्तर दीर्घायु बनाने में सफल होता हुआ है लेकिन एक व्यक्ति याकि जीवन विशेष का मृत्यु बाद (पहले भी) विचारना कहां संभव? ज्योंहि अनुभवस्मृति शेष विलुप्त त्योंहि पेड़ से टूट पड़ा पता! न पेड़ को उस पते का भान और न जग मेले के दर्शनार्थी की बची ऐसी कोई चेतना जो कुछ बूझती हुई हो। उस नाते क्रियाकर्म के समाज जनित उठावने या शोकाकुलों के स्मृति शेष कार्यक्रमों का मसला कुल मिला कर फिजूली है। तब क्यों सोचना? इसलिए कि मृत्यु सबसे बड़ा सत्य है। इस सत्य पर सत्यता से विचार न हो तो किस पर हो? कहने वाले कहेंगे शुभ, शुभ सोचो और मृत्यु पर कतई न सोचो!

पर महामारी के मृत्यु सत्य पर न सोचें तो फिर मनुष्य होना ही क्या! पते की बात है कि सहज जगदर्शन के चिरंतन जीवन में महामारी वह अनहोना वक्त है, जिस पर जितना सोचेंगे कम होगा। और अपना मानना है कि सन् बीस में मृत्यु, मौत, भय, आंशका पर मानवता ने जितना सोचा है और सोच रही है शायद ही कभी पहले उतना सोचा गया। सोचना सभ्यतागत अलग-अलग जीवन पद्धतियों के अनुसार अलग- अलग हो सकता है लेकिन ‘यम के दूत बड़े मज़बूत, यम से पड़ा झमेला’ पर विचारना सर्वत्र एक सा है। सब मृत्यु पर सोचते हुए हैं लेकिन सोचने और व्यवहार में फर्क है। अमेरिका और विकसित देशों में जैसे सोचना है वैसा या भारत, विकासशील- पिछड़े देशों में है? फर्क मिलेगा। यह फर्क जीने के अंदाज, जीवन पद्धति और बुद्धि के विकास में फर्क के चलते है। महामारी, मृत्यु, यम दूतों को ले कर डर और चिंता एक सी लेकिन व्यवहार में फर्क! भला क्यों और कैसे? जवाब एक ही है। दुनिया दो तरह को लोगों की है। एक हिस्सा सत्यवादी और वैज्ञानिकता के संस्कारों में जीता हुआ है और इसके ठीक विपरीत दूसरा जन समूह वह है जो जन्म से मृत्यु तक झूठ और अवैज्ञानिकता में सांस लेते हुए मूढ़ता में जीवन जीता है।

हरिशंकर व्यास
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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