कांग्रेस को भाजपा से सीखने की दरकार

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निस्संदेह 2020 सभी के लिए बुरा साल रहा है। कांग्रेस के लिए भी। लेकिन 2021 कांग्रेस के लिए और भी खराब साबित हो सकता है। यह साल कांग्रेस में बेचैनी और विभाजन के खतरे के रूप में सामने है। एक सवाल जो बार-बार पूछा जा रहा है कि आखिर कांग्रेस खुद को पुनर्जीवित करने के लिए क्या कर सकती है? इसका सीधा-सा जवाब कहीं नहीं है, लेकिन फिर भी कुछ ऐसी बाते हैं, जो वह अपनी मुख्य प्रतिद्वंद्वी भाजपा से भी सीख सकती है।

मीडिया के साथ जीवंत संपर्क :

भाजपा का मीडिया के ऊपर पूरी तरह से दबदबा है। आल इंडिया कांग्रेस कमेटी के मीडिया प्रभाग का दायित्व संभालने वाले रणदीप सिंह सूरजेवाला लगातार कहते आए हैं कि कांग्रेस के पास ‘विजन’ है, जबकि भाजपा के पास केवल ‘टेलीविजन’। सुनने में यह तुकबंदी अच्छी लग सकती है, लेकिन यह पूरी कहानी बयान नहीं करती। यह सवाल तो उठता ही है कि टीवी चैनलों पर हमें शशि थरूर, जितिन प्रसाद, मिलिंद देवड़ा, पृथ्वीराज चव्हाण, जयराम रमेश, सलमान खुर्शीद और यहां तक कि प्रियंका गांधी एक सुर में बोलते हुए नजर क्यों नहीं आते? इनकी तुलना में भाजपा नेताओं को देखिए। निर्मला सीतारमण, पीयूष गोयल, हरदीप पुरी से लेकर शहनवाज़ हुसैन तक, ये सभी टीवी चैनलों पर बोलते ही नहीं, बहस में भाग लेते भी दिखाई देते हैं। अगर कांग्रेस का मीडिया प्रभाग थोड़ी कुशलता का परिचय देता तो 28 दिसंबर को राहुल गांधी की इटली यात्रा को लेकर होने वाली आलोचनाओं का जवाब देने के लिए पहले से ही तैयारी करके रखता। उसे इस तरह से पेश करता कि अपनी बीमार नानी को देखने जाना तो राहुल का बहुत बड़ा दायित्व है और इसी दायित्व का पालन उन्होंने किया। लेकिन कांग्रेस का मीडिया प्रभाग इस मामले में नाकारा ही साबित हुआ।

अपनी विचारधारा पर फोकस बनाए रखना

संवाद और संपर्क तो महत्वपूर्ण है ही, लेकिन इससे भी ज्यादा जरूरी है विचारधारा को लेकर स्पष्टता। कांग्रेस पार्टी भावनात्मक मुद्दों, फिर वह राममंदिर का हो या धारा 370 का अथवा लव जिहाद का, दो पाटों के बीच फंसी नज़र आई है, बिल्कुल दिग्भ्रमित। धर्मनिरपेक्षता कांग्रेस की विचारधारा का एक अभिन्न भाग रहा है। वर्ष 1951 में गांधी जयंती के मौके पर जवाहरलाल नेहरू ने रामलीला मैदान में कहा था – ‘अगर कोई भी आदमी, चाहे वह सरकार में हो या सरकार के बाहर का, अगर धर्म के नाम पर दूसरे व्यक्ति के खिलाफ मुट्‌ठी तानता है तो मैं उसके विरद्ध अपनी अंतिम सांस तक लड़ूगा।’ क्या आज कांग्रेस में कोई नेहरू के शब्दों की भावना का पालन करने का दावा कर सकता है? इसके विपरीत भाजपा को देखिए। अपने पूर्व के अवतारों जैसे भारतीय जनसंघ, हिंदू महासभा और आरएसएस की तरह उसका फोकस बहुसंख्यकवाद, जम्मू-कश्मीर का पूरे देश में विलय, राममंदिर और भारत में हिंदुत्व की सांस्कृतिक पहचान पर बना रहा है। शुरुआत में दिक्कतें आईं। लेकिन फिर भी वह अपनी विचारधारा पर टिके रही और उसका फल अंतत: उसे 1996 के बाद से मिलना शुरू हुआ, जबकि देश में अटल बिहारी वाजपेयी सरकार ने पहली बार शपथ ली।

धार्मिक सम्प्रदायों/जातिगत संगठनों में नेटवर्क

एक अनुमान के अनुसार संघ परिवार से संबंधित कम से कम 137 संगठन परोक्ष रूप से उसी सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक एजेंडा पर काम कर रहे हैं जो वीर सावरकर, गुरुजी गोलवलकर, दीनदयाल उपाध्याय से लेकर मौजूदा सरसंघचालक मोहन भागवत का एजेंडा रहा है। सोनिया और राहुल गांधी विचार करें कि आज कांग्रेस के पास गिनती के लिए ही सही, कितने संगठन हैं? काम के प्रति प्रतिबद्धता और गुणवत्ता को तो छोड़ ही दीजिए। सच तो यह है कि समाज में कांग्रेस अपनी जड़ें खो चुकी हैं। भाजपा ने अनौपचारिक रूप से विभिन्न धार्मिक सम्प्रदायों और पंथों के बीच अपना बड़ा नेटवर्क खड़ा कर लिया है। प्रत्येक जाति की सभाओं/संगठनों में उसके मुखर और मौन समर्थक भरे पड़े हैं। सोशल मीडिया पर और ऑफ लाइन भी उसके ऐसे करोड़ों समर्थक हैं जिनके साथ पार्टी का पारस्परिक संवाद चलता रहता है। हो सकता है अब भी कांग्रेस के प्रति लोगों में सद्इच्छा हो, लेकिन ऐसा नेटवर्क कहां है?

पूर्व अफसरों के अनुभवों का सही इस्तेमाल

2014 के बाद से भाजपा की जीत के लिए मोदी और अमित शाह की जोड़ी को श्रेय दिया जाता है। इसमें कोई शक भी नहीं है। लेकिन अगर ध्यान से देखें तो इसमें एक बड़ी भूमिका उन सेवानिवृत्त नौकरशाहों की भी रही है जो बड़े-बड़े पदों पर रहे। उन्होंने मोदी-शाह की जोड़ी को अपने इनपुट से अकाट्य बना दिया। लेकिन इसकी तुलना में कांग्रेस ने 50 साल से अधिक समय तक सत्ता में रहने के बावजूद ऐसा कोई मेकेनिज्म या थिंक टैंक ही नहीं बनाया जिससे कि वह सेवानिवृत्त वरिष्ठ नौकरशाहों या गुप्तचर एजेंसियों अथवा सेना के पूर्व अधिकारियों के अनुभवों का इस्तेमाल कर सके। ये ऐसे अनुभवी लोग होते हैं जिनके अपने जमीनी संपर्क रहते हैं और आम जनता की नब्ज को पहचानते हैं।

व्यक्तित्व की भी अहमियत

व्यक्तित्व की अहमियत को भी पिछले कुछ अरसे से कांग्रेस द्वारा कम करके आंका जा रहा है। हाल ही में सोनिया गांधी की ‘ग्रुप 23’ के साथ हुई बैठक में राहुल गांधी ने फिर से वही बात दोहराई कि उनके लिए व्यक्तित्व कोई मायने नहीं रखता। लेेकिन जवाहरलाल नेहरू के परनाती राहुल का यह कहना बिल्कुल गलत है। उन्हें पता होना चाहिए कि 1951 में हुए पहले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस का नारा ही यह था कि ‘नेहरू को वोट मतलब कांग्रेस को वोट’। इंदिरा गांधी को भी एक बड़ा वर्ग या तो बहुत पसंद करता था या बहुत ही नापसंद करता था, बिल्कुल आज के नरेंद्र मोदी की तरह। हाल के कुछ चुनावों को भी देखा जा सकता है। केरल के नगरीय चुनावों में लोगों ने मुख्यमंत्री पिनराई विजयन के चेहरे पर वोट दिया और कांग्रेसनीत गठबंधन को बुरी तरह शिकस्त दी। हैदराबाद नगर निगम चुनावों मंे जहां असउद्दीन ओवेसी एमआईएम के लिए चेहरा थे तो बीजेपी की विजय में अमित शाह, जेपी नड्डा और योगी आदित्यनाथ जैसे नेताओं का हाथ रहा जिन्होंने इन चुनावों को भी लोकसभा या विधानसभा जैसे चुनाव बना दिए।

सोनिया-राहुल को ही करने होंगे त्याग

समय कांग्रेस और सोनिया-राहुल के हाथ से फिसलता जा रहा है। ये उम्मीद लगाए बैठे हैं कि एक दिन ऐसा आएगा जब जनता का भाजपा और मोदी-शाह से मोहभंग हो जाएगा और वह वापस कांग्रेस की ओर लौटेगी, लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं होने वाला। इस विकट स्थिति को केवल सोनिया-राहुल गांधी ही दूर कर सकते हैं, लेकिन इसके लिए उन्हें कुछ त्याग करने होंगे। सबसे पहले तो उन्हें कांग्रेस से दूर छिटके घटकों जैसे एनसीपी, वाईएसआर कांग्रेस, टीआरएस और यहां तक कि तृणमूल कांग्रेस को एक होने के लिए मनाना होगा। यह दूरगामी बड़ा कदम हो सकता है। दूसरा, राहुल अपनी पार्टी के कार्यकर्ताओं को प्रेरित करने या आगे आकर पार्टी का नेतृत्व करने में बुरी तरह से विफल साबित हो चुके हैं। यह भी हकीकत है कि पार्टी में अंदरूनी लोकतंत्र को स्थापित कर देने भर से कांग्रेस भाजपा का सामना करने लायक नहीं हो पाएगी, लेकिन इससे कम से कम सोनिया और राहुल खुद को सच्चे लोकतंत्रवादी के रूप में पेश करने में जरूर सफल हो सकेंगे और यह पार्टी की छवि को सुधारने में मदद करेगा।

रशीद किदवई
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं)

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