निवेश लाओ पर श्रमिक हित जरूरी

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चीन के वूहान शहर से फैले कोरोना संक्रमण का असर विश्वव्यापी और विकराल हो चुका है। इससे शक्तिशाली अर्थव्यवस्थाएं भी परास्त हो गई हैं। समूचे विश्व के निशाने पर चीन और उसका वूहान शहर है। अमेरिका और दुनिया के अन्य विकसित देशों ने चीन स्थित अपनी औद्योगिक इकाइयों को वहां से हटाने की घोषणा भी कर दी है। भारत, वियतनाम, ताइवान और थाइलैंड समेत कई देशों ने न केवल इस घोषणा का स्वागत किया बल्कि उन कंपनियों को आमंत्रित भी किया है। चीन में अभी विश्व की सभी नामी-गिरामी कंपनियां कार्यरत हैं। केंद्र सरकार की रुचि देखकर कई राज्य सरकारों ने इन कंपनियों के लिए ‘रेड कारपेट‘ बिछाने शुरू कर दिए। उन्होंने अपने यहां एकतरफा श्रमिक सुधार घोषित किए और जरूरी 38 श्रम कानूनों को समाप्त करने का ऐलान भी कर दिया है। ट्रेड यूनियनों का विरोध कई राज्यों से वेतन में कटौती और भत्ते काटे जाने के समाचार मिले हैं, हालांकि केंद्रीय श्रम मंत्री संतोष गंगवार ने साफ किया है कि सरकार अभी ऐसा कोई अध्यादेश नहीं लाने जा रही है। राज्य सरकारों द्वारा शुरू किए गए सुधार कार्यक्रम फिलहाल रुके हुए हैं। कोर्ट में दायर एक याचिका के कारण उत्तर प्रदेश सरकार ने अपने हाथ खींच लिए हैं। इसके पीछे सबसे बड़ा कारण भारतीय मजदूर संघ का खुला विरोध रहा है।

किसी से छिपा नहीं है कि बीएमएस राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का आनुषंगिक संगठन है। मजदूर संघ के अध्यक्ष साजी नारायणन ने स्पष्ट कहा है कि अगर सरकार श्रम कानूनों में सुधार के नाम पर काम करने के घंटों को 8 से बढ़ाकर 12 करने का प्रयास करेगी तो यह कोरोना संक्रमण से भी ज्यादा दुखद होगा। इसी क्रम में श्री नारायणन ने 12 अन्य ट्रेड यूनियनों के साथ श्रम मंत्री से मुलाकात कर अपनी आपत्तियां दर्ज कराई हैं। राज्य सरकारों को भी सचेत किया गया है कि वे इस संकट काल में मजदूरों के वेतन-भत्तों में कटौती न करें। समाजवादी विचार से प्रभावित हिंद मजदूर सभा ने भी 22 मई के श्रमिकों के आंदोलन को समर्थन दिया है। कम्युनिस्ट पार्टियों और कांग्रेस से जुड़े संगठनों समेत 12 मजदूर संगठन खुलकर सरकारी रवैये के विरोध में आ चुके हैं। ऐसे में निकट भविष्य में इन परिवर्तनों के विरुद्ध बढ़ते आंदोलनों की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता। इस बीच इन मजदूर संगठनों ने अंतरराष्ट्रीय मजदूर संगठन आईएलओ का भी दरवाजा खटखटा कर मामले को और पेचीदा बना दिया है। भारत आईएलओ का महत्वपूर्ण सदस्य है और जेनेवा में प्रतिवर्ष होने वाले इसके अधिवेशन की कार्यवाही और निर्णयों से बंधा हुआ है।

इन संगठनों ने अपने मेमोरेंडम में भारत में असंगठित मजदूरों की स्थिति का ब्योरेवार चित्रण किया है कि किस प्रकार करोड़ों मजदूर पहले से ही बेरोजगार हो चुके हैं। साथ ही उन्हें आवासीय और अन्य सुविधाओं से वंचित रखा जा रहा है। सरकारों द्वारा आईएलओ के नियम 144 का भी सीधा उल्लंघन किया जा रहा है जिसमें त्रिपक्षीय वार्ता द्वारा सभी मुद्दों को हल करने पर सहमति बनी हुई है। चर्चा जोरों पर है कि मजदूरों की जो राशि ईएसआईसी में जमा है, उस फंड द्वारा ही उन्हें वेतन देने का प्रयास हो रहा है। इस राशि का प्रयोग कई दशकों से बीमारी और दुर्घटना के समय मजदूरों और उनके परिवारों की मदद के लिए होता आया है। कहते हैं कि आईएलओ ने श्रमिक संगठनों के मांग पत्र का संज्ञान लिया है और भारत सरकार के श्रम मंत्रालय से स्थिति स्पष्ट करने को कहा गया है। श्रम मंत्रालय की संसदीय समिति ने भी राज्य सरकारों के इन ‘अति उत्साही’ कदमों पर चिंता व्यक्त की है। बीजू जनता दल के नेता श्री भर्तृहरि मेहताब इस संसदीय समिति के अध्यक्ष हैं। बीजेडी इधर कई अवसरों पर केंद्र सरकार के पक्ष में मतदान कर चुकी है। समिति ने राज्य सरकारों के प्रतिनिधियों को स्थिति स्पष्ट करने को कहा है कि जब कमेटी की महत्वपूर्ण अनुशंसाएं संसद की मुहर की प्रतीक्षा में हैं तब ऐसी जल्दबाजी की कोई आवश्यकता नहीं थी।

ऐसे गंभीर मुद्दों को संसद में बहस के लिए लाया जाना जरूरी है। राज्य सरकार ऐसे विषयों को अध्यादेश द्वारा संचालित नहीं कर सकती। कमेटी के अनुसार मजदूरों को मैनेजमेंट की दया पर नहीं छोड़ा जा सकता है। अभी अभी मई दिवस गुजरा है जिसे दुनिया भर में मजदूर दिवस के रूप में मनाते हैं। यह संघर्ष अब से 134 वर्ष पूर्व अमेरिका के शिकागो शहर से शुरू हुआ था। आज दुनिया भर में ‘काम के आठ घंटे’ का कानून संवैधानिक तौर पर दर्ज है। 1 मई 1886 को अमेरिका के लाखों मजदूरों ने आठ घंटे कार्य दिवस की मांग के साथ हड़ताल पर जाने का फैसला किया था जिसमें 11,000 कारखानों के लगभग 3 लाख 80 हजार मजदूर शामिल हुए थे। उस दिन अंधाधुध फायरिंग में कई मजदूर मारे गए और हजारों घायल हुए थे। घटना के दौरान मजदूरों के रक्त से लाल हुआ कपड़ा ही इनके झंडे का रंग बन गया। इस बार कोरोना संकट के कारण मजदूर दिवस के आयोजन नहीं हो पाए।

हकमारी से हताशा ऐसा संकट पहली बार आया है जब संगठित और असंगठित श्रमिकों और कामगार वर्गों के बीच भुखमरी और अपने संवैधानिक अधिकारों की हकमारी को लेकर निराशा है। वर्तमान परिस्थिति में चीन से स्थानांतरित हो रही कंपनियों को लुभाने का प्रयास सराहनीय है, लेकिन श्रमिकों के हितों के खिलाफ कानून बन जाने से पहले से ही शोषण झेल रहा मजदूर वर्ग दुर्बल और निरीह हो जाएगा। सरकार औद्योगिक इकाइयों को प्रोत्साहन या पुनर्जीवन देने के नाम पर लाखों करोड़ रुपये की सब्सिडी देती रही है। यह भी सच है कि अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने में नई कंपनियों की बड़ी भूमिका होगी। सरकार को उन्हें अन्य माध्यमों से राहत देकर निवेश के लिए आमंत्रित करना चाहिए। श्रम कानून को निस्तेज करने से न सिर्फ मजदूरों का शोषण बढ़े़गा बल्कि उन्हें कई और यातनाएं भी झेलनी पड़ेंगी।

के. सी. त्यागी
(लेखक जेडीयू के राष्ट्रीय प्रवक्ता हैं, ये उनके निजी विचार हैं)

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