बंगाल में मनमानी से हारी भाजपा

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पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री और तृणमूल कांग्रेस अध्यक्ष ममता बनर्जी ने इस बार विधानसभा चुनाव में पार्टी की ओर से एक नारा दिया था-खेला होबे यानी खेल होगा। और अब चुनाव के नतीजों ने साफ कर दिया है कि आठ चरणों में महीने भर से ज्यादा चले चुनाव में ममता ने जो कहा वो कर दिखाया। दूसरी ओर, अबकी बार दो सौ पार के नारे के साथ अपनी पूरी ताक़त और संसाधनों के साथ साा हासिल करने के लक्ष्य के साथ मैदान में उतरी बीजेपी अपनी मंजिल की आधी दूरी भी तय नहीं कर पाई। बीजेपी में अब इस हार का ठीकरा केंद्रीय नेतृत्व पर फोड़ा जाने लगा है। प. बंगाल में इस साल की शुरुआत से ही बीजेपी ने जिस आक्रामक तरीके से टीएमसी सरकार पर हमले के साथ बड़े पैमाने पर चुनाव अभियान छेड़ा था उससे कई बार राजनीतिक हलकों में भी भगवा पार्टी के साा में आने या टीएमसी को कांटे की टकर देने जैसी संभावनाएं जताई जाने लगी थीं।

कुछ राजनीतिक विश्लेषक तो पार्टी के आशोल परिवर्तन के नारे के सच होने की भी भविष्यवाणी करने लगे थे। लेकिन नतीजों ने साफ कर दिया है कि बीजेपी के हिंदुत्ववाद पर ममता का बांग्ला उपराष्ट्रवाद भारी रहा है। हालांकि यही टीएमसी की जीत की अकेली वजह नहीं है। करीब तीन महीने पूरी केंद्र सरकार के अलावा तमाम मंत्री और नेता और कई राज्यों के मुख्यमंत्री लगातार बंगाल में चुनाव प्रचार में जुटे रहे। इस दौरान शायद ही ऐसा कोई दिन बीता हो जब कोई केंद्रीय मंत्री या नेता यहां रोड शो या रैली नहीं कर रहा हो। ख़ुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने करीब डेढ़ दर्जन रैलियां की थी।

केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह और दूसरे नेताओं की रैलियों और रोड शो की सूची तो काफी लंबी है। अपने पूरे ताम-झाम, संसाधनों और हेलीकॉप्टर के जरिए चुनाव अभियान चलाने वाली बीजेपी एक समय यह माहौल बनाने में कामयाब रही थी कि वह हर सीट पर टीएमसी को कांटे की टकर देगी लेकिन चुनावी नतीजों ने उसे करारा झटका दिया है। हालांकि वर्ष 2016 की तीन सीटों के मुकाबले पार्टी के इस प्रदर्शन को बेहतरीन कहा जा सकता है। और कोई एक दशक के बाद किसी अकेली पार्टी को इतनी ज्यादा सीटें मिली हैं लेकिन अगर इसकी तुलना वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव के नतीजों से करें तो पार्टी के लिए यह एक बड़ा झटका है। दरअसल, बीजेपी की पूरी रणनीति ही लोकसभा चुनाव में 21 सीटों पर मिली बढ़त के इर्द-गिर्द ही बुनी गई थी। बंगाल में पार्टी की ओर से चुनाव प्रचार भले दर्जनों केंद्रीय नेताओं ने किया हो लेकिन इस चुनाव की पूरी रणनीति शाह ने ही तैयार की थी। ऐसे में पार्टी का सपना टूटने का ठीकरा भी उनके सिर फूटना तय है। कम से कम प्रदेश बीजेपी नेता तो अभी से उनको कठघरे में खड़ा करने में जुटे हैं। आखिर बीजेपी के इस भरी-भरकम अभियान के बावजूद ममता बनर्जी अपना कि़ला बचाने में कामयाब कैसे रही हैं? इसकी कई वजहें हैं। बीजेपी उनके खि़लाफ़ भाई-भतीजावाद, भ्रष्टाचार और अल्पसंख्यकों के तुष्टीकरण के आरोप तो बहुत पहले से लगा रही थीं। साथ ही पार्टी ने जातिगत पहचान का मुद्दा भी बड़े पैमाने पर उठाया था।

मतुआ वोटरों को लुभाने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपनी बांग्लादेश यात्रा के दौरान मतुआ धर्मगुरू हरिचांद ठाकुर के जन्मस्थान पर बने मंदिर में गए थे और वहां से लौट कर मतुआ-बहुल ठाकुरनगर में रैली भी की थी। अमित शाह ने सीएए के ज़रिए मतुआ समुदाय के लोगों को नागरिकता देने का वादा किया था। ममता ने बीजेपी के हिंदुत्ववाद की काट के लिए चुनावी मंच से चंडीपाठ तो किया ही, ख़ुद को ब्राह्मण की बेटी भी बताती रही। उनको अल्पसंयकों का तो भरपूर समर्थन मिला ही, हिंदू वोटरों के बड़े तबक़े ने भी टीएमसी का समर्थन किया। इसके अलावा उनके पांव में लगी चोट और व्हीलचेयर पर भी पूरा चुनाव अभियाना चलाना भी उनके पक्ष में रहा। कन्याश्री और रूपश्री जैसी योजनाओं की वजह से बंगाल में महिलाओं ने भी ममता का समर्थन किया।

ममता अपने भाषणों के ज़रिए बीजेपी को बाहरी बताते हुए जहां बांग्ला संस्कृति, पहचान और अस्मित का मुद्दा उठाती रहीं। वहीं, उन्होंने यह माहौल भी बनाया कि देश की अकेली महिला मुख्यमंत्री पर प्रधानमंत्री से लेकर तमाम केंद्रीय नेता और मंत्री किस क़दर हमले कर रहे हैं। ख़ासकर प्रधानमंत्री जिस तरह दीदी-ओ-दीदी कह कर ममता बनर्जी की खिल्ली उड़ाते रहे, उससे महिलाओं का एक बड़ा तबक़ा ममता के साथ हो गया। इसके अलावा ममता चुनाव आयोग पर जिस तरह हमले करती रहीं और उस पर बीजेपी के साथ सांठ-गांठ के आरोप लगाती रहीं, उसका भी फ़ायदा टीएमसी को मिला है। इस चुनाव में कांग्रेस और लेख्ट वाले संयुक्त मोर्चा की दुर्गति की वजह से इन दोनों दलों के वोटों का बड़ा हिस्सा भी टीएमसी को मिला।

भाजपा को कांग्रेस का गढ़ रहे मालदा और मुर्शिदाबाद में जैसी कामयाबी मिली है उससे यह बात साफ़ हो जाती है। बीजेपी को उम्मीद थी कि फुरफुरा शरीफ़ वाली पार्टी इंडियन सेयूलर फ्रंट शायद अल्पसंख्यक वोट बैंक में सेंध लगाएगी। लेकिन न तो वह कोई छाप छोड़ सकी और न ही असदउद्दीन ओवैसी की एआईएमआईएम. ममता ने बीजेपी का मज़बूत गढ़ समझे जाने वाले जंगलमहल इलाक़े में भी ख़ासी सेंध लगाई है और साथ अपने मज़बूत गढ़ को बचाने में काफ़ी हद तक कामयाब रही हैं। बीजेपी में अब दोषारोपण का दौर शुरू हो गया है. हालांकि किसी भी स्थानीय नेता ने कोई टिप्पणी नहीं की है। लेकिन प्रदेश के एक बीजेपी नेता नाम नहीं छापने की शर्त पर कहते हैं, पार्टी को स्थानीय नेताओं और कार्यकर्ताओं पर भरोसा नहीं करने का ख़मियाजा चुकाना पड़ा है। बाहरी राज्यों से आने वाले पर्यवेक्षकों ने स्थानीय नेताओं को भरोसे में नहीं लिया और अपने राज्यों के फ़ॉर्मूले को यहां लागू करने का प्रयास किया था। हमने कई बार इसकी शिकायत की थी। लेकिन कुछ भी नहीं हुआ।

एक अन्य नेता कहते हैं, उम्मीदवारों के चयन में भी प्रदेश के नेताओं की राय नहीं ली गई और कई उम्मीदवार जबरन थोपे गए. दूसरे दलों से आने वालो को रातों- रात टिकट दे दिए गए इससे निचले स्तर के कार्यकर्ताओं में असंतोष बढ़ा और नतीजों पर उसका असर साफ़ नजऱ आ रहा है। राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि बीजेपी के केंद्रीय नेताओं ने भले ही बंगाल चुनाव में अपने तमाम संसाधन झोंक दिए हों, वह भी जानते थे कि साा हासिल करने की राह बहुत दुर्गम है। राजनीति विज्ञान के प्रोफेसर पार्थ प्रतिम चक्रवर्ती कहते हैं, बीजेपी के केंद्रीय नेताओं को बंगाल की ज़मीनी हक़ीक़त की जानकारी नहीं थी। कई मामलों में स्थानीय नेताओं की राय को भी ख़ास अहमियत नहीं दी गई। इसके अलावा उन्होंने ममता और उनकी पार्टी के खिल़लाफ़ जो मुद्दे उठाए थे उनका आम लोगों पर कोई असर नहीं पड़ा। उल्टे बड़ी तादाद में दलबदलुओं को टिकट देना, ममता बनर्जी की लगातार खिल्ली उड़ाना, उनको चोट लगने पर भी व्यंग्य करना, धार्मिक आधार पर ध्रुवीकरण की कोशिश और हिंदुत्व का मुद्दा उठाना बीजेपी को भारी पड़ा है।

प्रभाकर मणि तिवारी
(लेखक बीबीसी पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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