दुस्साहस: सरकार का-रामदेव का

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केंद्र ने सुप्रीम कोर्ट में कहा कि उसकी वैक्सीन नीति उपलधता और जोखिम के मूल्यांकन पर आधारित है। यह नीति न्यायसंगत, भेदभाव से मुक्त और दो आयु वर्ग समूहों के बीच एक समझदारी भरे अंतर पर आधारित है। यह भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 और अनुच्छेद 21 के अनुसार है। यह विशेषज्ञों, राज्य सरकारों और वैक्सीन निर्माताओं के साथ परामर्श और चर्चा के कई दौरों के बाद तैयार की गई है। इसलिए इस नीति में न्यायालय के किसी हस्तक्षेप की आवश्यकता नहीं है। केंद्र ने जोर दिया है कि महामारी से निपटने के दौरान कार्यपालिका के पास जन हित में फैसले लेने का अधिकार है। ये तमाम तर्क गौरतलब हैं। ये बात तो ठीक है कि केंद्र के पास ऐसे हालात में फैसले लेने का हक है। असल में ऐसे निर्णय कार्यपालिका के दायरे में ही आते हैं। आदर्श स्थिति यही होनी चाहिए कि ऐसे मामलों में कोर्ट दखल ना दे। फिर भी कोर्ट में ये मामला गया और सुप्रीम कोर्ट ने कुछ कड़े सवाल पूछे, तो ये सवाल भी जायज है कि आखिर ऐसी नौबत यों आई? वो इसलिए आई क्योंकि केंद्र का प्रक्रियागत तर्क भले सही हो, लेकिन उसके पहले जो बातें उसने कही हैं, उनकी अतार्किकता अब पूरी तरह बेपर्दा हो चुकी है। वैक्सीन नीति में अगर अलग-अलग मूल्य दर को इजाजत दी गई हो, तो आखिर उसे भेदभाव से मुक्त कैसे कहा जाएगा?

यह समझदारी पर आधारित है, ये दावा भी दुस्साहसी ही है। ये तथ्य नहीं भूलना चाहिए कि आजादी के बाद जिन महामारियों पर भारत ने काबू पाया, उनके मामले में टीकाकरण की एकरूप नीति लागू की गई थी। तब देश के पास संसाधन कम थे, फिर भी टीकाकरण मुक्त में किया गया। नतीजा हुआ कि देश को प्लेग, चेचक, मलेरिया, पोलियो आदि जैसे रोगों से काफी हद तक मुक्ति मिली। प्रश्न है कि अगर तब आज जैसी नीति अपनाई गई होती, तो या उन रोगों को उन्मूलन संभव था? ये सरकार इतिहास से कुछ नहीं सीखती। लेकिन वह वर्तमान से भी सबक नहीं लेती। आखिर दुनिया भर के देश- चाहे वो धनी हों या गरीब- कोरोना संक्रमण रोकने के लिए समरूप टीकाकरण की नीति पर क्यों चल रहे हैं? चूंकि सरकार के पास इन सवालों के जवाब नहीं हैं, इसलिए उसके दावों पर किसी को भरोसा नहीं है। बाकी सब कुछ उसके ही हाथ में है, ये तो सबको मालूम है। उधर रामदेव का दूसरा ही खेला है- इंडियन मेडिकल एसोसिएशन (आईएमए) के उपाध्यक्ष डॉ नवजोत सिंह दहिया ने जो मामला दर्ज कराया है, उस पर चर्चा अवश्य की जानी चाहिए। दहिया ने कोरोना मरीजों और डॉक्टरों का मजाक उड़ाने वाली बाबा रामदेव की टिप्पणियों पर कड़ी आपत्ति जताते हुए जालंधर पुलिस में केस दर्ज कराया है। उन्होंने रामदेव उनके खिलाफ कड़ी कार्रवाई की मांग की है। हाल ही में सोशल मीडिया पर एक वीडियो वायरल हुआ था।

उसमें बाबा रामदेव कह रहे थे कि ‘चारों तरफ ऑक्सीजन ही ऑक्सीजन का भंडार है, लेकिन मरीजों को सांस लेना नहीं आता है। इसलिए वे नकारात्मकता फैला रहे हैं कि ऑक्सीजन की कमी है।’ इसे लेकर ही दहिया ने केस दायर किया है। कहा है कि इस तरह की टिप्पणियां डॉक्टरों के लिए अपमानजनक हैं। ये डॉक्टरों की मानहानि का मामला बनता है। तो आईएमए उपाध्यक्ष ने मांग की है कि कोविड-19 को लेकर प्रोपेगेंडा फैलाने के लिए रामदेव के खिलाफ आपराधिक मुकदमा दर्ज किया जाए। गौरतलब है कि रामदेव ने कहा था कि जिसका भी ऑक्सीजन स्तर गिर रहा हो, उसे ‘अनुलोम विलोम प्राणायाम’ और ‘कपालभाती प्राणायाम’ करना चाहिए। दहिया ने दलील दी है कि रामदेव ने कोरोना के संबंध में गलत सलाह देकर आपदा प्रबंधन अधिनियम 2005 और महामारी रोग अधिनियम 1897 का उल्लंघन किया है। इसके तहत भी उन्हें दंडित किया जाना चाहिए। ऐसा सचमुच होगा, इसकी न्यूनतम संभावना है। रामदेव की आज एक रसूखदार हैसियत हैं। वैसे भी वर्तमान सत्ता प्रतिष्ठान के भीतर उनके जैसी सोच रखने वालों की कमी नहीं है। ऐसे में कानूनी कार्रवाई की बात जहां की तहां रह जाएगी। इसके बावजूद दहिया की पहल से ये हुआ है कि रामदेव की सोच पर तार्किक सवाल समाज के सामने आए हैं।

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