नि:स्वार्थ सेवा करने वाले का सब करते हैं समान

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जब हम साफ नीयत के साथ अच्छे काम करते हैं तो बड़े-बड़े विद्वान और हालात हमारे पक्ष में हो जाते हैं। हमें दु:खी लोगों की मदद करने में बिल्कुल भी देर नहीं करनी चाहिए। जो लोग इन बातों का ध्यान रखते है, उन्हें घर-परिवार और समाज में सम्मान मिलता है। इस बारे में एक कथा प्रचितलत है कि गुरु गोविंदसिंह और एक हकीम से जुड़ा किस्सा बहुत प्रचलित है। उस समय एक हकीम अपने सही इलाज के लिए बहुत प्रसिद्ध थे। एक दिन वे आनंदपुर गए और गुरु गोविंदसिंह के दर्शन किए। गुरु गोविंदसिंह ने उनकी याति सुनी थी। वे जानते थे कि ये बहुत अच्छे इंसान हैं। हकीम ने गुरुदेव से कहा, अब मैं जा रहा हूं तो आप मुझे कोई ऐसा संदेश दीजिए, जो मेरे लिए आशीर्वाद बन जाए और फिर मैं उसका पालन करूं। गुरुदेव ने कहा कि हकीम साहबए दीन-दु:खी लोगों की सेवा करने में, उपचार करने में जरा भी देर कभी मत करना। ऐसे लोगों का उपचार तुरंत करना चाहिए। सबसे पहले इन्हें रखना। ये बात सुनकर हकीम वहां से अपने घर लौट आए। कुछ दिन बाद गुरु गोविंदसिंह हकीम के नगर की ओर से गुजर रहे थे। उन्होंने सोचा कि यहां तक आए हैं तो हकीम साहब से मिल लेना चाहिए।

गुरुदेव के पास समय बहुत कम था, लेकिन फिर भी वे हकीम साहब के घर पहुंचे। उन्होंने देखा कि हकीम साहब इबादत कर रहे हैं, उनकी आंखें बंद हैं तो वे वहीं बैठ गए। कुछ देर बाद घर के बाहर से आवाज आई, हकीम साहब जल्दी चलिए, बीमार मर जाएगा। हम गरीब लोग हैं, अब आपका ही सहारा है। हकीम साहब ने आंखें खोली तो देखा कि पास में गुरु गोविंदसिंह बैठे हैं, जिनके दर्शन के लिए वे हमेशा बेताब रहते थे और गुरुदेव आज खुद घर आ गए हैं। दूसरी ओर बाहर से आवाज आ रही है। हकीम ने एक पल सोचा और गुरुदेव को प्रणाम करके तुरंत बाहर की ओर भागे। मरीज का इलाज करके जब हकीम लौट रहे थे तो उन्होंने सोचा कि अब तक तो गुरुदेव जा चुके होंगे। घर पर रुकता तो गुरुदेव के साथ रहने का अवसर मिलता। जब हकीम घर पहुंचे तो उन्होंने देखा कि गुरु गोविंदसिंह वहीं बैठे थे, जबकि वे जल्दी में थे। हकीम ने कहा, आप मेरे लिए रुके हैं? गुरुदेव बोले, तुम्हारे लिए नहीं, तुम्हारे अच्छे कामों ने मुझे यहां रोक लिया। मैंने तुमसे कहा था कि दीन-दु:खी की सेवा करने में देर मत करना और आज तुम्हें भागता हुआ देखकर मुझे लगा कि इससे बड़ी इबादत और क्या हो सकती है? अच्छे काम का सम्मान किया जाना चाहिए, जो मैंने किया।

प. विजय शंकर मेहता

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