आखिर कांग्रेस का असली मर्ज है क्या ?

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कांग्रेस ने संगठन के भीतरी मतभेदों को दूर करने में पहली बाधा पार कर ली है। सोनिया गांधी की ओर से पिछले हफ्ते बुलाई गई बैठक काफी हद तक सफल रही। राहुल गांधी और सीनियर नेताओं के बीच सलाह-मशविरे का खत्म सा हो गया सिलसिला फिर से शुरू हो गया है। जाहिर है, इससे पार्टी का कामकाज भी बेहतर ढंग से चलने लगेगा। पार्टी में विवाद से कश्मीर जैसे राज्य में पार्टी की सक्रियता खत्म हो गई। गुलाम नबी आजाद के अलग-थलग पड़ जाने से पार्टी ऐसे समय में कोई असरदार राजनीति नहीं कर पा रही है, जबकि वहां की राजनीति में उफान आया हुआ है। यह बात कई और राज्यों पर भी लागू होती है। पार्टी में विवाद का संदेश जाना संगठन को नुकसान पहुंचाता ही है। खासकर उस समय, जब यह विचारों के बजाय व्यक्तियों को लेकर हो। सवाल यह है कि क्या कांग्रेस की बीमारी सिर्फ संगठन से जुड़ी है? कहीं ऐसा तो नहीं कि मीडिया के दबाव में उसे ऐसा लगने लगा है? मीडिया असर व्यक्तियों के विवाद को बढ़ा-चढ़ा कर पेश करता है। इस मुद्दे पर विपक्ष की ओर उसका ज्यादा ध्यान है। राहुल गांधी को तो वह जरा भी रियायत नहीं देता। ऐसी परिस्थिति में अचरज नहीं कि कांग्रेस पार्टी अपनी बीमारी समझने में गलती कर जाए। कई बार लगता है कि कांग्रेस संगठन के कमजोर होने को लेकर पिछले कई वर्षों से लोग जरूरत सेज्यादा हाय-तौबा मचा रहे हैं।

कांग्रेस में संगठन चलाने के तरीके में कोई बड़ा बदलाव लंबे समय से आया ही नहीं है। पार्टी नेतृत्व ही प्राय: फैसले लेता रहा है और प्रदेशों का नेतृत्व उसे बिना सवाल उठाए मानता रहा है। पहले भी कई बार फैसले लेने में पार्टी के बड़े नेताओं को शामिल नहीं किया गया है। यह तरीका उन नेताओं को मान्य रहा है, जो आज सवाल उठा रहे हैं। इन नेताओं की अपनी तरक्की भी इसी तरीके से हुई है। वामपंथी पार्टियों को छोड़ कर अन्य तमाम पार्टियों में फैसला लेने का तरीका एक जैसा है। सीनियर नेताओं की बेचैनी का असली कारण कांग्रेस पार्टी के अंदर नहीं, इसके बाहर है। चुनावों में पराजय उन्हें परेशान कर देती है लेकिन दूसरे कारणों से हो रही पार्टी की दुर्गति को वे संगठन की कमजोरी बता रहे हैं। असली कारणों से दूर भागने के कारण वे खुले या छिपे ढंग से राहुल पर निशाना साध रहे हैं। असल में, कांग्रेस भी बीजेपी जैसा ही शासन चला रही थी। सत्ता में आ जाने से बीजेपी के लिए उपचुनाव जीतना आसान हो गया। बिहार के चुनावों में भी पार्टी के प्रदर्शन को समझने की जरूरत है। आरजेडी ने उसे सवर्ण वोट साधने का जिम्मा दिया। यह काम भी उसे उन इलाकों में करना था जहां बीजेपी अपनी जड़ें जमा चुकी है। एक तरह से यह वोटकटवा की भूमिका थी। पार्टी ने इसे सहज रूप से स्वीकार भी कर लिया।

इससे अलग, नीतीश के दबाव के बावजूद बीजेपी अतिपिछड़ों तथा महादलितों के वोट बैंक में सेंध लगाने में जुटी रही और उसमें उसने कुछ हद तक सफलता भी हासिल कर ली। दोनों ही मामलों में संगठन से ज्यादा भूमिका पार्टी की सामाजिक-आर्थिक नीतियों की थी। मध्य प्रदेश में कांग्रेस अगर किसानों और बेरोजगारों के लिए नई नीतियों के साथ काम करती तो उपचुनाव में जनता बीजेपी को वापस नहीं आने देती। चुनाव स्थानीय समीकरणों पर लड़ा गया। ऐसे ही प्रवासी मजदूरों की तकलीफ को राहुल गांधी ने जिस तरह से उठाया था, उसे देखते हुए बिहार में कांग्रेस गरीब लोगों की पार्टी की भूमिका ले सकती थी। वह अतिपिछड़ों तथा महादलितों को ज्यादा प्रतिनिधित्व दे कर उनका विश्वास हासिल कर सकती थी। वह सेकुलरिज्म पर कड़ी लड़ाई के जरिए मुसलमानों को अपने साथ ला सकती थी। हालांकि यह काम आसान नहीं था योंकि आरजेडी और वाम पार्टियां उसे इस भूमिका के लिए जगह देने को आसानी से तैयार नहीं होतीं।

कांग्रेसी यह मानने को तैयार ही नहीं हैं कि पार्टी के पिछड़ते जाने के पीछे विचारधारा की वह बनावट है जिसे उसने गांधीवाद और नेहरूवाद को छोड़कर हासिल किया है। उसमें समाज की बदलती चुनौतियों से मुकाबला करने की क्षमता नहीं है। आजादी के आंदोलन के समय कड़े मुकाबले के बावजूद कमजोर तबकों, अल्पसंयकों, दलितों तथा पिछड़ों का समर्थन उसे इसलिए हासिल था क्योंकि पार्टी की विचारधारा की बनावट में इन सवालों को जगह देने की क्षमता थी। धीरे-धीरे इसकी बनावट बदल गई। वह पहले गांधीवाद से दूर हुई और बाद में अर्थव्यवस्था में सरकारी क्षेत्र को प्रमुख भूमिका देने की नेहरूवादी विचारधारा से। सामाजिक न्याय तथा सेकुलरिज्म के सिद्धांतों को मजबूती से अपनाने की ताकत भी वह खोने लगी है। पार्टी संगठन में बदलाव की मांग कर रहे नेता उसके गौरव वाले दिन वापस लाने के लिए बेचैन हैं, लेकिन इसे गंवाने के कारणों की खोजबीन के लिए तैयार नहीं हैं। इस तरह पेट की बीमारी का इलाज वे पैर की दवाओं से करना चाहते हैं।

अनिल सिंहा
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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