हेमंत सोरेन ने शायद ही कभी सोचा होगा कि वे चुनाव जीत कर मुख्यमंत्री बनेंगे तो उनके कंधों पर उम्मीदों का इतना बड़ा पहाड़ लाद दिया जाएगा। चुनाव लड़ते हुए उन्होंने यह भी नहीं सोचा होगा कि उनकी जीत को नरेंद्र मोदी और अमित शाह की हार के रूप में प्रचारित किया जाएगा या इससे यह निष्कर्ष निकलेगा कि नागरिकता कानून सहित भाजपा के उठाए तमाम भावनात्मक मुद्दे बेअसर हो गए। वे तो बिल्कुल स्थानीय मुद्दों पर चुनाव लड़े थे पर उनकी जीत को सोशल मीडिया के सेकुलर रणबांकुरों ने पूरे देश में भाजपा की कथित विभाजनकारी नीतियों की हार का प्रतीक बना दिया। हकीकत यह है कि चुनाव के बाद झारखंड के नतीजों की जैसी बौद्धिक व्याख्याएं हुईं हैं और जितने निष्कर्ष निकाले गए हैं, उनमें से किसी निष्कर्ष के बारे में कम से कम चुनाव से पहले तो किसी ने नहीं सोचा था।
चुनाव के बाद हेमंत सोरेन की जीत और उनकी शपथ को विपक्षी एकता का प्रतीक भी बना दिया गया है। इससे उनके ऊपर एक और बड़ी जिम्मेदारी आ गई है। इसकी वजह से उनके ऊपर वैचारिक रूप से झारखंड में ऐसी राजनीति करने का दबाव होगा, जो अनिवार्य रूप से भाजपा की राजनीति का विलोम हो और उसका विकल्प हो। उनको अपनी राजनीति और सरकार के कामकाज से सामाजिक सद्भाव, एकता, कानून के राज, लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था और विकास का संदेश देना है। आदिवासी कल्याण तो खैर उनकी पार्टी का बुनियादी सिद्धांत रहा है पर इस बार उनके ऊपर सबको साथ लेकर चलने की अलग और बड़ी चुनौती है। उनके शपथ समारोह में जुटी तमाम विपक्षी पार्टियों के नेताओं की इच्छा है कि वे जैसे भी काम करें पर उनके पांच साल के कामकाज में एक सब प्लॉट भाजपा विरोध की राजनीति का होना चाहिए।
झारखंड में भाजपा के पांच साल के शासन के दौरान विपक्ष की राजनीति कई चीजों को लेकर पकी। आदिवासी बनाम गैर आदिवासी का विवाद इसका एक पहलू है तो गौरक्षा या बच्चा चोरी के नाम पर हुई भीड़ की हिंसा भी इसका एक पहलू है। आदिवासी अधिकारों की लड़ाई, जो अंततः पत्थलगड़ी तक पहुंची वह भी विपक्ष के राजनीतिक आधार को मजबूत करने वाला एक मुद्दा है। इन सबके बीच मुख्यमंत्री रघुवर दास का निजी व्यवहार भी राजनीति को प्रभावित करने वाला बड़ा मुद्दा बना। झारखंड के इस बार के चुनाव की खास बात यह थी कि बुनियादी मुद्दों से चुनाव की एक मजबूत अंतर्धारा बनी थी पर ऊपर से प्रचार का सबसे बड़ा मुद्दा रघुवर दास का निज व्यवहार और कामकाज का तरीका ही था।
अब हेमंत सोरेन के ऊपर एक तरफ विपक्ष की उम्मीदों को पूरा करने का भार है तो दूसरी ओर व्यापक आदिवासी समाज के अधिकारों को महफूज करने और यह सुनिश्चित करने का जिम्मा है कि फिर कभी उसे नुकसान पहुंचाने का प्रयास न हो। इस बार चूंकि झारखंड मुक्ति मोर्चा झारखंड के एक निश्चित भौगोलिक इलाके से निकल कर पूरे प्रदेश की पार्टी बनी है और आदिवासी वोट के साथ साथ गैर आदिवासी और अल्पसंख्यक समुदाय का बड़ा वोट उसके साथ जुड़ा है इसलिए सरकार की प्राथमिक जिम्मेदारी सभी धर्म, जाति, समुदाय के लोगों के हितों की रक्षा करने की है।
हेमंत के ऊपर रघुवर दास के बरक्स एक सहज, उदार और कुछ हद तक साधारण लोकतांत्रिक व्यक्तित्व के तौर पर अपने को पेश करने की जिम्मेदारी भी है। उन्होंने चुनाव जीतने के तुरंत बाद इसकी शुरुआत कर दी है। उन्होंने न सिर्फ राजनीतिक परिपक्वता दिखाई है, बल्कि सार्वजनिक व्यवहार की नई मिसाल कायम की है। पूर्व मुख्यमंत्री रघुवर दास के खिलाफ उन्होंने बदजुबानी के एक मामले मे एससी, एसटी एक्ट के तहत मुकदमा दर्ज कराया था, जिसे वापस ले लिया है और खुद फोन करके रघुवर दास को अपने शपथ समारोह में आमंत्रित किया।
चुनाव नतीजों के दिन उन्होंने न्यूज चैनलों के जरिए एक खास किस्म का नैरेटिव बनाया। वे अपने माता-पिता से मिलने गए और पैर छूकर उनके आशीर्वाद लिए। अपने बच्चों के साथ मस्ती करने और साइकिल चलाने का उनका वीडियो भी उनके छवि निर्माण में बहुत कारगर साबित हुआ है। फिर उन्होंने शुभकामना देने के लिए आने वालों से कहा कि अगर वे गुलदस्ते की जगह एक किताब लेकर आएं तो ज्यादा अच्छा होगा। इस अपील ने उनकी छवि को और निखारने का काम किया।
कुल मिला कर नतीजों से लेकर अभी तक सब कुछ बहुत अच्छा हो रहा है। बिल्कुल किसी कल्पना के साकार होने की तरह! ऐसा लग रहा है कि उनको लेकर नए नैरेटिव और नई छवि गढ़ी जा रही है, जो अब तक रही उनकी छवि और उनकी पार्टी की राजनीति से थोड़ी अलग है। इसी वजह से उनके ऊपर दबाव भी ज्यादा हो गए हैं। फिर भी वे सेकुलर राजनीति के प्रवाह में इस तरह बहने वाले नहीं हैं कि भाजपा से बहुत दूर निकल जाएं। आखिर भाजपा के साथ उनका एक अतीत रहा है।
इसलिए भले विपक्षी नेता उनसे जो उम्मीदें पालें पर उनकी राजनीति अपने एजेंडे पर ही होगी। यह सोचना बेमानी है कि वे केंद्र के विरूद्ध विपक्षी पार्टियों की राजनीति की धुरी बनेंगे या इसके लिए होने वाली किसी पहल का हिस्सा बनेंगे। अपनी जीत के तमाम शानदार बौद्धिक विश्लेषणों के बावजूद वे अपनी सीमा जानते हैं और उसे लांघने का प्रयास वे कभी नहीं करेंगे। वे अंततः झारखंड के एक प्रादेशिक क्षत्रप की तरह राजनीति करेंगे और अपने पिता शिबू सोरेन की बनाई पार्टी की जड़ों को मजबूत करेंगे।
उनके मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने से पहले ही एक दबाव यह भी बनने लगा है कि वे पिछली सरकार के कामकाज की जांच कराएं। रघुवर दास को चुनाव हराने वाले सरयू राय नतीजों के बाद से कई पत्र लिख चुके हैं। सरकार पर आगे भी उनका यह दबाव रहेगा। सो, यह देखना भी दिलचस्प होगा कि कटुता नहीं बढ़ाने की बात करने वाले हेमंत सोरेन पिछली सरकार के कामकाज के प्रति कैसा नजरिया दिखाते हैं। वैसे उन्होंने यह कह दिया है कि पिछली सरकार की शुरू की गई अच्छी योजनाओं को जारी रखा जाएगा। इससे भी लगता है कि वे गड़े मुर्दे उखाड़ने और टकराव बढ़ाने की बजाय भविष्य को दृष्टि में रख कर सकारात्मक राजनीति करेंगे।
अजीत द्विवेदी
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं