भागवत के बयान पर भाजपा की सहयोगी पार्टियां असहमत

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राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मुखिया मोहन भागवत के हिंदू-संबंधी बयान पर भाजपा की कुछ सहयोगी पार्टियों ने असहमति व्यक्त की है और विरोधी दल पूछ रहे हैं कि यदि संघ सभी भारतीयों को हिंदू मानता है तो उसने नए नागरिकता कानून में मुसलमानों को शरण नहीं देने का समर्थन क्यों किया है ? विरोधियों का यह सवाल बिल्कुल जायज है। कल मैंने अपने लेख में कहा था कि हिंदू शब्द के मूल अर्थ पर हम जाएं तो प्रत्येक बांग्लादेशी, पाकिस्तानी और यहां तक कि अफगान भी हिंदू ही कहलाएगा। इसलिए वहां से आनेवाले मुसलमानों को शरण नहीं देना मोहन भागवत के कथन को उलट देना है।

दूसरे शब्दों में भाय-भाय (मोदी और शाह) मिलकर क्या भागवत की काट कर रहे हैं ? याने संघ और भाजपा एक-दूसरे का विरोध कर रहे हैं या उसे यों कहा जा सकता है कि भागवत द्वारा हिंदुत्व की जो नई व्याख्या दी गई है, उसे भाई लोग समझ नहीं पा रहे हैं और वे पुरानी सावरकरवादी व्यवस्था से चिपके हुए हैं। यदि ‘हिंदू’ शब्द की भागवत परिभाषा आप मान लें तो पड़ौसी देशों के शरणार्थियों को शरण देते वक्त उनकी उपसाना-पद्धति का अड़ंगा लगाना निरर्थक होगा। यह ठीक है कि भारत के मुसलमान, सिख, ईसाई, जैन, बौद्ध, पारसी, यहूदी (और आर्यसमाजी भी) अपने आप को हिंदू नहीं कहते हैं और न ही हिंदू कहलवाना वे पसंद करेंगे लेकिन यदि हम उनको ‘भारतीय’ कहें तो किसी को कोई एतराज़ नहीं होगा।

जो भारतीय हिंदू और मुसलमान विदेशों में पैदा और बड़े हुए वे भारत के नागरिक तो नहीं हैं लेकिन उनके जीवन में भी भारतीयता का संस्कार दनदनाता रहता है। यों भी हिंदू शब्द नया है। यह मुश्किल से हजार-बारह सौ साल पुराना है और विदेशी मुसलमानों का दिया हुआ है लेकिन यह एक बड़े वर्ग के लिए पक्का हो गया है। वे इसे छोड़ेंगे नहीं।

क्यों छोड़ें ? इनकी अपनी कोई सुनिश्चित उपासना-पद्धति भी नहीं है। लेकिन ये सब लोग और वे सब लोग जिनकी सुनिश्चित उपासना-पद्धतियां हैं, यदि वे भी अपने आप को ‘भारतीय’ कहें (जो कि वे कहते ही हैं) तो देश में सांप्रदायिक सदभावना बना रह सकता है और राष्ट्रीय एकता भी मजबूत हो सकती है।

डॉ. वेदप्रताप वैदिक
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं

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