राजनीति में जो हाल महाराष्ट्र का वही हाल इजराइल का

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जो हाल आजकल अपने महाराष्ट्र का है, वही इजराइल का भी है। वहां भी लगभग एक महिना पूरा हो रहा है, चुनाव के बाद, लेकिन सरकार बनाना मुश्किल हो रहा है। बेंजामिन नेतन्याहू पिछले 10 साल से प्रधानमंत्री हैं और अपनी दक्षिणपंथी लिकुद पार्टी के एकछत्र नेता हैं लेकिन वे पिछले चुनावों में स्पष्ट बहुमत प्राप्त नहीं कर सके।

वे कोशिश कर रहे हैं कि दूसरी छोटी-मोटी पार्टियों से गठबंधन हो जाए लेकिन यह बात बन नहीं पा रही है। नेतन्याहू गठबंधन-कला के उस्ताद हैं लेकिन इस बार उनकी गाड़ी इसलिए भी अटक गई है कि उन पर भ्रष्टाचार, रिश्वतखोरी और सत्ता के दुरुपयोग के गंभीर आरोप भी लग गए हैं। ऐसे आरोप उनके पिछले कार्यकाल में भी लगे थे लेकिन इस बार इन आरोपों पर उनके एटार्नी जनरल ने जांच भी शुरु कर दी है।

अब प्रश्न यही उठता है कि क्या नेतन्याहू को जांच के दौरान इस्तीफा देना होगा ? इजराइली कानून में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है लेकिन ये आरोप उनके लिए दो दृष्टियों से खतरनाक बन गए हैं। उन पर आरोप ये हैं कि उन्होंने लगभग ढाई लाख डालर के उपहार किसी कंपनी से स्वीकार किए हैं और बदले में उस पर उन्होंने कई उपकार किए हैं। इसी प्रकार एक टेली कम्युनिकेशन कंपनी को उन्होंने 50 करोड़ डालर का फायदा पहुंचाया और बदले में अपने लिए मनचाही खबरें छपवाईं।

उनकी पत्नी पर भी तरह-तरह के आरोप हैं। यदि ये आरोप सिद्ध हो गए तो 16 साल के लिए वे जेल भुगतेंगे। यदि ये आरोप उन लगे हुए हैं और वे चुनाव में उतरेंगे तो उसका नतीजा क्या होगा, इसका अंदाज आसानी से लगाया जा सकता है। दूसरे शब्दों में इजराइल में यदि कोई गठबंधन सरकार बन भी जाए तो उसका चलना मुश्किल है।

कमजोर पड़े नेतन्याहू की सरकार अगर बन भी गई तो इस बार इजराइल के फलस्तीनी लोग उसकी नाक में दम कर देंगे। वे राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर न्याय की मांग बहुत जोरों से कर रहे हैं। दुनिया के ज्यादातर मुस्लिम राष्ट्रों और खासकर ईरान ने नेतन्याहू के खिलाफ तगड़ा मोर्चा खोल रखा है। इजराइल की यह अस्थिरता उसके पश्चिमी राष्ट्रों से बने संबंधों को भी प्रभावित किए बिना नहीं रहेगी।

डॉ. वेदप्रताप वैदिक
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं

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