सत्ता के लिए मोल-तोल

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महाराष्ट्र में राष्ट्रपति शासन लगने के बाद सियासी दलों के बीच नये सिरे से गठजोड़ के लिए मोलभाव का खेल शुरू हो गया है। इस लेख में हालांकि कांग्रेस के लिए दुविधा भी है। दक्षिण राज्यों के कई पार्टी नेताओं ने शिवसेना के साथ सत्ता बनाने के खेल के बाद देश के दूसरे हिस्सों में होने वाले नुकसान से अवगत कराते हुए आगाह किया है। यही वजह है कि एक बारगी राजनीतिक जरूरत होते हुए भी कांग्रेस नेत्री सोनिया गांधी की तरफ से समर्थन के लिए हां नहीं हो पायी और शिवसेना का सपना धरा का धरा रह गया। साथ ही राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी का मंसूबा भी परवान नहीं चढ़ सका। उम्मीद थी कि कांग्रेस का साथ मिलते ही महाराष्ट्र में सत्ता का सूखा समाप्त होगा। पर कांग्रेस के लिए इस मसले पर हड़बड़ी न दिखाने का सीधा मलतब था कि उसे अभी और समय चाहिए ताकि कोई ऐसी युक्ति निकले जिससे सांप भी मर जाये और लाठी भी ना टूटे। अबए जब राज्य में राष्ट्रपति शासन लग चुका है, इस तरह की राजनीति के लिए पर्याप्त मौका है। पहले भले ही विचार यह रहा हो कि बाहर से समर्थन और शिवसेना-एनसीपी सत्ता में रहें ताकि भाजपा दोबारा महाराष्ट्र की सत्ता में ना लौट सके लेकिन अब संभावना मोलतोल की बढऩे से हो सकता है कांग्रेस भी हिस्सेदारी करना चाहे।

सत्ता के गलियारों में इस बात की चर्चा चल पड़ी है कि कांग्रेस ने एनसीपी के जरिये सत्ता में हिस्सेदारी का जो प्रिंट तैयार किया है, उस हिसाब से पहले ढाई साल एनसीपी का मुख्यमंत्री। इस तरह पार्टी सरकार का हिस्सा बिना किसी लाग लपेट के बन सकती है। चर्चा यह भी है कि पार्टी खुद के लिए भी डिप्टी सीएम की मांग कर सकती है। दरअसल शिवसेना के लिए जो मौजूदा राजनीतिक परिस्थिति है, उसमें अब उसके पास विकल्प सीमित हैं। एनडीए का हिस्सा अब शिवसेना है नहीं, उसके एक मात्र मंत्री अरविंद सावंत इस्तीफा दे चुके हैं। रही बात भाजपा से फिर नाता जोडऩे की तो यह उसके लिए अत्यंत लज्जाजनक स्थिति होगी। इसके अलावा सरकार बनाने व बनवाने की दिशा में आगे नहीं बढ़ती है तो उसके खुद के विधायकों की टूट-फूट भी हो सकती है। कोई अभी-अभी चुनकर आया है तो दोबारा चुनाव मैदान में क्यों उतरना चाहेगा। हालांकि भाजपा तो यही चाहेगी कि राज्य में अब किसी की सरकार ना बने ताकि दोबारा चुनाव हों और स्वाभाविक है ऐसी स्थिति का उसे ही लाभ मिलेगा।

इसीलिए पार्टी के रणनीतिकार सारी स्थितियों पर नजर रखे हुए हैं। यही वजह है शायद शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे की भागदौड़ पहले से तेज हो गई है। मंगलवार को तो उनका पूरा ध्यान अपने विधायकों का मन टटोलने पर था। बुधवार को कांग्रेस से चर्चा हुई। समझा जाता है कि न्यूनतम साझा कार्यक्रम को लेकर मंथन हुआ। खुद उद्धव ने बैठक में हुई बात बताने से इनकार कर दिया। एनसीपी की मानें तो राज्य में अगले वर्ष सरकार बनेगी यानि 2020 जनवरी में। मतलब साफ है तब तक राष्ट्रपति शासन लगा रहेगा। अब ऐसे में सवाल यह उठता है कि विषम राजनीतिक परिस्थितियों में फंसे उद्धव ठाकरे एक बार फिर भाजपा की तरफ मुड़ेंगे, क्योंकि सोनिया-पवार की तरफ से इतना तो फिलहाल हो ही गया है कि कुछ महीने राज्य में किसी की भी सरकार नहीं बनने वाली है। 35 साल पुराने गठबंधन का सिर्फ मुख्यमंत्री पद की मांग को लेकर यह हश्र होगा, किसी ने नहीं सोचा होगा। खुद शिवसेना को भी यह उम्मीद नहीं रही होगी कि भाजपा न्योता मिलने पर सरकार बनाने से पीछे हट जाएगी। ऐसे में शिवसेना के पास भी और कोई रास्ता न था। एनसीपी-कांग्रेस ने भी ऐसा उलझाया कि खेल आखिर बिगड़ ही गया। शायद अति महत्वाकांक्षा का यही परिणाम होता है।

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