छत्तीसगढ़ में इस समय भाजपा पूरी तरह से बिखरी, कमजोर और निष्प्रभावी दिखाई दे रही है। दरअसल प्रदेश में पार्टी के सबसे बड़े नेता माने जाने वाले पूर्व मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह भ्रष्टाचार के तमाम आरोपों से घिरे हुए हैं। दूसरी ओर पार्टी के बड़े नेता अलग-अलग गुटों में बंट गए हैं। पार्टी के भीतर गुटबाजी, कार्यकर्ताओं में असंतोष और हताशा तथा जनता के बीच भाजपा की निरंतर खराब होती छवि ने दंतेवाड़ा उपचुनाव के नतीजे तय कर दिए। आने वाला समय भाजपा के लिए और मुश्किल होगा। क्या प्रदेश में भाजपा की स्थिति निरंतर खराब हो रही है। दंतेवाड़ा उपचुनाव के परिणाम को देखकर तो यही लगता है। भाजपा विधायक भीमा मंडावी की नक्सलियों द्वारा जघन्य हत्या के बाद खाली हुई इस सीट पर हाल ही में उपचुनाव हुआ जिस पर कांग्रेस की देवकी कर्मा ने भीमा मंडावी की पत्नी को 11 हजार से भी अधिक वोटों से परास्त किया।
यह केवल कांग्रेस की जीत नहीं थी बल्कि छत्तीसगढ़ राज्य बनने के बाद दंतेवाड़ा की सीट पर अब तक की सबसे बड़ी जीत है। इससे यह साबित होता है कि बस्तर में कांग्रेस का जनाधार बढ़ा है। सबसे बड़ी बात तो यह है कि भीमा मंडावी की मौत के लगभग चार महीने बाद हुए इस उपचुनाव में भी भाजपा के पक्ष में सहानुभूति लहर ने काम नहीं किया। दंतेवाड़ा का चुनाव हार जाने के बाद अब चित्रकूट का उपचुनाव होना है लेकिन जिस तरह की परिस्थितियां हैं उससे तो यही लगता है कि चित्रकूट की सीट भी भाजपा के हाथ से जाएगी। गौरतलब है कि प्रदेश के सबसे बड़े आदिवासी राज्यों सरगुजा और बस्तर की 26 में से 25 सीटें इस समय कांग्रेस के पास है। छत्तीसगढ़ राज्य बनने के बाद से यह पहला अवसर है जब सरगुजा की सभी 14 और बस्तर की 11 सीटों पर कांग्रेस का कब्जा है। अगर चित्रकूट की सीट भी कांग्रेस के हाथ आ जाती है तो बस्तर की भी सभी 12 सीटों पर कांग्रेस का ही कब्जा हो जाएगा। यह स्थिति ना तो पूर्व मुख्यमंत्री डॉक्टर रमन सिंह के लिए अनुकूल मानी जा सकती है और ना ही भाजपा के लिए।
नवंबर-दिसम्बर में नगरीय निकाय के चुनाव होने हैं और इसके तत्काल बाद पंचायतों के भी चुनाव होंगे। प्रदेश की भूपेश सरकार को लगभग नौ महीने हो चुके हैं। अगर इस सरकार के खिलाफ कोई असंतोष होता तो इसका असर दंतेवाड़ा उपचुनाव में दिख जाता लेकिन जिस तरह से यहां कांग्रेस ने जीत हासिल की है उससे तो यही लगता है कि मौजूदा सरकार के खिलाफ फिलहाल जनता में कोई असंतोष नहीं है। दंतेवाड़ा उपचुनाव के बाद अगर बात करें कांग्रेस और भाजपा के प्रदर्शन की तो हर मोर्चे पर कांग्रेस, भाजपा से कहीं आगे दिखाई दी। ना केवल कांग्रेस का मैनेजमेंट तगड़ा रहा बल्कि उसकी रणनीति और मुख्यमंत्री भूपेश बघेल की आदिवासी जनता के बीच सहज पहुंच ने भी भाजपा को काफी पीछे छोड़ दिया। जहां कांग्रेस ने कांकेर के विधायक और प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष मोहन मरकाम को जिम्मेदारी सौंपी और उन्होंने हल्बी और गोड़ी बोली में ताबड़तोड़ सभाएं कर बस्तर की जनता कांग्रेस की निकटता बढ़ाने का काम किया वहीं मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने दंतेवाड़ा विधानसभा क्षेत्र में लगातार सभाएं की।उनका ठेठ छत्तीसगढिय़ा अंदाज भाजपा पर भारी पड़ा। अब अगर बात करें भाजपा की तो उसने चुनावी मैनेजमेंट के गुरु माने जाने वाले पूर्व मंत्री बृजमोहन अग्रवाल को पूरी तरह से दरकिनार कर दिया।
गौरतलब है कि पिछले चुनाव में कांग्रेस की आंधी में भी भाजपा को जो 15 सीटें मिली उनमें से एक, लगभग डेढ़ दशक से लगातार चुनाव जीतते आ रहे बृजमोहन अग्रवाल की सीट भी थी। भाजपा ने दंतेवाड़ा के लिए भाटापारा के विधायक शिवरतन शर्मा को जिम्मेदारी सौंपी जिनका पूरे बस्तर में ना तो कोई जनाधार है और ना ही प्रभाव है। खुद पूर्व मुख्यमंत्री डॉक्टर रमन सिंह बस्तर में पूरी तरह से निष्प्रभावी रहे। हाल ही में प्रदेश में जितने भी घोटालों का खुलासा हुआ है उनमें पूर्व मुख्यमंत्री और उनके रिश्तेदारों की संलिप्तता के कारण भाजपा की स्थिति और ज्यादा क मजोर हुई है। पार्टी का एक मात्र हाई प्रोफाइल चेहरा रहे डॉ. रमन सिंह अब पार्टी के लिए ही नुकसानदेह साबित हो रहे हैं। नान घोटाला, अंतागढ़ टेप कांड, डीके एस घोटाला जैसे अरबों-खरबों के भ्रष्टाचार के आरोप में फंसे होने के कारण डॉ. रमन सिंह की स्थिति काफी कमजोर हुई है। अगर यही हाल रहा तो आने वाले चार वर्षों में भाजपा का इस प्रदेश में वापस लौटना नामुमकिन हो जाएगा।
शशांक
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं ये उनके निजी विचार हैं )