ढंग से कांग्रेस लड़े तो सही!

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महाराष्ट्र और हरियाणा का विधानसभा चुनाव कांग्रेस के लिए मुश्किल है तो भाजपा के लिए भी आसान नहीं हैं। इसके कई कारण हैं। पहला तो यह है कि नरेंद्र मोदी और अमित शाह ने भाजपा की कमान संभालने के बाद 2014 में अपने प्रचार, चेहरे और रणनीति के दम पर पहली बार जिन राज्यों में सरकार बनाई थी, ये वहीं दोनों राज्य हैं। प्रधानमंत्री बनने के बाद नरेंद्र मोदी और भाजपा अध्यक्ष बनने के बाद अमित शाह ने जो पहले दो मुख्यमंत्री बनवाए थे वे देवेंद्र फड़नवीस और मनोहर लाल खट्टर हैं। मोदी और शाह से पहले भाजपा नेताओं की वरिष्ठता और लोकप्रियता के पदानुक्रम में ये दोनों नेता कहीं नहीं थे। इन्हें मोदी और शाह ने चुना था।

सो, इन दोनों की जीत सुनिश्चित करना मोदी और शाह के लिए लोकसभा चुनाव की जीत के जितना ही अहम होगा। इन दोनों से पहले भाजपा के जो भी क्षत्रप मुख्यमंत्री थे वे अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी के बनाए हुए थे। वे संघ और भाजपा में दशकों तक राजनीति करने के बाद स्वाभाविक नेता के तौर पर उभरे थे और मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंचे थे। इससे उलट फड़नवीस और खट्टर को नीचे से उठा कर मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठाया गया था। इसलिए मोदी और शाह इन दोनों की जीत सुनिश्चति करने के लिए पूरा जोर लगाएंगे। ऐसा ही जोर दो महीने बाद झारखंड में भी लगाना होगा। क्योंकि रघुवर दास तीसरे क्षत्रप थे, जिन्हें मोदी और शाह ने मुख्यमंत्री बनवाया था। यह भी ध्यान रखना है कि झारखंड का चुनाव राष्ट्रीय अध्यक्ष के तौर पर अमित शाह के इस कार्यकाल का आखिरी चुनाव होगा।

महाराष्ट्र और हरियाणा का चुनाव इसलिए भी अहम है क्योंकि भाजपा के लिए अपने शासन वाले राज्यों में वापसी करना बहुत मुश्किल साबित हो रहा है। नरेंद्र मोदी और अमित शाह की लोकप्रियता के बावजूद अपने शासन वाले राज्यों में भाजपा को कड़ा मुकाबला झेलना पड़ा है। 2014 के बाद भाजपा शासित राज्य का पहला चुनाव गोवा में था, जहां पार्टी बुरी तरह से हारी। यह अलग बात है कि सरकार उसने बनाई पर 2016 के चुनाव में उसकी सीटें 22 से घट कर 12 रह गईं। ऐसा दूसरा चुनाव 2017 में मोदी और शाह के गृह राज्य गुजरात का था। वहां भी भाजपा की सीटों में बड़ी कमी आई और पार्टी जैसे तैसे 91 सीट का बहुमत का आंकड़ा पार कर पाई। उसके बाद तीन राज्यों- मध्य प्रदेश, राजस्थान व छत्तीसगढ़ में 2018 में चुनाव हुआ, जहां भाजपा को हार का सामना करना पड़ा। इनमें से मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में तो भाजपा 15 साल से शासन में थी। बिहार में भी भाजपा दस साल शासन में रहने के बाद चुनाव में गई थी उसकी सीटें 91 से घट कर 54 हो गई थीं।

इसका मतलब है कि प्रधानमंत्री पद के लिए लोग जिस तरह से नरेंद्र मोदी का कोई विकल्प नहीं देख रहे हैं वैसी स्थिति राज्यों में नहीं है। वहां भाजपा के मुख्यमंत्रियों को आम मतदाता विकल्पहीन नहीं मान रहा है। विपक्ष के शासन वाले किसी राज्य में सत्ता पलट देने में भाजपा जरूर कामयाब हो जा रही है पर अपने शासन वाले राज्य में सत्ता बचा लेने में उसकी कामयाबी का औसत बहुत खराब है। तभी मीडिया और सोशल मीडिया के तमाम प्रचार के बावजूद इन दोनों राज्यों में विपक्ष के लिए अवसर हैं।

अब सवाल है कि इस अवसर को क्या कांग्रेस पार्टी भुना पाएगी? इन दोनों राज्यों में अक्टूबर में चुनाव होने हैं यह सब जानते थे पर हैरानी की बात है कि मई में लोकसभा चुनाव खत्म होने के बाद कांग्रेस के तीनों शीर्ष नेताओं- सोनिया गांधी, राहुल गांधी और प्रियंका गांधी वाड्रा में से कोई भी इन राज्यों में नहीं गया। जबकि दूसरी ओर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, पार्टी अध्यक्ष अमित शाह और यहां तक की पार्टी के कार्यकारी अध्यक्ष जेपी नड्डा भी कई कई बार इन राज्यों का दौरा कर चुके हैं। इन दोनों राज्यों में कांग्रेस के अंदर कलह मची रही पर महीनों तक उसे सुलझाने का प्रयास नहीं हुआ।

ऐसा लग रहा है कि लोकसभा चुनाव की हार ने कांग्रेस ने पस्त कर दिया है और उसने पहले ही हार मान ली है। कांग्रेस यह बात नहीं समझ रही है कि मोदी से लड़ना उसके लिए मुश्किल है पर उसने शिवराज सिंह, वसुंधरा राजे या रमन सिंह को तो आसानी से हरा दिया था। उसे यह भी समझ में नहीं आ रहा है कि उसे मोदी से नहीं फड़नवीस और खट्टर से लड़ना है। वह अगर चुनाव को भाजपा के बनाए राष्ट्रीय मुद्दों जैसे अनुच्छेद 370, 35ए या तीन तलाक पर जाने से रोके और राज्य सरकारों के कामकाज को मुद्दा बनाए और आर्थिक संकट पर लोगों को जागरूक करे तो मुकाबला एकतरफा नहीं रह जाएगा, जैसा कि कांग्रेस के कई नेता सोच रहे हैं। सो, नतीजे जो भी हों पर कम से कम अच्छी लड़ाई की तैयारी तो कांग्रेस को करनी ही चाहिए। आखिर दुष्यंत कुमार ने कहा है- कौन कहता है कि आसमान में सूराख नहीं हो सकता, एक पत्थर तो तबियत से उछालो यारों। नतीजों से ज्यादा यह मायने रखता है कि आप कैसे लड़े।

अजीत द्विवेदी
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं

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