हफ्तों पहले कांग्रेस अध्यक्ष ने अपेन पद से इस्तीफे की पेशकश की थी। इस बीच पार्टी के भीरत जारी ऊहापोह को विराम देते हुए राहुल गांधी ने आखिरकार इस्तीफे की सार्वजनिक घोषणा कर दी। उम्मीद है अगले हफ्ते तक पार्टी को नया अध्यक्ष मिल जाएगा। सियासत में ना तो हार नई और ना ही किसी की जीत। उम्मीद के मुताबिक नतीजे ना आने पर पार्टी के प्रमुख पद भी छोड़ते हैं। इससे किसी नये को अपनी प्रतिभा दिखाने का अवसर मिलता है। इसलिए राहुल गांधी का इस्तीफा पार्टी को बड़ी लड़ाई के लिए किसी और को अवसर देने का एक तरीका भर है, लेकिन जिस तरह से इस्तीफे को लेकर उन्होंने कई पन्नें का नोट लिखा है, उसको लेकर सियासी इलाके में चर्चा ज्यादा है। इस्तीफे की पृष्ठभूमि में उन्होंने पार्टी के हार की जिम्मेदारी लेते हुए अपने सीनियर नेताओं को बड़ी लताड़ लगायी है।
उनकी पीड़ा है कि पार्टी के दूसरे बड़े नेताओं ने उनका इस तरह साथ नहीं दिया। जैसी उन्हें उम्मीद थी। स्वाभाविक है पार्टी के भीतर ही सहयोग और समर्पण का अभाव दिखे तो खीझ भी पैदा होगी। पर उन्होंने जिस तरह भाजपा के साथ ही देश की दूसरी सारी संवैधानिक संस्थाओं को भी अपने पत्र में निशाना बनाया है, वह चिंताजनक है। राहुल गांधी जब कहते हैं कि वह मोदी के साथ ही देश के सिस्टम से भी लड़ रहे थे तब लगता है कि उन्होंने जाने-अनजाने में सात दशकों से चली आ रही संवैधानिक व्यवस्था को भी कांग्रेस की हार का जिम्मेदार ठहराया है। कांग्रेस तो सबसे ज्यादा वक्त तक देश की सत्ता संभालने वाली पार्टी है, कभी किसी दूसरी पार्टी ने इसके लिए संवैधानिक संस्थाओं को सहभागी नहीं ठहराया।
राहुल को लगता है कि देश की सभी संस्थाओं पर संघ और भाजपा के लोगों का कब्जा हो चुका है और इससे भारत की समावेशी सोच को नुकसान पहुंच रहा है। उनके निशाने पर मीडिया भी है। माना कि लगातार दो बार पार्टी पहली बार हारी है और उल्लेखनीय यह भी है कि 2019 के चुनाव में 17 राज्यों से कांग्रेस बेदखल हुई है। दर्द गहरा है, समझ में आता है लेकिन ऐसे कठिन समय में अपनी समझ को संभाले रखने की चुनौती बड़ी होती है। हर बार राहुल कुछ इसी तरह व्यवहार करते दिखते हैं। गुरुवार को पत्रकारों के एक सवाल पर उन्होंने कहा है कि लड़ाई से इस्तीफा नहीं दिया है। पहले से कई गुना अधिक ताकत से उनकी लड़ाई संघ और भाजपा के खिलाफ जारी रहेगी। भाजपा के मौजूदा विस्तार के जवाब में कांग्रेस को सामयिक बनाये रखने के लिए जरूरी है कि संघर्ष को सडक़ों तक ले जाया जाये।
पर इसके लिए तथ्यात्मक एजेण्डा चाहिए। जैसा कि राहुल गांधी कहते हैं कि उनकी लड़ाई मोदी या भाजपा से नहीं है बल्कि उनकी विचारधारा से है तो अपनी पार्टी की विचारधारा को आमजन तक पहुंचाना भी होगा। सिर्फ आरोप-प्रत्यारोप से पार्टी के हालात में तब्दीली नहीं लाई जा सकती। जाहिर है। फिर पार्टी के हार की वजहों को स्वीकारने की हिम्मत भी दिखानी होगी। ऐसा क्यों हुआ सिर्फ सवाल खड़ा करने से बात नहीं बनेगी बल्कि यह समझना पड़ेगा कि कांग्रेस किन वजहों से धीरे-धीरे आम जन से दूर होती चली गयी। जवाबदेही हो तो पूरी हो या जिस तरह राहुल गांधी ने पार्टी की हार के लिए संघ- भाजपा और पूरी मशीनरी को जि्मेदार ठहराने की कोशिश की है, उससे भविष्य की तैयारी पर बुरा असर पड़ सकता है।