अभिनय को अलविदा

0
598

दंगल फिल्म में अपने दमदार अभिनय से लोकप्रिय हुई और राष्ट्रीय पुरस्कार जीतने वाली अभिनेत्री जायरा वसीम ने अभिनय क्षेत्र को छोड़ने की यह कहते हुए घोषणा की कि वह इस काम से खुश नहीं हैं, क्योंकि यह उनकी आस्था और धर्म के रास्ते में आ रहा है। उनके इस फैसले से वैसे तो भला किसी का क्या लेना-देना हो सकता है, लेकिन अब तक कश्मीर की युवा पीढ़ी के लिए रोल मॉडल रही जायरा वसीम के फैसले का उस समाज पर जरूर असर पड़ता है, जिस समाज से वह गयी हैं। कोई भी शखिश कब, क्या फैसला ले, यह उसकी निजता से जुड़़ा मसला है। उस पर तो कुछ भी नहीं कहा जा सकता। लेकिन फैसले के लिए छह पेज की शाब्दिक वर्जिश इतना तो संकेत करती है कि जो कुछ सामने परोसा गया है, वो ही सच नहीं है। शायद जो सच है, उसको पोशीदा रखने की पूरी कोशिश भी बिन मांगी सफाई में दिखी है।

जिस पृष्ठभूमि से वसीम आती हैं उसकी सामाजिक स्थिति परिस्थिति किसी से छिपी नहीं है। जम्मू-कश्मीर की वादी में स्त्री समाज के लिए जब-तब पर्दादारी के नाम पर बंदिशें लागू होती रही हैं। इसीलिए जब अभिनय के क्षेत्र में जायरा ने कदम रखा और उन्हें देशभर से समर्थन और शाबासी मिली, तब तत्कालीन मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती ने ही उन्हें खास और कश्मीरी बच्चियों के लिए प्रेरणा स्रोत बताया था। हालांकि कट्टपंथियों ने तब भी अभिनय को इस्लामिक अकीदे से कुफ्र करार दिया था। पर जायरा का सफर का नहीं, जारी रहा। पर अब अचानक आया यह फैसला यह भी साबित करता है कि कई वर्षों से उनके ऊपर कट्टरपंथियों का दबाव था, जो एक सीमा के बाद आखिरकार सार्वजनिक हो गया। फैसले के पीछे पड़े दबाव की जरूर मजम्मत होनी चाहिए। प्रोफेशन की उनकी जरूरतें होती हैं और जहां तक मजहब का सवाल है तो वह व्यक्ति की निजता से जुड़ा होता है। उसकी अपनी अहमियत होती है, इसमें दो राय नहीं।

लेकिन व्यक्तित्व के विकास में मजहब को अड़चन के तौर पर इस्तेमाल नहीं किया जा सक ता। कोई भी शख्स अपनी रुचि के हिसाब से प्रोफेशन चुनता है, इसके लिए सदैव एक माहौल बना रहने देना चाहिए। विरोधाभास देखिए, सारी बंदिशें स्त्री समाज पर लागू होती हैं, पुरुषों के लिए इस तरह मजहबी दबाव पड़ऩे के मामले सामने नहीं आते। जरूरत है स्त्री विरोधी सोच को आईना दिखाने की। अभिव्यक्ति के किसी भी क्षेत्र में कोई भी शख्स अपनी प्रतिभा की खुशबू बिखेर सकता है, उसे रोकने की चेष्टा के बजाय अनुकूल वातावरण दिया जाना चाहिए। भारतीय परिप्रेक्ष्य में तो किसी भी प्रकार की जड़ता को श्रेय नहीं दिया जाना चाहिए। कश्मीर की आबो-हवा में सेकुलर तासीर का बोलबाला होता तो जायरा वसीम को शायद अभिनय को अलविदा ना कहना पड़ता। निजी तौर पर तो जायरा की हार हुई है पर वास्तव में यह उन सबकी भी हार है जो सेकुलर मूल्यों की प्रतिष्ठा का दिन-रात दावा करते हैं। फिर भी दंगल की जायरा लोगों के जेहन में मौजूद रहेगी।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here