एक प्रजातांत्रिक देश की धड़कन चुनाव है, चुनाव के बिना प्रजातंत्र नहीं और प्रजातंत्र नहीं तो चुनाव नहीं। चुनाव एक ऐसी संवैधानिक प्रक्रिया है, जिसका निर्धारण समय पर पूरा होना जरूरी है। फिर उसका समय क्या हो? इसी पर आज जंग छिड़ी है, मोदी सरकार चाहती है कि देश में पंचायत से लेकर लोक सभा तक के सभी चुनाव एक साथ हो, इसके पीछे दलील यह दी जा रही है कि एक साथ चुनाव नहीं हो पाने के कारण प्रजातंत्र की गाड़ी रफ्तार नहीं पकड़ पा रही है। चुनाव खर्चीले होते जा रहे है, सरकारें ठीक से काम नहीं कर पा रही, देश की प्रगति व कल्याण के कार्यों में बाधा उत्पन्न हो रही है और चुनावों के चक्कर में देश व सरकार का बहुमूल्य समय नष्ट हो रहा है, फिर चुनाव आयोग भी चुनाव की तैयारियों के अलावा कई महत्वपूर्ण दायित्वों पर ध्यान नहीं दे पा रहा है।
इसलिए ऐसा कुछ होना चाहिए जिससे सभी चुनाव एक साथ हो, फिर इसके लिए कुछ भी क्यों न करना पड़े? भारत की आजादी के बाद 1952 में हुए पहले आम चुनाव के बाद अगले तीन आम चुनाव अर्थात 1967 तक सभी चुनाव एक साथ ही हुए, किंतु 1987 अर्थात इंदिरा जी के सत्तारोहण के बाद यह परिपाटी बदल दी गई। और संसद के साथ राज्य विधानसभाओं को भंग कर व राष्ट्रपति शासन लागू कर देश की अधिकांश विधानसभाओं के निर्धारित पांच साला कार्यकाल को गड़बड़ा दिया गया, और इस चलन का दुष्परिणाम आज पूरा देश भुगतने को मजबूर है। यद्यपि इसमें कोई दो राय नहीं कि एक देश एक चुनाव को लेकर सरकार द्वारा जो दलीलें दी जा रही है, वे गलत नहीं है जो लोक सभा चुनाव 2014 में 38 हजार करोड़ में सम्पन्न हुआ था।
वह महज पांच सालों में दुगुना महंगा हो गया 2019 के लोक सभा चुनाव पर क रीब साठ हजार करोड़ रूपया खर्च हुआ और चुनाव सात चरणों में होने के कारण ढाई महीने आचार संहिता लागू रही, जिससे केन्द्र व राज्य सरकारों के कई महत्वपूर्ण जन कल्याणकारी कार्य सम्पन्न नहीं हो पाए, किंतु यहां सवाल यह भी उठाया जा रहा है। कि जब देश में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी के 2014 के चुनावी घोषणा-पत्र में एक देश-एक चुनाव का जिक्र था, तो फिर राजस्थान, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ राज्यों के विधानसभा चुनावों के साथ लोक सभा के चुनाव क्यों नहीं कराए गए? महज दो-तीन महीनें बाद लोक सभा चुनाव होना थे तो इन तीन राज्यों के चुनावों को रोका जा सकता था? फिर सबसे बड़ा सवाल यह कि अब इस महत्वपूर्ण मसले को तूल क्यों दी जा रही है।
फिर फिलहाल तो केन्द्र सरकार अपने दम पर यह एक देश-एक चुनाव की योजना लागू कर नहीं सकती क्योंकि इसके लिए संविधान के पांच अनुच्छेद दो 83, 85, 124, 174 और 356 में संशोधन कर संसद से पारित करना पड़ेगा और इसके लिए संसद के दोनों सदनों में दो-तिहाई बहुमत जरूरी है, इसलिए फिलहाल यह संभव नजर नहीं आता, चाहे मोदी जी अपने आपकों कितना ही क्यों न बदल लें? जब तक समूचा प्रतिपक्ष इस मुद्दें पर सरकार के साथ नहीं आता, तब तक यह होना संभव नहीं है। जहां तक कांग्रेस का सवाल है, वह तो पहले ही अपने राजनीतिक प्रस्ताव में एक साथ चुनाव को गलत बता चुकी है, रही बात सपा-बसपा की, तो वे भी इसे अपने नजरियें से देखकर इस मुद्दें को उठाने की पहल को देश के अन्य ज्वलंत मुद्दों से ध्यान बांटने का प्रयास बता रहे है।
जबकि कांग्रेस को आशंका है कि आज एक देश-एक चुनाव को मुद्दा बना रहे है, कल ‘एक देश-एक धर्म’ को मुद्दा बनाएगें। यद्यपि यह सही है कि यह मुद्दा मोदी या भाजपा का नया मुद्दा नहीं है, यह हमारे संविधान में वर्णित सबसे पुराने विचारों में से एक है। इसलिए इस मुद्दें को लेकर मोदी जी या भाजपा का कोई राजनीतिक स्वार्थ नजर नहीं आता, किंतु सबसे बड़ा सवाल यह है कि पिछले बावन सालों से बिगड़े इस चुनावी चलन को तत्कालीन शासकों ने इतनी विकृत स्थिति तक पहुंचा दिया है कि इस प्रजातंत्र व संविधान के अनुरूप स्वरूप प्रदान करने के लिए सरकार को काफी मशक्कत करनी पड़ेगी, वह भी तभी जब प्रतिपक्षी दलों को भगवान सद्बुद्धि प्रदान करें।
ओमप्रकाश मेहता
(लेखक स्तंभकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं)