विरोधी दलों के पास अब चारा क्या है?

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इस चुनाव के परिणाम आने के बाद देश के विरोधी दलों की हवा निकली हुई-सी क्यों लग रही है ? चुनाव के पहले वे एकजुट न हो सके तो चुनाव के बाद क्या वे एकजुट हो सकेंगे ? उन्हें हताशा और निराशा के गर्त्त में गिरने से बचना चाहिए। यदि वे भारतीय लोकतंत्र से सचमुच प्यार करते हैं तो उन्हें कमर कसकर फिर खड़े होना चाहिए।

इस समय सारे विरोधी सांसदों की संख्या 200 के आस-पास है। सत्तारुढ़ भाजपा गठबंधन की संख्या 350 के आस-पास है। लेकिन जरा याद करें कि अकेली सत्तारुढ़ कांग्रेस के पास कभी 410 कभी 361 और कभी 352 सांसद भी रहे हैं। विपक्षी सांसदों की संख्या अब से भी बहुत कम रही है लेकिन उन्होंने कभी हिम्मत नहीं हारी। वे मानते थे कि मोटर कार जितने ज्यादा हॉर्स पावर की हो, उसका ब्रेक भी उतना ही तगड़ा होना चाहिए लेकिन ब्रेक कार के एंजिन जितना बड़ा तो नहीं हो सकता। वह तो छोटा ही होगा।

विपक्ष इस बार संख्या में थोड़ा छोटा है तो क्या हुआ ? उसकी जिम्मेदारी पहले से भी ज्यादा है। मुझे याद है कि 1962 और 1967 में संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के पांच-छह सांसद ही नेहरु और इंदिरा सरकार का दम फुलाने के लिए काफी होते थे। उनके सदन में पांव रखते ही प्रधानमंत्रियों के चेहरों की रंगत बदलने लगती थी। यह ठीक है कि सभी विपक्षी सांसद सत्ता-विरोधी नहीं होते। कुछ विपक्षी दल तो ऐसे हैं, जो अभी तक अलग-थलग बैठे थे, वे भाजपा के साथ गठबंधन में शामिल हो जाएंगे लेकिन जो अब भी विरोध में हैं, उन्हें तुरंत अपनी एक बैठक बुलानी चाहिए और अपना एक ढीला-ढाला महासंघ खड़ा करना चाहिए।

पहले जो महागठबंधन बनता उसका एकमात्र आधार सत्ता प्राप्ति होती लेकिन अब जो बने, उसका आधार एक न्यूनतम साझा कार्यक्रम हो। ऐसा कार्यक्रम, जिसे लागू करवाने के लिए संसद में और उसके बाहर जबर्दस्त दबाव बनाया जाए। ऐसा कार्यक्रम बनवाने के लिए पहले तो खुद नेताओं को गंभीरतापूर्वक पढ़ाई-लिखाई करनी होगी और फिर विशेषज्ञों से सलाह-मश्विरा करना होगा। सरकार जहां भी गलती करती दिखे, उसकी जमकर खिंचाई करने की क्षमता विपक्ष में होनी चाहिए।

सिर्फ आंख मारने और झप्पी मारने से काम नहीं चलेगा। यह कहना भी बेमतलब है कि भाजपा के साथ कांग्रेस की लड़ाई वैचारिक है। यदि यह वैचारिक होती तो कांग्रेस के नेताओं को मोदी की तरह नौटंकियां नहीं करनी पड़तीं। उन्होंने जनेऊधारी और पूजा-पाठी होने का नाटक क्यों कियॉ? अब प्रांतीय नेताओं को यह भी समझ में आ गया होगा कि जात और संप्रदाय की नावें उन्हें पार नहीं लगा सकतीं।

अब देश के हर दल को जनता की समस्याओं के व्यावहारिक हल खोजने होंगे और उनकी हार-जीत के आधार वे ही बनेंगे। ये व्यावहारिक हल तात्कालिक और दूरगामी, दोनों होना चाहिए। भारतीय समाज में मूलभूत सुधार सिर्फ कानून के जरिए नहीं हो सकता। हमारे राजनीतिक दल सिर्फ सरकार बनाने में अपनी सारी शक्ति खर्च कर देते हैं। वोट और नोट ही उनके लिए ब्रह्म है। जन-सेवा और समाज सुधार तो उनके लिए सिर्फ माया है। वे गांधी की कांग्रेस, लोहिया की संसोपा, विनोबा के सर्वोदय और गोलवलकर के संघ की तरह जन-जागरण और जन-आंदोलन में भी रुचि लें, यह बहुत जरुरी है।

डॉ. वेदप्रताप वैदिक
लेकख वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं….

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