बाल विवाह से पीछा क्यों नहीं छूटता?

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बाल विवाह एक ऐसी कुप्रथा है जिससे हमारा देश और समाज आजादी के सात दशकों के इतने लंबं समय के बाद भी पीछा नहीं छुड़ा पाया है। यही कारण है कि अक्षय तृतीया जैसे पावन एवं धार्मिक दिवस पर बाल विवाह कराने की विकृत मानसिकता अब भी मौजूद होकर अपना काम कर रही है। इस दिन पर कोई भी महत्वपूर्ण कार्य करने के लिए पंचांग व मुहूर्त देखने की जरूरत नहीं होती।

छोटी सी उमर में परनाई रे बाबा सा…काइ थारों करयो में कसूर… ये गाना भला किसने नहीं सुना होगा और इसे सुनने के बाद किसका हृदय द्रवीभूत होकर आंसुओं की भाषा में अभिव्यक्त नहीं हुआ होगा! बाल विवाह एक ऐसी कुप्रथा है जिससे हमारा देश और समाज आजादी के सात दशकों के इतने लंबे समय के बाद भी पीछा नहीं छुड़ा पाया है। यही कारण है कि अक्षय तृतीया जैसे पावन एवं धार्मिक दिवस पर बाल विवाह कराने की विकृत मानसिकता अब भी मौजूद होकर अपना काम कर रही है। इस दिन पर कोई भी महत्वपूर्ण कार्य करने के लिए पंचांग व मुहूर्त देखने की जरूरत नहीं होती। प्राचीन समय में इस शुभ दिवस पर लोग अपने बच्चों की शादियां करा देते थे। और वे तनावमुक्त हो जाते थे कि उन्होंने अपने बच्चियों को समाज की गंदी नजरों से सुरक्षित कर लिया है। क्योंकि ये माना जाता था कि विवाह के बाद बच्चियों के साथ गलत कृत्य नहीं होते हैं।

तब से क्रम बनता गया और लोग अक्षय तृतीया के दिन को अपने बच्चो की शादी के लिए शुभ मानकर बाल विवाह चाते रहें और रचा रहे हैं। हाल ही में संयुक्त राष्ट्र बाल निधि ने एक रिपोर्ट, फैक्टशीट चाइल्ड मैरिजेज 2019 जारी की, जिसके अंतर्गत कहा गया है कि भारत के कई क्षेत्रों में अब भी बाल विवाह हो रहा है। इसमें कहा गया है कि पिछले कुछ दशकों के दौरान भारत में बाल विवाह की दर में कमी आई है लेकिन बिहार, बंगाल और राजस्थान में यह प्रथा अब भी जारी है। यूनिसेफ की रिपोर्ट के अनुसार, बिहार, बंगाल और राजस्थान में बाल विवाह की यह कुप्रथा आदिवासी समुदायों और अनुसूचित जातियों सहित कुछ विशेष जातियों के बीच प्रचलित है। रिपोर्ट में कहा गया है कि बालिका शिक्षा की दर में सुधार, किशोरियों के कल्याण के लिये सरकार द्वारा किए गए निवेश व कल्याणकारी कार्यक्रम और इस कुप्रथा के खिलाफ सार्वजनिक रूप से प्रभावी संदेश देने जैसे कदमों के चलते बाल विवाह की दर में कमी देखने को मिली है लेक न अब भी पूर्णरूप से कामयाबी नहीं मिली है।

रिपोर्ट के अनुसार 2005-2006 में जहां 47 फीसदी लड़कियों की शादी 18 साल की उम्र से पहले हो गई थी, वहीं 2015-2016 में यह आंकड़ा 27 फीसदी था। यूनिसेफ के अनुसार, अन्य सभी राज्यों में बाल विवाह की दर में गिरावट लाए जाने की प्रवृत्ति दिखाई दे रही है किन्तु कुछ जिलों में बाल विवाह का प्रचलन अब भी उच्च स्तर पर बना हुआ है। यह रिपोर्ट हमारे सामाजिक जीवन के उस स्याह पहलू की ओर इशारा करती है, जिसे अक्सर हम रीति-रिवाज व परंपरा के नाम पर अनदेखा करते हैं। तीव्र आर्थिक विकास, बढ़ती जागरूकता और शिक्षा का अधिकार कानून लागू होने के बाद भी अगर यह हाल है, तो जाहिर है कि बालिकाओं के अधिकारों और कल्याण की दिशा में अभी काफी कुछ किया जाना शेष है। बाल विवाह न केवल बालिकाओं की सेहत के लिहाज से, बल्कि उनके व्यक्तिगत विकास के लिहाज से भी खतरनाक है। शिक्षा जो कि उनके भविष्य का उज्ज्वल द्वार माना जाता है, हमेशा के लिए बंद भी हो जाता है।

शिक्षा से वंचित रहने के कारण वह अपने बच्चों को शिक्षित नहीं कर पातीं और फिर कच्ची उम्र में गर्भधारण के चलते उनकी जान को भी खतरा बना रहता है। प्रसिद्ध चिकित्सा शास्त्री धन्वन्तरि ने कहा था कि बाल विवाहित पति-पत्नी स्वस्थ एवं दीर्घायु संतान को जन्म नहीं दे पाते। कच्ची उम्र में मां बनने वाली ये बालिकाएं न तो परिवार नियोजन के प्रति सजग होती हैं और न ही नवजात शिशुओं के उचित पालन पोषण में दक्ष। कुल मिलाकर बाल विवाह का दुष्परिणाम व्यक्ति, परिवार को ही नहीं बल्कि समाज और देश भी भोगना पड़ता है। जनसंख्या में वृद्धि होती है जिससे विकास कार्यों में बाधा पड़ती है। यह सोचकर बड़ा अजीब लगता है कि वह भारत जो अपने आप में एक महाशक्ति के रूप में उभर रहा है उसमें आज भी एक ऐसी अनुचित प्रथा जीवित है। एक ऐसी कुरीति जिसमें दो अपरिपक्व लोगों को जो आपस में बिलकुल अनजान हैं उन्हें जबरन जिंदगी भर साथ रहने के लिए एक बंधन में बांध दिया जाता हैं और वे दो अपरिपक्व बालक शायद पूरी जिंदगी भर इस कुरीति से उनके ऊपर हुए अत्याचार से उभर नहीं पाते हैं और बाद में स्थितियां बिलकुल खराब हो जाती हैं और नतीजे तलाक और मृत्यु तक पहुंच जाते हैं।

देवेन्द्रराज सुधार
लेखक स्तंभकार हैं ये उनके निजी विचार हैं

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