कोई ये दिलचस्प है कि बीच चुनाव वोटिंग को अनिवार्य किए जाने का सुझाव सामने आया। हालांकि इस चुनाव के पीछे की मंशा लोकतंत्र को मजबूत बनाने के लिए है लेकिन जिस तरह की वोटिंग व्यवस्था अर्थात पूरा ढांचा या तंत्र है उसमें शत-प्रतिशत वोटिंग को अंजाम देने की कितनी क्षमता है इसका इसी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि कम वोटिंग पैटर्न में भी देर शाम हो जाती है। बहरहाल ये बहस उस बात से फिर चर्चा में है जब मोदी सरकार के थिंक टैंक के रूप में माने जाने वाले नीति आयोग के सीईओ अमिताभ कांत ने कह दिया कि अमीरों और मिडिल क्लास को वोट डालने के लिए घर से निकलने को अनिवार्य वोटिंग सिस्टम जरूरी है। हालांकि चुनाव आयोग ने देश के भीतर ऐसी किसी योजना को हाल फिलहाल लागू किये जाने से इनकार किया है। पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्तों को भी लगता है कि भारत में अभी इस तरह की स्थिति पैदा नहीं हुई है।
वैसे आस्ट्रेलिया का हवाला देते हुए सीओ ने ट्वीट किया है कि वहां वोट ना डालने पर 20 हजार डालर जुर्माना लगता है। यदि जुर्माना नहीं भरा जा सका तो जेल भी हो सकती है। वैसे इस तरह का प्रयोग खुद आस्ट्रेलिया में सफल नहीं रहा है। पर इस मुद्दे पर पहले भी आवाजें उठी हैं। 2016 में नरेन्द्र मोदी के पीएम रहते गुजरात के निकाय व पंचायत चुनाव में वोटिंग अनिवार्य की गयी थी। तब भी चुनाव आयोग ने पूरे देश में यह मॉडल लागू करने की संभावना से इनकार कर दिया था। बात सुप्रीम कोर्ट तक पहुंची थी पर सिरे नहीं चढ़ पायी। इस बार फिर से आवाज उठी है लेकिन चुनाव आयोग ने इसकी व्यावहारिकता को ध्यान में रखते हुए सुझाव को ना बोल दिया है। आस्ट्रेलिया का उदाहरण सामने रखकर यह समझाने की चेष्टा होती है कि जब वहां ऐसा सफलता पूर्वक नहीं हो पा रहा है तब भारत जैसे विशाल और बड़ी आबादी वाले देश में यह प्रयोग कितना कामयाब होगा।
आसानी से समझा जा सक ता है। और सच यह है कि लोगों में वोटिंग के प्रति जागरूकता पैदा करने के लिए सरकार संगठनों की तरफ से ऐसे तमाम कार्यक्रम रोजना होता हैं जिसमें वोटिंग और उसकी नितियों पर सबसे ज्यादा चर्चा इसी मध्यम वर्ग में होती है। सरकारों से शिकायतें भी इसी वर्ग को ज्यादा होती। सरकारों से पार्टियों की नीतिगत रुझान को प्रभावित करने की मद्दा रखता है। इस बार भी अब तक के चार चरणों में हुए मतदान का क्षेत्रवार रुझान देंखे तो ग्रामीण इलाके जहां उम्मीद बंधाते हैं वहीं शहरी इलाके उम्मीद तोड़ते नजर आते हैं। अभी चौथे चरण में मुंबई के शहरी इलाकों की सुस्त वोटिंग रफ्तार से एक बार फिर यह बहस लौटी है कि क्यों ना वोटिंग को अनिवार्य करने की दिशा में आगे बढ़ा जाये। स्वस्थ लोकतंत्र के लिए स्वस्थ और सजह सहभागिता की जरूरत से इनकार नहीं किया जा सकता।