यूं जश्न मनाना जल्दबाज़ी तो नहीं?

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सुप्रीम कोर्ट में हाल में तीन महिलाओं को जज बनाया गया । मीडिया की कई रिपोर्टों में इनमें से एक जज जस्टिस बीवी नागरत्न के बारे में बताया गया कि वे एक दिन देश की पहली महिला मुय न्यायाधीश बन सकती हैं। इसलिए उनकी नियुक्ति को देश के लिए एक ऐतिहासिक पल बताया गया। इन तीन महिला जजों- जस्टिस हिमा कोहली, जस्टिस बेला एम. त्रिवेदी और जस्टिस बीवी नागरत्न ने 1 सितंबर को अपने पद की शपथ ली। उस दौरान देश के मुय न्यायाधीश एनवी रमन्ना की एक तस्वीर सोशल मीडिया पर काफ़ी शेयर की गई और इसे अख़बारों के पहले पन्नों पर भी जगह मिली। इस तस्वीर में वे सुप्रीम कोर्ट की मौजूदा चारों महिला जजों के साथ खड़े हैं। इनमें से तीन तो सुप्रीम कोर्ट में नई बनी जज हैं, तो एक जस्टिस इंदिरा बनर्जी हैं, जो 2018 से देश की शीर्ष अदालत में कार्यरत हैं। केंद्रीय क़ानून मंत्री किरेन रिजिजू ने इसे जेंडर प्रतिनिधित्व के लिहाज से एक ऐतिहासिक पल बताया। अमेरिका में भारत के राजदूत तरनजीत सिंह संधू ने इस बारे में लिखा कि देश के लिए यह गर्व का क्षण है। इसके अलावा, कई और लोगों ने नए जजों को उनके जीवन के इस यादगार दिन पर बधाई दी और ट्वीट किए।

नियुक्ति प्रतीकात्मक ही हैं: देश की शीर्ष अदालत में लैंगिक अंतर को पाटने वाली इन नियुक्तियों का नि:संदेह स्वागत होना चाहिए. लेकिन आलोचकों का कहना है कि इसे लेकर जश्न मनाना अभी जल्दबाज़ी होगी, जब तक देश की न्यायपालिका में लैंगिक असंतुलन को ठीक नहीं किया जाता। एक रिटायर्ड जज ने इस बारे में हाल में सुप्रीम कोर्ट को ओल्ड बॉयज़ लब करार दिया था। सुप्रीम कोर्ट की वरिष्ठ वकील स्नेहा कलीता ने कहा कि देश की संभावित पहली महिला मुख्य न्यायाधीश पर इस तरह का उत्साह दिखाना ग़लत था। अगर सब कुछ तय योजना के अनुसार हुआ भी, तो जस्टिस नागरत्न के सुप्रीम कोर्ट का नेतृत्व करने की बारी उनके रिटायर होने के महज़ एक महीने पहले 2027 में आएगी। इस बारे में स्नेहा कलीता कहती हैं, एक महिला का मुख्य न्यायाधीश बनना जश्न का विषय होगा, लेकिन ये नियुक्ति सिर्फ प्रतीकात्मक ही होगी। इसका कोई ख़ास प्रभाव नहीं होगा। वे कहती हैं, जब कोई नया मुख्य न्यायाधीश अपना पद संभालता है, तो उन्हें व्यवस्थित होने के लिए कुछ समय चाहिए। पहले दो महीने आम तौर पर प्रशासनिक कामों में बीत जाते हैं। ऐसे में वे एक महीने में क्या करेंगी? वो केवल नाम की मुख्य न्यायाधीश होंगी। महज़ 11 फ़ीसदी महिला जज: स्नेहा कलीता महिला वकीलों के एक संघ की सदस्य हैं।

उन्होंने अदालतों में महिलाओं के उचित प्रतिनिधित्व की मांग करने वाली एक याचिका सुप्रीम कोर्ट में दायर कर रखी है। 1950 में सुप्रीम कोर्ट की स्थापना होने के बाद देश को पहली महिला जज मिलने में 39 साल लग गए थे। इस तरह, 1989 में जस्टिस फातिमा बीवी के रूप में पहली महिला जज सुप्रीम कोर्ट में पहुँची थीं। 2018 में उन्होंने न्यूज वेबसाइट स्क्रॉल को बताया था, मैंने एक बंद दरवाज़े को खोला था। हालाँकि बाधाएँ अभी तक बनी हुई हैं। सुप्रीम कोर्ट के पिछले 71 सालों के इतिहास में 256 नियुक्त जजों में से केवल 11 (4.2 फ़ीसदी) महिला हैं। वर्तमान में सुप्रीम कोर्ट में 34 जज हैं. इनमें से केवल चार (11.76 फ़ीसदी) महिलाएँ हैं। हालाँकि इससे पहले यहाँ एक साथ कभी भी इतनी महिला जज नहीं रहीं। वहीं राज्यों के 25 उच्च न्यायालयों के 677 जजों में से 81 (11.96 फ़ीसदी) महिला जज हैं। इनमें से पाँच हाईकोर्ट में एक भी महिला जज नहीं हैं। आधी आबादी के लिए आधे जज क्यों नहीं: स्नेहा कलीता कहती हैं, उच्च न्यायपालिका में महिलाओं का प्रतिनिधित्व लगभग न के बराबर है। हम जब भारत की आधी आबादी का प्रतिनिधित्व करती हैं, तो हमारे लिए न्यायपालिका में आधी सीटें क्यों नहीं हैं? उन्होंने कहा कि जजों की नियुक्ति करने वाले कॉलेजियम को अगर जि़ला अदालतों के लिए पर्याप्त योग्य महिला जज नहीं मिलती हैं, तो उन्हें सुप्रीम कोर्ट में प्रैटिस कर रही वकीलों में से चुना जाना चाहिए।

जहाँ बहुत योग्य महिला वकील हैं। हाल में मुख्य न्यायाधीश जस्टिस रमन्ना सहित कई जजों और क़ानूनी विशेषज्ञों ने अधिक महिला जज बनाने की अपील की है। जस्टिस रमन्ना ने इस महीने की शुरुआत में कहा कि आज़ादी के 75 साल बाद, न्यायपालिका के सभी स्तरों पर महिलाओं के लिए कम से कम 50 फ़ीसदी प्रतिनिधित्व की उम्मीद की जाएगीलेकिन बड़ी मुश्किल से, हम अब जाकर उन्हें सुप्रीम कोर्ट में केवल 11 फीसद का प्रतिनिधित्व दे पाए हैं। उन्होंने कहा कि इस मुद्दे पर ध्यान देने और विचारविमर्श करने की ज़रूरत है। ब्रिटेन में, 32 फ़ीसदी जज महिलाएँ हैं, जबकि अमेरिका में यह हिस्सा 34 फ़ीसदी का है। वहीं इंटरनेशनल कोर्ट ऑफ़ जस्टिस में कुल 15 में से तीन जज महिलाएँ हैं, जो फ़ीसदी में 20 ठहरता है। पिछले साल दिसंबर में, देश के अटॉर्नी जनरल केके वेणुगोपाल ने सुप्रीम कोर्ट से कहा था, यौन हिंसा से जुड़े मामलों में अधिक संतुलित और सहानुभूतिपूर्ण नज़रिए के लिए अधिक महिलाओं को जज बनाया जाना चाहिए। वेणुगोपाल ने यह सलाह तब दी थी, जब किसी हाईकोर्ट के एक पुरुष जज ने एक महिला को परेशान करने के अभियुक्त को मिठाई के साथ महिला के घर जाने और उससे माफ़ी मांगने का आदेश दिया था।

महिला वकीलों ने ऐसे आदेशों को अदालतों में बार-बार चुनौती दी है, जब जजों ने किसी पीडि़ता को शर्मसार किया हो या बलात्कार के मामले में पीडि़ता को समझौता करने का सुझाव दिया। महिला जज से ही सारे मसले हल नहीं हो जाएँगे: हालाँकि लैंगिक मामलों के जानकारों का कहना है कि अधिक संख्या में महिलाओं के जज बन जाने से ही ज़रूरी नहीं कि ऐसी कुप्रथा ख़त्म हो जाए। न्यूज़ वेबसाइट आर्टिकल 14 की जेंडर एडिटर नमिता भंडारे ने हाल में अंग्रेजी दैनिक द हिंदुस्तान टाइम्स में लिखा- महिला जज हमेशा अपने जेंडर के प्रति जुड़ाव नहीं रखतीं। वे कहती हैं, एक महिला जज ने ही 39 साल के एक अभियुक्त को एक बच्चे के यौन उत्पीडऩ के आरोप से इसलिए बरी कर दिया था, कि उस मामले में त्वचा से त्वचा का संपर्क नहीं हुआ था।

वहीं देश के पूर्व मुय न्यायाधीश रंजन गोगोई को यौन उत्पीडऩ के मामले में जिन तीन जजों ने बरी किया था, उनमें से दो महिलाएँ थीं। हालाँकि, नमिता भंडारे कहती हैं, न्यायपालिका उच्च वर्ग, मज़बूत जाति, बहुसंख्यक धर्म के पुरुषों के संरक्षण में नहीं रह सकती। वे कहती हैं हमारे लोकतंत्र को जीवंत बनाने वाली आवाज़ों के लिए जगह बनाने की खातिर इसके दरवाज़े खोले जाने चाहिए। इस बारे में स्नेहा कलीता कहती हैं कि यह समझते हुए भी कि सभी महिलाएँ बेहतर जज हों, ज़रूरी नहीं, क़ानून के पेशे में शामिल होने के लिए और अधिक महिलाओं को प्रोत्साहित करना चाहिए। उन्होंने कहा, अगर हम एक आज़ाद देश की तलाश में हैं, तो हमारी न्यायपालिका में भी लैंगिक समानता होनी चाहिए। वे कहती हैं, शीर्ष अदालतों में अधिक महिला जजों के होने पर अधिक महिलाओं को क़ानून के क्षेत्र में आने के लिए प्रेरित किया जा सकेगा और जब अदालत में लैंगिक समानता होती है तो समाज को बहुत लाभ होता है।

गीता पांडे
(लेखिका कानूनविद और वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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