एंजेला मर्केल : राजनीति से विदाई

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जर्मनी की राजनीति का एक युग ख़त्म होने जा रहा है. बर्लिन की दीवार गिरने के बाद 35 साल की जिस महिला ने संयुक्त जर्मनी की सूरत बदलने और उसे एक नए मुकाम तक पहुंचाने में अपना अहम योगदान दिया, दुनिया की ताकतवर महिला कहलाने वाली उसी महिला ने अब राजनीति को अलविदा कह दिया है. वहां 26 सितम्बर को संसदीय चुनाव हैं और 16 साल में यह पहली बार है कि जब चांसलर एंजेला मर्केल इस बार चुनाव-मैदान में नहीं हैं .चुनाव नहीं लड़ने का फैसला करने के बाद, वह अपनी मर्जी से सत्ता छोड़ने वाली देश की पहली प्रधानमंत्री होंगी.

राजनीति से संन्यास लेने का उनका ऐलान सिर्फ जर्मनी के लिए ही नहीं बल्कि दुनिया के कई मुल्कों के लिए एक बड़ी घटना है. कूटनीतिक रिश्ते बनाने और निभाने में उनका कोई सानी नहीं रहा. उन्हें कई बार दुनिया की सबसे शक्तिशाली महिलाओं में नामित किया गया है. भारत से लेकर अमेरिका तक उनके रिश्तों की मिठास का ही ये जादू था कि पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा अन्तराष्ट्रीय मंचों पर उनके सबसे बड़े वकील बन गए थे, जो कहते थे कि वे एक उत्कृष्ट वैश्विक राजनेता हैं.

एंजेला मर्केल 2005 से चांसलर के पद पर काबिज हैं. हालांकि दो साल पहले ही उन्होंने कह दिया था कि वह अगली बार चांसलर नहीं बनना चाहतीं लेकिन फिर भी उनके समर्थकों को उम्मीद थी कि वे एन वक़्त पर इसके लिए तैयार हो जायेंगी. लेकिन ऐसा नहीं हुआ और चुनाव पूर्व के विश्लेषण बता रहे हैं कि अब इसका नुकसान उनकी पार्टी को उठाना पड़ सकता है.

द्वितीय विश्व युद्ध के बाद जर्मनी के यह 20वें ससंदीय चुनाव होंगे. देश में हर चार साल बाद संसदीय चुनाव कराए जाते हैं. संसद का निचला सदन अथवा बुंदेस्ताग ही चांसलर का चुनाव करता है. जर्मनी में भारत जैसी संसदीय व्यवस्था तो है लेकिन चांसलर का चुनाव भारत के प्रधानमंत्री से बिल्कुल अलग है.

विश्लेषक मानते हैं कि मर्केल के राजनीतिक करियर का सबसे निर्णायक क्षण 2015 में आया,जब यूरोप में आने वाले शरणार्थियों की संख्या में अचानक वृद्धि होने लगी. इसमें कई वे थे, जो सीरिया में हुए गृहयुद्ध से भाग रहे थे और समुद्र के रास्ते यूरोप की खतरनाक यात्रा कर वहां पहुंच रहे थे. तब मर्केल ने उनके लिए जर्मनी के दरवाजे खोल दिये. उस वर्ष अगस्त में एक शरणार्थी केंद्र की यात्रा के बाद उन्होंने अपनी जनता को आश्वासन देते हुए कहा था कि “विर स्काफेन दास” यानी “हम यह कर सकते हैं.” वैसे जलवायु को लेकर किये गए उनके प्रयासों की भी दुनिया भर ऐन सराहना हुई है. यहां तक कि उन्हें ‘क्लाइमेट चांसलर’ के नाम से पुकारा जाने लगा था.

साल 1989 में बर्लिन की दीवार का गिरना ही वह समय था जिसने कम्युनिस्ट पूर्वी जर्मनी के एक पादरी की बेटी मर्केल के लिए राजनीति की दुनिया खोल दी. उस पल को याद करते हुए 2019 में हार्वर्ड विश्वविद्यालय में दिए एक भाषण में मर्केल ने बताया था कि कैसे वह एक वैज्ञानिक संस्थान में काम खत्म करने के बाद घर जाने के लिए हर दिन उस दीवार के पार चली जाती थी.

तब वह 35 वर्ष की थीं, जब शीत युद्ध का सबसे स्थायी प्रतीक मानी जाने वाली ये दीवार नाटकीय रूप से टूट गई. अपने भाषण में उन्होंने कहा था, “जहां एक बार केवल एक अंधेरी दीवार थी, एक दरवाजा अचानक खुल गया. मेरे लिए भी उस दरवाजे से चलने का समय आ गया था. उस समय मैंने एक वैज्ञानिक के रूप में अपना काम छोड़ दिया और राजनीति में प्रवेश किया. वह एक रोमांचक और जादुई समय था.”

मीडिया विश्लेषणों के मुताबिक जर्मनी के चुनाव में चांसलर पद के तीन प्रमुख उम्मीदवारों के बीच रविवार को हुई तीसरी बहस में सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी (एसपीडी) के नेता ओलफ शोल्ज विजयी रहे हैं. इससे पहले से ही मजबूत बढ़ा चुके शोल्ज की स्थिति और मजबूत होने की संभावना है. जबकि एंजेला मर्केल की क्रिश्चियन डेमोक्रेटिक पार्टी (सीडीयू) के नेता अमरिन लैशेट और ग्रीन पार्टी की नेता अनालीना बेयरबॉक ने शोल्ज पर कड़े हमले किए. लेकिन शोल्ज ने उनके हमलों को नाकाम करते हुए बढ़त बना ली है.

जर्मनी के सरकारी मीडिया डॉयचे वेले (डीडब्ल्यू) की एक खबर के मुताबिक इस बार जर्मनी में पिछले चुनाव की तुलना में 13 लाख कम मतदाता हैं. लेकिन अधिकांश मतदाताओं की उम्र 50साल से अधिक उम्र के हैं. जर्मनी में इस बार छह करोड़ 40 लाख लोग वोट डालेंगे.

डीडब्ल्यू के विश्लेषण के मुताबिक मतदाताओं की संख्या घटने की वजह देश में जन्म से ज्यादा हो रही मौतें हैं, जो एक गंभीर सामाजिक समस्या है. इसके मुताबिक आव्रजन के कारण जर्मनी की आबादी स्थिर तो दिखती है लेकिन आव्रजकों में ऐसे लोगों की संख्या काफी है, जिन्हें वोट डालने का अधिकार हासिल नहीं है.

दुनिया में अडोल्फ हिटलर के कारनामों से पहचाने जाने वाले जर्मनी के इतिहास और वहां की राजनीति को बदलने में एंजेला मर्केल ने जो बहादुरी दिखाई है, उसका जिक्र भविष्य में लिखे जाने वाले इतिहास के पन्नों में दर्ज होगा कि उन्होंने जर्मनी व यूरोप को पूर्व और पश्चिम के बीच एक सेतु के रूप में स्थापित करने के लिए क्या कुछ नहीं किया.

नरेंद्र भल्ला
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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