मुंह मीठा करने वालों की ही जेब खाली

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केंद्र सरकार ने आगामी वर्ष 2021-22 के लिए गन्ने का लाभकारी मूल्य घोषित किया है। इसमें 1.7 प्रतिशत यानी 5 रुपये प्रति क्विंटल का इजाफा करके इसे 290 रुपये प्रति क्विंटल निर्धारित किया गया है। जहां इसे लेकर किसानों में मायूसी है, वहीं चीनी मिल मालिकों ने अतिरिक्त बढ़ोतरी न किए जाने का स्वागत किया है। संयुक्त किसान मोर्चा के प्रमुख घटक भारतीय किसान यूनियन ने इसका विरोध कर आंदोलन चलाने की घोषणा भी की है।

गन्ने की फसल नकदी फसल कहलाती है यानी बेचते ही पैसा हाथ में आ जाना। ‘शुगर केन कंट्रोल ऑर्डर 1996’ जिसे भार्गव फॉर्म्युला कहा जाता है, उसके अनुसार गन्ना उत्पादक किसान जिस दिन गन्ना मिल के गेट पर पहुंचा देता है, उसके 14 दिन के अंदर उसे भुगतान हो जाना चाहिए है। इसके बाद लंबित भुगतान पर 15 प्रतिशत वार्षिक ब्याज लगने का प्रावधान है। उत्तर प्रदेश में इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ बेंच कई महत्वपूर्ण फैसले देकर भुगतान की तारीख तय कर चुकी है, लेकिन जिलों के अधिकारी और मिल मालिकों की मिलीभगत से यह संभव नहीं हो पाता है।

पिछले हफ्ते सुप्रीम कोर्ट ने पूर्व सांसद व किसान नेता राजू सेठी की याचिका का संज्ञान लेते हुए केंद्र और राज्य सरकारों को नोटिस भेजकर जवाब मांगा है। इसी का संज्ञान लेकर उत्तर प्रदेश सरकार के गन्ना आयुक्त ने मोदी नगर शुगर मिल, सिंभावली और बजाज शुगर मिल के लिए आरसी जारी करने का आदेश दिया है कि बकाया पेमेंट को लेकर उनकी संपत्ति कुर्क कर भुगतान किया जाए। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री ने किसान सम्मेलन में यह स्वीकार किया है कि लगभग 7000 करोड़ का बकाया दिलाने की कोशिश के साथ-साथ पराली जलाने के दौरान किए गए प्रदूषण के मुकदमों में राहत दी जाएगी। इन सबके बावजूद भुगतान को लेकर सरकारी घोषणाएं बेअसर हैं।

भारत विश्व में चीनी उत्पादन के क्षेत्र में दूसरे स्थान पर है। लगभग 5 करोड़ किसान और 40 लाख मजदूर इस उद्योग से अपनी जीविका चलाते हैं। यह उद्योग हर साल 1 लाख करोड़ की आमदनी पैदा करता है। भारत में 690 चीनी मिलें रजिस्टर्ड हैं। 1991 के आर्थिक उदारीकरण के चलते मुक्त बाजार के पक्षधर सरकार पर नीतियां बदलने का लगातार दबाव बनाते रहते हैं। बाजार में चीनी का 65 प्रतिशत इस्तेमाल पेय पदार्थ और कन्फेक्शनरी कंपनियां करती हैं। इससे इन्हें भारी मुनाफा होता है। शीरे के उत्पादन से भी मिल मालिकों को बेशुमार मुनाफा है। शराब बनाने वाली कंपनियां इसका भरपूर इस्तेमाल करती हैं। लेकिन सरकार शीरे के दाम भी नहीं बढ़ा रही है।

1952 से 1962 तक कृषि क्षेत्र में बजट का 35 प्रतिशत का आवंटन सुरक्षित रहता था और औद्योगिक क्षेत्र के लिए मात्र 15 प्रतिशत। लेकिन उद्योग एवं शहरों की प्राथमिकता के चलते कृषि बजट 15 प्रतिशत से भी नीचे चला गया और औद्योगिक क्षेत्र आवंटन 40 प्रतिशत से अधिक हो गया। 2014 से 18 के बीच 57345 किसानों ने आत्महत्या की है। औसतन प्रतिदिन 31 किसानों की आत्महत्याएं होती हैं।

टाटा इंस्टिट्यूट की रिपोर्ट के मुताबिक, 2016-2020 के बीच खेती से जुड़ी आय में गिरावट आई है। बजट सत्र में कृषि मंत्री ने यह माना है कि किसान परिवार की मासिक आमदनी 6426 रुपये और मासिक खर्च 6223 रुपये दर्ज किया गया है। डीजल, बिजली, खाद्य, मजदूरी, कीटनाशक दवाइयों में बेतहाशा बढ़े दामों से लागत मूल्य काफी बढ़ चुका है। किसी भी हालत में यह मुनाफे का सौदा नहीं है। लखनऊ गन्ना रिसर्च इंस्टिट्यूट ने एक आकलन में 1 क्विंटल गन्ने की लागत 280 रुपये आंकी है जबकि शाहजहांपुर गन्ना शोध संस्थान के मुताबिक 1 क्विंटल गन्ने की लागत 301 रुपये है।

चुनाव वर्ष में मात्र 5 रुपये का इजाफा राजनीतिक और आर्थिक हितों के खिलाफ न जाए, लिहाजा राज्य सरकारों को 5 रुपये की जगह लगभग 50 रुपये क्विंटल की बढ़ोतरी करनी चाहिए। कोरोना काल में ग्रामीण क्षेत्र ने अपनी विकास दर 3.5 प्रतिशत के आसपास बनाए रखी है, जबकि बाकी सभी क्षेत्रों में चिंताजनक गिरावट है। लिहाजा देश की अर्थव्यवस्था के विकास की रीढ़ किसानों को अतिरिक्त प्रोत्साहन की काफी जरूरत है।

केसी त्यागी
(लेखक जदयू के वरिष्ठ नेता व पूर्व सांसद हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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