उत्तर प्रदेशः लोकसभा चुनाव 2019

0
414

इन सीटों से खुलेंगे संसद के कपाट

उत्तर प्रदेश के दो मुख्य विपक्षी नेता अखिलेश यादव और मायावती के साथ चुनाव लड़ने से उत्तर प्रदेश की राजनीति में नया मोड़ आ गया है क्योंकि 2014 में ऐसी कई सीटें थीं जहां इन दोनों पार्टियों के कुल वोट जीतने वाले उम्मीदवार से ज्यादा थे।

जानते हैं वे कौनसी सीटें हैं जिन पर इन चुनाव में लोगों की नजरें लगी होंगी। ये सीट पिछले कुछ लोकसभा चुनाव से बीजेपी की झोली में आती रही हैं। 1991 में पहली बार भाजपा के शिरीष चंद्र दीक्षित 41 फीसदी वोटों के साथ यहां से जीते थे। उसके बाद अगले तीन लोकसभा चुनाव में भी शंकर प्रसाद जायसवाल बड़े अंतर से जीतते रहे हैं। लेकिन एक बार 2004 में कांग्रेस के राजेश कुमार मिश्रा ने शंकर प्रसाद जायसवाल को हरा दिया था। फिर 2009 में बीजेपी के वरिष्ठ नेता मुरली मनोहर जोशी यहां से सांसद तो बने लेकिन 17,000 के बहुत ही कम वोटों के अंतर से। 2014 में मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने यहां से चुनाव लड़ा और पाँच लाख से भी ज्यादा वोट हासिल किए।् सपा, बसपा और कांग्रेस के उम्मीदवारों के कुल वोट दो लाख भी नहीं थे। आपको ये भी रोचक लगेगा कि जो जूता कांडः क्या ये यूपी बीजेपी में ब्राह्मण-क्षत्रिय वर्चस्व की लड़ाई है।

बिहार की वो सीटें जहां होगा दिलचस्प मुकाबला। इस बार लोकसभा चुनाव में ये चीजें पहली बार होंगी कांग्रेस की चैथी लिस्ट में शशि थरूर सहित 27 नाम हैं। इन चुनाव में दिल्ली के मौजूदा मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल भी नरेंद्र मोदी को चुनौती देते हुए वाराणसी से खड़े हुए थे और दूसरे स्थान पर रहे थे। इस बार उन्होंने साफ कर दिया है कि वे वाराणसी से लोकसभा चुनाव नहीं लड़ेंगे। इस क्षेत्र में लगभग ढाई लाख ब्राह्मण और डेढ़ लाख भूमिहार वोटर हैं, जिनके बारे में कहा जाता है कि वे बीजेपी को वोट करते हैं। वहीं अपना दल भी भाजपा के साथ गठबंधन में है तो तकरीबन डेढ़ लाख कुर्मियों के वोट की उम्मीद भी भाजपा करती है। दूसरी तरफ कांग्रेस को सपा-बसपा के गठबंधन से दूर रखा गया है तो यहां तीन लाख मुसलमान और यादव वोटरों के वोट बंट सकते हैं।

नगीना सीट, कयास लगाए जा रहे हैं कि इस बार मायावती इस लोकसभा सीट से चुनावी मैदान में उतरेंगी। फिलहाल, बसपा का कोई भी सांसद लोकसभा में नहीं है। मायावती जुलाई 2017 में राज्यसभा से इस्तीफा दे चुकी हैं। मायावती पहली बार 1989 में बिजनौर से सांसद बनीं थीं। उसके बाद अकबरपुर से भी सांसद चुनी जा चुकी हैं। लेकिन अब बिजनौर और अकबरपुर दोनों ही रिजर्व सीटें नहीं रहीं। नगीना में पहली बार 2009 में लोकसभा चुनाव हुए और ये अनुसूचित जाति के लिए रिजर्व सीट है। 2009 में सपा के यशवीर सिंह भारती काफी वोटों के अंतर से जीते थे।

2014 में ये सीट बीजेपी के यशवंत सिंह के पास चली गई। ये एक मुस्लिम बहुल क्षेत्र है और तकरीबन 21 फीसदी वोटर अनुसूचित जाति के हैं। इस क्षेत्र में पड़ने वाली विधानसभा सीटों का आकलन करें तो सभी 5 सीटों पर मुस्लिम वोटर 50 फीसदी से ज्यादा हैं। नतीजों को देखते हुए ये कहना गलत नहीं कि अगर इस सीट पर 2014 में सपा-बसपा साथ लड़ते तो जीत जाते। गाजियाबाद, ये लोकसभा सीट परिसीमन के बाद 2009 में अस्तित्व में आई। 2009 में यहां से राजनाथ सिंह सांसद बनें। 2014 में भाजपा ने वीके सिंह को मैदान में उतारा और कांग्रेस ने राज बब्बर को। वीके सिंह ने तकरीबन 5 लाख वोटों के अंतर से राज बब्बर को हराया था। कांग्रेस 30 ऐसी सीटों पर ध्यान दे रही है जहां 2014 में उसके उम्मीदवार ने एक लाख से ज्यादा वोट पाए।

गाजियाबाद भी एक ऐसी ही सीट है जहां राज बब्बर को 1 लाख 91 हजार के करीब वोट मिले थे। लखनऊ, प्रदेश की राजधानी होने की वजह से ये एक अहम सीट है। देश के गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने 2014 में यहीं से चुनाव लड़ा था और विजयी हुए थे। भारत के पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी 1951 से लेकर 2004 तक 8 बार यहीं से चुनाव लड़ते रहे और 5 बार जीते। सबसे बड़ी जीत इस सीट से भारतीय लोकदल पार्टी के हेमवती नंदन बहुगुणा को 1977 में मिली थी जब उन्होंने 72.99 फीसदी वोट हासिल किए थे। 1991 से यहां पर भाजपा का ही कब्जा रहा है।

प्रियंका गांधी ने भी अपनी सियासी पारी का आगाज यहां से रोड शो करके किया। इस सीट पर कांग्रेस प्रत्याशी रीता बहुगुणा जोशी दूसरे स्थान पर रही थीं लेकिन चुनाव के बाद वे बीजेपी में शामिल हो गईं। कांग्रेस को इस सीट के लिए बेशक किसी मजबूत उम्मीदवार की जरूरत होगी। रॉबर्ट्सगंज, इस लोकसभा क्षेत्र की खास बात ये है कि यहां नतीजा किसी भी पार्टी के हक में जा सकता है। मामला एकदम 50-50 का है। 1962 से लेकर अब तक यहां 15 लोकसभा चुनाव हुए हैं जिसमें 5 बार बीजेपी और 5 बार कांग्रेस को जीत मिली। लेकिन हां, कांग्रेस ने आखरी बार 1984 में यहां जीत का मुंह देखा था। ये एक रिजर्व संसदीय क्षेत्र है जिसमें 2014 में बीजेपी के छोटे लाल खरवार ने जीत दर्ज की थी। उन्होंने बसपा के शारदा प्रसाद को 1,90,486 वोटों के अंतर से हराया था। 2009 में ये सीट समाजवादी पार्टी के पास थी। छोटे लाल ने योगी आदित्यनाथ की शिकायत करते हुए प्रधानमंत्री को कई पत्र भी लिखे हैं।

हालांकि यूपी विधानसभा 2017 चुनाव में भी रॉबर्ट्सगंज विधानसभा सीट भाजपा को मिली। पिछले साल रॉबर्ट्सगंज रेलवे स्टेशन का नाम बदलकर सोनभद्र रेलवे स्टेशन भी कर दिया गया था जबकि सोनभद्र नाम की कोई जगह रॉबर्ट्सगंज जिले में नहीं है। इस संसदीय क्षेत्र में तकरीबन 23 फीसदी अनुसूचित जाति के लोग हैं। अगर 2014 में कांग्रेस, सपा और बसपा इस सीट पर एकसाथ लड़ते तो उनके कुल वोटों के योग के हिसाब से ये सीट बीजेपी के खाते में ना जाती। इन चुनाव में सपा-बसपा गठबंधन देखते हुए भी इस सीट के लिए मुकाबला दिलचस्प होगा। बिजनौर सीट की खास बात ये है कि इस सीट से कई बड़े नेता चुनाव लड़ चुके हैं। 1985 में पूर्व लोकसभा स्पीकर मीरा कुमार यहां से उपचुनाव जीत चुकी हैं।

1989 में बसपा प्रमुख मायावती यहां ये चुनाव जीतकर पहली बार सांसद बनीं थीं। यहां से लोक जनशक्ति पार्टी के प्रमुख रामविलास पासवान भी चुनाव लड़े हैं। 2014 में राष्ट्रीय लोकदल से जया प्रदा भी चुनाव लड़ी थीं लेकिन उन्हें बहुत ही कम वोट मिल पाए। यहां पर मुसलमान वोटरों की संख्या भी अच्छी-खासी है। इस संसदीय क्षेत्र में 5 विधानसभा सीटें हैं जो 2017 विधानसभा चुनावों में बीजेपी के हिस्से आईं थीं। 2014 लोकसभा चुनावों में भाजपा के कुंवर भारतेंद्र सिंह ने सपा के शाहनवाज राणा को दो लाख के भारी अंतर से हराया था। बसपा के मलूक नागर तीसरे नंबर पर रहे थे।् इस सीट पर 2014 में अगर सपा और बसपा साथ लड़ते तो उनके मत भाजपा से अधिक होते। बसपा ने 2019 लोकसभा के लिए पूर्व विधायक इकबाल ठेकेदार को मैदान में उतारा है।

बिजनौर में गन्ना किसानों का मुद्दा एक बड़ा चुनावी मुद्दा हो सकता है। यहां नौ चीनी मीलें हैं और किसान यहां काफी वक्त से आर्थिक तंगी झेल रहे हैं। कैराना, भाजपा के हुकुम सिंह ने 2014 में जीत दर्ज की थी लेकिन उनकी मृत्यु के बाद 2018 में राष्ट्रीय लोकदल की उम्मीदवार तबस्सुम हसन को जीत हासिल हुई। इस सीट पर जाट और मुस्लिम वोटर ज्यादा हैं। उनके खिलाफ हुकुम सिंह की बेटी मृगांका सिंह को उतारा गया था लेकिन वे सपा, बसपा और कांग्रेस के एकजुट विपक्ष के सामने जीत ना सकीं। वे 44,618 वोटों से हार गईं। जबकि 2014 में वोट मार्जिन 2.45 लाख वोटों का था। अगर तब सारे विपक्ष के वोट भी मिलाते तो भी जीत भाजपा के हुकुम सिंह की ही तय थी।

ये क्षेत्र तब भी सुर्खियों में आया था जब 2016 में दिवंगत सांसद हुकुम सिंह ने दावा किया था कि हिंदू परिवार डर कर कैराना से पलायन कर रहे हैं। लेकिन इस मुद्दे से भाजपा को उपचुनाव में कोई फायदा नहीं हुआ। अजीत सिंह की राष्ट्रीय लोकदल पार्टी भी सपा-बसपा गठबंधन का हिस्सा है। पार्टी का प्रभाव कम से कम 10 लोकसभा सीटों पर है। फतेहपुर सीकरी, मथुरा, अलीगढ़, हाथरस, बागपत, कैराना, बिजनौर, गाजियाबाद, मेरठ और मुजफ्फरनगर, रामपुर इस सीट पर 50 फीसदी से ज्यादा मुसलमान वोटर हैं। यूं तो ये क्षेत्र सपा के नेता आजम खान का गढ़ माना जाता है लेकिन 2014 में भाजपा के नेपाल सिंह यहां

से सांसद बने। 1952 में यहां से कांग्रेस नेता डॉक्टर अबुल कलाम आजाद ने जीत दर्ज की थी।् इस सीट पर ज्यादातर कांग्रेस का ही दबदबा रहा था।् कांग्रेस के जुल्फिकार अली खान ने लगातार यहां से तीन बार चुनाव जीता और कुल पांच बार सांसद रहे। 2004 और 2009 में समाजवादी पार्टी की तरफ से जया प्रदा यहां से सांसद चुनी गईं थीं। इस लोकसभा क्षेत्र में कुल पांच विधानसभा सीटें आती हैं। चमरौआ, सुआर, रामपुर, मिलक और बिलासपुर, 2017 विधानसभा चुनावों में यहां बिलासपुर और मिलक सीट पर बीजेपी जीती और बाकी तीन पर समाजवादी पार्टी इस समीकरण के मद्देनजर इस बार इस लोकसभा सीट पर सपा-बसपा गठबंधन के लिए अच्छा मौका हो सकता है।

– सुदेश वर्मा

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here