केंद्र की मोदी सरकार ने देश की परिसंपत्तियों को एक तरह से निजी हाथों में गिरवी रखने के बहाने 6 लाख करोड़ रुपये जुटाने की जो नई योजना पेश की है. अब सवाल ये है कि क्या उसे लागू करना इतना आसान होगा? हालांकि सरकार ने इसे नेशनल मोनेटाइजेशन पाइपलाइन (एनएमपी) प्रोग्राम का नाम देते हुए यही सफाई दी है कि इन संपत्तियों की ज़मीन को बेचा नहीं जा रहा है.
वहीं, विपक्ष जिस तरह से इस मुद्दे पर हमलावर हुआ है उससे देश की जनता में सरकार की विश्वसनीयता को लेकर सवाल खड़े हो सकते हैं और लोगों को ये पूछने का मौका मिल सकता है कि आखिर इसके पीछे माजरा क्या है. सरकार जो कह रही है, वहीं सच है या विपक्ष जो दावा कर रहा है, उसमें भी कोई सच्चाई है.
वैसे इसे विनिवेश यानी डिसइंवेस्टमेंट का नाम नहीं दिया गया है क्योंकि उसका मतलब साफ है कि घाटे में चल रहे सरकारी संस्थानों को जमीन समेत प्राइवेट हाथों को बेचा जा रहा है. वहीं मुख्य विपक्षी कांग्रेस का आरोप है कि सरकार का मकसद है तो वहीं सिर्फ उसका नाम बदल दिया गया है और उसकी मियाद चार साल की कर दी गई है. सो, देर-सवेर इन सभी संपत्तियों के असली मालिक निजी औद्योगिक घराने ही होंगे.
हालांकि घाटे में चल रहे सरकारी उपक्रमों का विनिवेश करके सरकारें पहले भी अपना खजाना भरती रही हैं, जिसके लिए उन्हें विपक्ष की तीखी आलोचना भी झेलनी पड़ी हैं. अटल बिहारी वाजपेयी सरकार ने भी इसी विनिवेश के नाम पर सरकार के स्वामित्व वाले कई पांच सितारा होटलों को बेहद कम कीमत पर निजी घरानों को बेच दिया था जिसके लिए तत्कालीन विनिवेश मंत्री अरुण शौरी को संसद के भीतर व बाहर विपक्ष के तीखे हमलों का शिकार होना पड़ा था.
लेकिन यहां मामला थोड़ा पेचीदा इसलिए दिख रहा है क्योंकि विनिवेश भले ही नहीं किया जा रहा लेकिन चार साल की समयावधि में सरकार अपनी कमाई का तय लक्ष्य अगर पूरा नहीं कर पाई, तब क्या होगा? तब सरकार वापस उसे अपने हाथ में लेगी या लक्ष्य पूरा करने के लिए उस संपत्ति की जमीन भी निजी हाथों को बेचना ही उसकी मजबूरी बन जायेगी? इस महत्वपूर्ण बिंदु पर सरकार की तरफ से विस्तार से कोई खुलासा नहीं किया गया है, लिहाज़ा माना जा रहा है कि इस प्रोग्राम में यही वो पेंच है जिसे लेकर कांग्रेस को आशंका है कि सरकारी संपत्तियां बेचने का ये एक नया तरीका निकाला गया है.
हालांकि सरकार का दावा है कि संपत्तियां बेचकर पैसा जुटाने के इस प्रोग्राम में कहीं भी जमीन की बिक्री शामिल नहीं है. वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने नेशनल मोनेटाइजेशन पाइपलाइन प्रोग्राम का ऐलान करते हुए बताया था कि इन इंफ्रास्ट्रक्चर एसेट में रेल, सड़क, बिजली क्षेत्र से लेकर टेलीकॉम, वेयरहाउसिंग, एयरपोर्ट, पोर्ट, माइनिंग और स्टेडियम तक शामिल हैं. लेकिन साथ ही ये भी स्पष्ट कर दिया था कि एसेट्स के मोनेटाइजेशन (संपत्तियां बेचकर पैसा जुटाना) में जमीन की बिक्री शामिल नहीं है.
यह मौजूदा संपत्तियों (ब्राउनफील्ड एसेट्स) की बिक्री से जुड़ा प्रोग्राम है.उन्होंने ये भी साफ किया है कि ओनरशिप सरकार की ही रहेगी लेकिन बड़ा सवाल ये है कि अगर सरकार अपनी तिजोरी नहीं भर पाई,तब अपना मालिकाना हक बेचने से उसे कौन रोक पायेगा?
हालांकि विपक्ष किसी भी सूरत में सरकार के दावे पर भरोसा करने को तैयार नहीं है और उसके तेवरों से लगता है कि आने वाले दिनों में वो इसे एक बड़ा मुद्दा बनाने की तैयारी में है. इसीलिए कांग्रेस ने इसे सबसे पहले लपक लिया और राहुल गांधी ने अपनी प्रेस कांफ्रेंस में सरकार को घेरने में कोई कसर बाकी नहीं रखी. उनकी इस एक बड़ी आशंका को दूर करने के लिए सरकार की तरफ से ठोस जवाब आना चाहिए, ताकि देश की जनता में जो भ्रम की स्थिति बन रही है उसे दूर किया जा सके.
राहुल ने कहा है कि,” इस एकाधिकार से बड़ा नुकसान होने के आसार हैं जिसका सबसे बड़ा खामियाजा छोटे उद्योगों को भुगतना पड़ेग क्योंकि उन पर ताले लग जाएंगे. जैसे ही एकाधिकार बनता जाएगा,उसी तेजी से लोगों को रोजगार मिलना बंद हो जाएगा. सिर्फ तीन-चार औद्योगिक घरानों के हाथों में ही सब कुछ होगा, जो बेहद सीमित मैनपॉवर से ही अपना काम चलाने में सक्षम होंगे.”
हालांकि केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी ने राहुल पर पलटवार करते हुए कहा है कि, “जिन्होंने देश की संपत्ति बेची, वह आज हम पर आरोप लगा रहे हैं, उन्होंने आज अपना दोहरापन दिखाया है. पारदर्शिता के साथ जिस सरकार ने राष्ट्र की तिजोरी को भरने का काम किया और कांग्रेस के लुटेरों से सुरक्षित किया, उस सरकार पर छींटाकशी करने का राहुल गांधी का ये असफल प्रयास है.”
लेकिन सरकार को इस बारे में गंभीरता से सोचना होगा और लोगों के बीच ये भरोसा पैदा करना होगा कि इस प्रोग्राम के लागू होने से उनका रोजगार नहीं छीना जाएगा. वैसे भी अगले छह महीनों में उत्तरप्रदेश समेत पांच राज्यों में विधानसभ चुनाव होने हैं,लिहाज़ा अगर सरकार की नीयत साफ है,तो उसे विपक्ष पर प्रत्यारोप लगाने की बजाय उसके आरोपों का करारा जवाब देने से बचना नहीं चाहिए.
नरेन्द्र भल्ला
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)