नाम लेने से क्यों बच रही है मोदी सरकार ?

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तालिबान को लेकर भारतीय विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता का इतना सा ही संक्षिप्त बयान है कि भारत सभी हिस्सेदारों से बात कर रहा है. इससे ज़्यादा कुछ नहीं कहा जा सकता है. अफगानिस्तान की घटना से रूबरू कोई भी दर्शक यह समझ सकता है कि सभी हिस्सेदारों का मतलब तालिबान भी है. तालिबान को छोड़ कर सभी हिस्सेदार नहीं हो सकते हैं. इस वक्त अफगानिस्तान में तालिबान ही मुख्य किरदार है और उसका नाम लिए बिना या उससे बात किए बिना क्या सभी हिस्सेदारों से बातचीत की बात पूरी लगती है? नहीं लगती है. भारत को तालिबान का नाम लेने में इतना संकट क्यों है, जबकि दुनिया के कई देश तालिबान का नाम लेकर बयान दे रहे हैं. कनाडा ने जैसे कह दिया कि तालिबान को मान्यता देने के बारे में कोई विचार नहीं है. भारत यही बता दे कि तालिबान के अलावा वहां और कौन हिस्सेदार हैं.

भारत की चुप्पी के कूटनीतिक कारण हो सकते हैं लेकिन तालिबान का नाम न लेने का कारण समझ नहीं आ रहा है. एक साल पहले पूर्वी लद्दाख की सीमा पर चीन के साथ संघर्ष में भारतीय सैनिक भी शहीद हुए थे. उस घटना के बाद जब नियंत्रित मीडिया की चुप्पी से यह संदेह गहराया कि आखिर हुआ क्या है तब अपने बयान में प्रधानमंत्री ने चीन का नाम तक नहीं लिया था. इतना कहा था कि “चाहे स्थिति कुछ भी हो, परिस्थिति कुछ भी हो, भारत पूरी दृढ़ता से देश की एक एक इंच जमीन की, देश के स्वाभिमान की रक्षा करेगा.” काफी आलोचना हुई थी कि प्रधानमंत्री ने चीन का नाम क्यों नहीं लिया. चीन के साथ जिस विवाद को लेकर इंकार किया गया, वो विवाद एक साल से चला ही आ रहा है. न जाने कितनी बार इसके सुलझ जाने की ख़बर छप चुकी है. इस 15 अगस्त को जब प्रधानमंत्री ने राष्ट्र को संबोधित किया तब भी उन्होंने अफगानिस्तान संकट का ज़िक्र करना ज़रूरी नहीं समझा जबकि उस संकट का संबध विस्तारवाद से भी है और आतंकवाद से भी है.

आज जब दुनिया की ताकतें तालिबान को लेकर अपना पक्ष रख रही हैं भारत क्या सोच रहा है इसका पता नहीं चल रहा है. 15 अगस्त का ज़िक्र इसलिए भी किया क्योंकि 2016 के 15 अगस्त को प्रधानमंत्री ने लाल किले से अपने भाषण में बलूचिस्तान का नाम लेकर चौंका दिया था. गिलगित और पाक अधिकृत कश्मीर का भी नाम लिया था. वहां के लोगों को बधाई के लिए आभार दिया था.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था, “मैं आज लालकिले की प्राचीर से कुछ लोगों का विशेष अभिनन्दन और आभार व्यक्त करना चाहता हूं. पिछले कुछ दिनों से बलूचिस्तान के लोगों ने, के लोगों ने, पाक कश्मीर के लोगों ने, वहां के नागरिकों ने जिस प्रकार से मुझे बहुत-बहुत धन्यवाद दिया है, जिस प्रकार से मेरा आभार व्यक्त किया है, मेरे प्रति उन्होंने जो सद्भावना जताई है, दूर-दूर बैठे हुए लोग जिस धरती को मैंने देखा नहीं है, जिन लोगों के विषय में मेरी कभी मुलाकात नहीं हुई है, लेकिन ऐसे दूर सुदूर बैठे हुए लोग हिन्दुस्तान के प्रधानमंत्री को अभिनन्दन करते हैं, उसका आदर करते हैं, तो मेरे सवा सौ करोड़ देशवासियों का आदर है, वो मेरे सवा सौ करोड़ देशवासियों का सम्मान है. और इसलिए ये सम्मान का भाव, धन्यवाद का भाव करने वाले बलूचिस्तान के लोगों का, Gilgit के लोगों का, पाक के कब्जे वाले कश्मीर के लोगों का मैं आज तहे दिल से आभार व्यक्त करना चाहता हूं.”

इसका उल्लेख इसलिए किया ताकि यह साफ हो सके कि भारत के हित केवल अफगानिस्तान से ही नहीं जुड़े हैं बल्कि अफगानिस्तान और ईरान की सीमा से लगे बलूचिस्तान से भी जुड़े हैं. ग्वादर बलूचिस्तान में है जहां पाकिस्तान चीन की मदद से बंदरगाह बना रहा है. उसी के करीब है चाबहार जहां भारत अपना बंदरगाह बना रहा है. इसलिए प्रधानमंत्री का पुराना भाषण याद आया जिसे मीडिया भूल गया है. 2016 में मीडिया ने बलूचिस्तान के ज़िक्र को प्रधानमंत्री मोदी के आक्रामक नीति के रूप में देखा था. वैसे इन दिनों प्रधानमंत्री विस्तारवाद के खिलाफ भाषण दे रहे हैं.

उस साल बलूचिस्तान के ज़िक्र को नवभारत टाइम्स ने हेडलाइन बनाया कि पाकिस्तान नीति में बड़ी शिफ्ट आ गई है. फिर उसके बाद उस साल की तरह बलूचिस्तान का ज़िक्र नहीं आया. बलूचिस्तान की हेडलाइन विलुप्त हो गई. ऐसी हेडलाइन से मीडिया प्रधानमंत्री की नीतियों को आक्रामक तौर पर पेश कर रहा था. पत्रिका अखबार ने हेडलाइन लगा दी कि क्या अलग हो जाएगा बलूचिस्तान? मोदी ने रखा दुखती रग पर हाथ तो PAK में मची खलबली. पत्रिका की एक और हेडलाइन थी- POK-बलूचिस्तान को लेकर भारत-PAK आमने-सामने. हिन्दी मीडिया ने लिखा कि पाकिस्तान की दुखती रग है बलूचिस्तान, जिस पर PM मोदी ने रख दिया है हाथ. तब पाकिस्तान ने बताया था कि भारत उसके आंतरिक मामलों में दखल दे रहा है. अंग्रेज़ी मी़डिया ने भी बलूचिस्तान के ज़िक्र को गेम चेंजर बताया. खेल के नियम बदलने वाला एलान. अब बलूचिस्तान को लेकर दिया गया बयान विस्तारवाद की परिभाषा में आता है या नहीं ये विद्वान तय करें लेकिन अगर प्रधानमंत्री बलूचिस्तान को लेकर बोल सकते हैं तो अफगानिस्तान को लेकर क्यों नहीं. हमारा सवाल छोटा सा है.

इन उदाहरणों से पता चलता है कि भारत इस इलाके में हो रही गतिविधियों पर नज़र रखता है और उसके हित प्रभावित होते हैं. 16 दिसंबर 2014 को पाकिस्तान के पेशावर में सेना के एक स्कूल पर आतंकवादी हमला हुआ था. क़रीब 150 लोग मारे गए थे. मारे गए लोगों में क़रीब 135 बच्चे थे. स्कूल सैनिक इलाके में मौजूद था. तब बताया गया था कि पाकिस्तान में तालिबान का यह अब तक का सबसे ख़ूख़ांर हमला है. इस हमले में तहरीक-ए तालिबान, पाकिस्तान का हाथ बताया गया था. इस आतंकी संगठन ने 2013 में भी पेशावर के एक चर्च पर हमला कर दिया था जिसमें 80 लोगों की मौत हो गई थी. अब यही तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान, अफगानिस्तान के तालिबान को बधाई दे रहा है. इस घटना के समय दुनिया भर के नेताओं के साथ प्रधानमंत्री मोदी ने भी निंदा की थी. लेकिन वे इस घटना का ज़िक्र 15 अगस्त 2016 के भाषण में विस्तार से करते हैं जिस भाषण में बलूचिस्तान का करते हैं. इस बयान में प्रधानमंत्री आतंकवाद से प्रेरित सरकारों की बात करते हैं. इससे यह भी पता चलता है कि दूसरे देश की सरकार कैसी है, इस पर जब बोलना होता है तब बोलते ही हैं.

क्या प्रधानमंत्री के लिए तालिबान की सरकार आतंकवाद से प्रेरित सरकार होगी? क्या वे देखते हैं कि काबुल में जो नई सरकार आ रही है उससे आतंकी गतिविधियों को समर्थन मिल सकता है? बलोची का एक शब्द है चाबहार, जिसका मतलब है चार बहारें, क्यूंकि यहां हर मौसम बहार जैसा होता है. ईरान के चाबहार में बन रहे बंदरगाह के भविष्य को लेकर भी सवाल उठ रहे हैं. भारत ने जितना निवेश किया है क्या वह सुरक्षित है? मनसुख मंडाविया जो इस वक्त स्वास्थ्य मंत्री हैं तब बंदरगाह मामलों में राज्य मंत्री थे. मार्च महीने की बात है. तब उन्होंने रायटर से कहा था कि ”मैं अप्रेल या मई महीने में ईरान जा कर चाबहार बंदरगाह के पूर्ण संचालन का उद्घाटन करने वाला हूं.”

इसके बाद मैं मई की खबरों को सर्च करने लगा कि मंत्री जी चाबहार पोर्ट के टर्मिनल के उदघाटन के लिए गए थे या नहीं. उनके नाम से सर्च करने पर अब यही मिलता है कि वे बंदरगाहों के मंत्री से स्वास्थ्य मंत्री हो गए हैं. उनका पोर्ट बदल गया है. अचानक से कूटनीतिक मामलों में कूद पड़ने के कारण संभव है मुझसे कुछ चूक हो रही हो लेकिन चाबहार बंदरगाह से जुड़ी छपी हुई ख़बरों और विश्लेषणों को पढ़ते हुए यही लगा कि यह प्रोजेक्ट अब हाथ से जाता दिख रहा है जिसे धूमधाम के साथ करार के वक्त ऐतिहासिक बताया गया था. इससे आप यह भी समझ पाते हैं कि जब कोई ईवेंट होता है और दो देशों के नेता करार करते हैं तो बड़ी बड़ी बातें करते हैं लेकिन कुछ साल बाद पता चलता है कि उनमें से कई बातें हवा हो चुकी हैं.

2016 में भारत, अफगानिस्तान और ईरान के बीच चाबहार में बंदरगाह बनाने को लेकर एक समझौता हुआ था. हर दूसरी घटना की तरह भारत के प्रधानमंत्री मोदी ने इसे भी ऐतिहासिक बताया था. चाबहार प्रोजेक्ट भारत के लिए रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण था भी. अब भी है. इस परियोजना के तहत समुद्र मार्ग को सड़क मार्ग से जोड़कर यूरोप तक पहुंचा जा सकता था. चाबहार का गुणगान किया गया था कि भारत ने चीन को किनारे कर अपनी स्वायत्तता बनाए रखी और पाकिस्तान के संपर्क में आए बिना अफगानिस्तान तक पहुंचने का रास्ता भी हासिल कर लिया. 2015 से बलूचिस्तान के ग्वादर में चीन बंदरगाह चला रहा है. इसका भी जवाब चाबहार से देने की बात हुई थी. यह भी कहा गया कि भारत अफगानिस्तान के चार बड़े शहरों में सड़क से पहुंचने का रास्ता हासिल कर लेगा और रूस और मध्य एशिया तक रेल कॉरिडोर बनाने का भी रास्ता मिलेगा. पहले ऐतिहासिक घोषणाओं के तेवर समझ लीजिए फिर आगे बताता हूं.

हिन्दू अखबार की सुहासिनी हैदर विदेश मामलों पर लगातार लिखती हैं. उन्होंने जुलाई महीने में लिखा है कि चाबहार प्रोजेक्ट के साथ जिस रेल प्रोजेक्ट की बात हुई थी वह अब खटाई में पड़ चुका है. ईरान पर अमेरिकी प्रतिबंध के कारण भारत ने सक्रिय दिलचस्पी नहीं दिखाई तो ईरान ने चेतावनी देने के बाद रेल मार्ग के हिस्से पर अपनी तरफ से काम शुरू कर दिया है. यही नहीं उस ऐतिहासिक करार के वक्त गैस फील्ड में भी भारत की कंपनियों की भूमिका थी लेकिन सुहासिनी लिखती हैं कि ईरान ने ओएनजीसी की जगह अपनी राष्ट्रीय तेल कंपनी को यह काम दे दिया है. इस संदर्भ में देखने पर एक सवाल यह उठता है कि क्या चाबहार प्रोजेक्ट का भविष्य केवल अफगानिस्तान की घटना से ही प्रभावित है? 2016 में प्रधानमंत्री मोदी ने इस करार को ऐतिहासिक बताते हुए मिर्ज़ा ग़ालिब का एक शेर पढ़ा था. जिसका मतलब है कि हम जब मन बना लेते हैं तो काशी और काशां की दूरी आधे कदम की रह जाती है.

आधे कदम की दूरी अभी तक तय नहीं की जा सकी है. तालिबान के उभरने के आलोक में कहा जाने लगा कि भारत ने चाबहार को लेकर जितना निवेश किया है, जितनी रणनीति बनाई थी सबको धक्का पहुंचा है. अब तालिबान और चीन के ताल्लुकात अच्छे लग रहे हैं. चीन और ईरान के ताल्लुकात अच्छे लग रहे हैं. भारत के ताल्लुकात कैसे हैं इसका अंदाज़ा लगाने के लिए विदेश मंत्रालय के इसी तरह के टुकड़े टुकड़े बयान है कि भारत सभी हिस्सेदारों के संपर्क में है.

रवीश कुमार
(लेखक एनडीटीवी के एजियूटिव एडिटर हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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