घर के सामने ही एक छोटा-सा प्लाट है, जो अब खेत बन गया है। उस खेत की पश्चिम दिशा में एक पेड़ है जिसके प्यारे-प्यारे फलों को देखकर मन में विचार आया कि पेड़ अपना सर्वस्व देने में विश्वास करते हैं। घर के पीछे नींबू का पेड़ है। रोज सुबह जब मैं नींबू बीनकर पत्नी को देता हूं, तब मुझे अभिमान होता है। प्रकृति सदैव हमें कुछ न कुछ देने को आतुर होती है। उसके स्वभाव में कभी कंजूसी नहीं देखी गई। रास्ते पर पेड़ से गिरे हुए आम का कोई मालिक नहीं होता। वह आम कभी भी स्वयं को अकेला महसूस नहीं करता। इस आम पर राहगीरों का ही अधिकार होता है।
इंसान का बस चले, तो वह आकाश में भी प्लाट बेचने का धंधा शुरू कर दे। उसका मालिक भी बन बैठे। आजकल आसमान में बादल हमेशा श्याम-घनश्याम की तरह कहीं भी बरसने को आतुर रहते हैं। मानव यदि प्रकृति को समझ ले तो परमात्मा को समझने में उसे आसानी होगी। ईश्वर के दरबार में प्रकृति का विशेष महत्व है। वह मानव को एक शिशु की तरह पालती है। मुझे आस्तिक बनने के लिए किसी तरह के प्रयास की आवश्यकता नहीं होती। मैं जो कुछ भी लिखता हूं, इसका श्रेय प्रकृति को देता हूं। प्रकृति का साथ मातृस्वरूपा, प्रेमस्वरूपा और भक्तिस्वरूपा है। प्रकृति का साथ रोगों को कम करता है। इसके साथ रहने वाले सदैव स्वस्थ रहते हैं।
अमेरिका के मैसाचुसेट्स के कोन्कोर्ड में रहने वाले हेनरी डेविड थोरो प्रकृति की गोद में बैठने के लिए सदैव आतुर रहते। ‘सविनय अवज्ञा कानून’ शब्द का प्रयोग उन्होंने गांधीजी से पहले किया था। जब वहां की नगर पालिका ने नागरिकों पर टैक्स लादा तो उन्होंने इसका जमकर विरोध किया। इस पर उन्हें जेल भेज दिया गया। जेल की ऊंची-ऊंची दीवारों को सामने देखकर महात्मा थोरो के मुंह से जो कुछ निकला, वह विचारणीय है-
मैं तो दीवारों की इस तरफ जेल में मुक्त हूं, परंतु दीवार के उस पार रहने वाले लोग गुलाम हैं। क्या आप मानेंगे कि थोरो गीताभक्त थे। उन्हें एकांत में रहने की सजा मिली थी। इसलिए वॉल्डन नाम के तालाब के पास वे एक झोपड़ी में रहते थे। उन दिनों के अनुभवों को उन्होंने किताब की शक्ल दी जिसका नाम है-वॉल्डन। यह किताब अवश्य पढ़नी चाहिए।
हार्वर्ड यूनिवर्सिटी में मनोविज्ञान के प्रोफेसर डॉ. बी.एफ. स्किनर का नाम प्रसिद्ध है। इन्होंने जो किताब लिखी, उसका नाम दिया- वॉल्डन-टू। प्रो. स्किनर से मेरा पत्र-व्यवहार हुआ। उनके पत्रों को मैंने अपनी किताब में शामिल भी किया। महाभारत के भाष्य में मैंने थोरो के कुछ विचारों का समावेश किया है। इन शब्दों में उनके जीवन की एक झलक मिलती है। आप भी जानें- ‘मैं तो तरबूज पर बैठकर उसे पूरा अकेले खा जाना पसंद करुंगा, स्वादिष्ट पकवानों से तो वह तरबूज भला। ट्रेन के एसी कोच में बैठकर पूरे रास्ते एसी की हवा लेने के बजाय मैं बैलगाड़ी पर बैठकर खुली हवा में मुक्त रूप से सांस लेते हुए यात्रा करना अधिक पसंद करूंगा।’
इंसान ने प्रकृति को अपमानित कर उसे हरा दिया है। मुम्बई के मालदार लोग माथेरान या महाबलेश्वर जैसे हिल स्टेशन जाकर वहां स्वादिष्ट भोजन का स्वाद लेते हैं। इसके बाद भी उनके वाहन में कई तरह के स्वादिष्ट व्यंजन रखे होते हैं। इस तरह से जब वे पूरी तरह से बीमार हो जाते हैं, तब उनके लिए मेडिकल के स्पेशलिस्ट डॉक्टर की टीम तैयार होती है।
गांधीजी पहली बार जब रवींद्रनाथ टैगोर से मिलने गए, तब गुरुदेव के भोजन में मैदे की पूरियां देखकर चौंक गए। उन्होंने कहा- गुरुदेव यह तो जहर है। इस प्रसंग का उल्लेख वहां उपस्थित आचार्य कृपलानी ने कहीं किया है। मैदे के व्यंजन के खिलाफ लिखने वाले पहले मानव थे गांधीजी। मैदा पाचन तंत्र का नम्बर एक का शत्रु है। अंग्रेजी की एक उक्ति है- 60 साल की उम्र के बाद मानव को बेकरी का बिल घटा देना चाहिए। बेकरी में मैदे का शासन होता है। मैदे को युवा भी आसानी से नहीं पचा पाते।
गुणवंत शाह
(पदमश्री से समानित वरिष्ठ लेखक, साहित्यकार और विचारक हैं ये उनके निजी विचार हैं)