भारत में अब तक कोरोना महामारी से कितने लोग मरे हैं, यह बात मौजूदा सरकार के साथ-साथ देश के जनमत के एक बड़े हिस्से के लिए भी अप्रसांगिक है। उसके लिए तो प्रासंगिक बात सिर्फ यह है कि इसे कम करके बताने के या उपाय हो सकते हैं? बहरहाल, कहा जाता है कि सच को कुछ समय तक के लिए छिपाया जा सकता है, हमेशा के लिए नहीं। तो अभी जो आंकड़े दर्ज या चर्चित हो रहे हैं, वह अवश्य इतिहास में दर्ज होंगे। मुमकिन है कि इतिहास उनके आधार पर इन मौतों के लिए जिमेदार अधिकारियों का दोष भी दर्ज करेगा। इसीलिए अमेरिका में हुआ वो अध्ययन महत्तवपूर्ण है, जिसमें बताया गया है कि भारत में असल मौतें उससे दस गुना तक ज्यादा हैं, जितना सरकार ने बताया है। इस अध्ययन के क्रम में समान अवधि में पिछले बरसों में हुई मौतों से तुलना महामारी काल में हुई मौतों से की गई। दूसरी ओर नरेंद्र मोदी सरकार से सच की अपेक्षा तो अब शायद ही किसी विवेकशील व्यति को रहती होगी।
जिस सरकार ने अपनी पहचान ही आंकड़ों को छिपाने, उन्हें गलत ढंग से पेश करने और वैकल्पिक असत्य आंकड़े गढऩे को लेकर बनाई हो, उससे ये अपेक्षा नहीं हो सकती कि वह तथ्य जनता के सामने रखेगी। मगर वह जगह-जगह मची लोगों की चीत्कार को भी स्वीकार करने से इनकार कर देगी, यह उम्मीद फिर भी नहीं थी। दो-तीन महीने पहले इस देश में ऑक्सीजन की कमी के कारण मरते लोगों का जो नजारा दुनिया ने देखा, उसे भुलाना बेहद मुश्किल है। फिर भी सरकार ये कैसे कह सकती है कि ऑसीजन की कमी से कोई मौत नहीं हुई। असल बात यह है कि सरकार ने सच के विरुद्ध एक और वैकल्पिक कहानी गढऩे की कोशिश की है। सवाल है कि ये सरकार ऐसी हिमत कैसे कर पाती है? आखिर उसे किन लोगों पर ऐसा भरोसा रहता है कि उन्हें वह जो बताएगी वे उसे ही मानेंगे? भले उनकी अपनी आंखों ने कुछ देखा हो और उनके अपने मन ने कुछ महसूस किया हो? यहां ये बात जरूर याद करनी चाहिए कि सरकार ने इस बार भूलवश या जानकारी के अभाव में ऐसी बात नहीं कही है।
बल्कि जब देश कोरोना महामारी की दूसरी लहर से जूझ रहा था और नदियों में लाशें तैर रही थीं, तभी सत्ता पक्ष की तरफ से ‘कांग्रेस की टूलकिट’ का मसला उछाला गया था। उसके जरिए भी यही पैगाम दिया गया था कि देश में सब कुछ ठीक है, जो गलत दिख रहा है वह दरअसल कांग्रेस की फैलाई झूठी कहानियां हैं। उसके बाद सरकार समर्थक कथित बुद्धिजीवियों से लगातार ऐसी चर्चाएं कराई गईं, जिनमें विदेशी मीडिया पर गलत रिपोर्टिंग करने और भारत की छवि खराब करने का दोष मढ़ा गया। यह सब सरकार इसीलिए कर पाती है, क्योंकि उसके प्रचार और सामाजिक नफरत फैलाने के तंत्र ने देश में एक बड़ा ऐसा समर्थक वर्ग बना लिया है, जिसके लिए एक समुदाय से नफरत बाकी तमाम बातों पर भारी पड़ती है। यह सही है कि कई राज्यों में ऑसीजन के लिए मचे हाहाकार के बावजूद ऑसीजन की कमी से किसी की जान नहीं गई।
केरल सहित दक्षिण के कई राज्य इसमें शामिल हैं। लेकिन जिन राज्यों में ऑसीजन की कमी से मौतें हुईं और मीडिया ने रिपोर्ट किया उन राज्यों में भी कहा जा रहा है कि उनके यहां किसी की मौत नहीं हुई। इसमें पक्ष और विपक्ष दोनों के शासन वाले राज्य शामिल हैं। महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, तमिलनाडु, बिहार, मध्य प्रदेश आदि राज्यों की ओर से कहा गया है कि उनके यहां किसी की मौत ऑसीजन की कमी से नहीं हुई। बिहार के कई अस्पतालों में ऑसीजन की कमी से लोगों के मरने की खबर आई लेकिन राज्य के स्वास्थ्य मंत्री मंगल पांडेय ने इस बात को सिरे से खारिज कर दिया है। ऐसा लग रहा है कि सभी राज्य अपनी जिम्मेदारी से बचने के लिए मौतों से इनकार कर रहे हैं। आखिर स्वास्थ्य उनका विषय है और ऑसीजन की व्यवस्था करना भी बुनियादी रूप से उनकी जिमेदारी है। तभी हर राज्य की विपक्षी पार्टियां जरूर ऑक्सीजन की कमी से मौत का मामला उठा रही हैं पर सरकारें झूठ बोल रही हैं।