नरेंद्र मोदी जब गुजरात के मुख्यमंत्री थे तब केंद्र-राज्य संबंधों को लेकर सर्वाधिक संवेदनशील माने जाते थे। वे बात बात पर केंद्र सरकार को कठघरे में खड़ा करते थे और कांग्रेस विरोधी पार्टियों के मुख्यमंत्रियों के साथ औपचारिक-अनौपचारिक साझेदारी बना कर केंद्र को घेरते थे। प्रधानमंत्री बनने के बाद उन्होंने संघवाद से आगे बढ़ कर सहकारी संघवाद की बात कही। इससे उम्मीद बंधी कि उनके राज में शायद केंद्र और राज्यों के बीच पहले की तरह टकराव नहीं बने। लेकिन उलटा हो गया। उन्होंने बात जरूर सहकारी संघवाद के बारे में की लेकिन केंद्र का कामकाज राज्यों को नियंत्रित करने का रहा। इससे कई राज्य सरकारें बुरी तरह से आहत हैं। विपक्षी शासन वाली राज्य सरकारें खुलेआम केंद्र सरकार पर भेदभाव के आरोप लगा रही हैं और भाजपा को ‘भारतीय झगड़ा पार्टी’ कह रही है।
केंद्र ने जीएनसीटीडी कानून के जरिए मुख्यमंत्री को पैदल कर दिया और उप राज्यपाल को ही असली दिल्ली सरकार बना दिया। दिल्ली में अरविंद केजरीवाल की चुनी हुई सरकार है लेकिन उसके हाथ में कोई अधिकार नहीं है। सारे फैसले उप राज्यपाल के यहां से हो रहे हैं। घर-घर राशन पहुंचाने की केजरीवाल की योजना को रोक दिया गया है और वैक्सीन के मामले में भी दिल्ली सरकार का कहना है कि उसके साथ भेदभाव हो रहा है।
केंद्र सरकार और भाजपा की पश्चिम बंगाल सरकार से लड़ाई भारत में संघवाद के इतिहास में मिसाल मानी जाएगी। प्रधानमंत्री, गृह मंत्री और देश के अनेक मंत्रियों ने जिस अंदाज में बंगाल में जिस अंदाज में चुनाव प्रचार किया वह किसी पहलू से सभ्य राजनीतिक तरीका नहीं माना जा सकता था। चुनाव में बुरी तरह से हारने के बाद भी भाजपा और केंद्र सरकार ने राज्य सरकार और तृणमूल कांग्रेस का पीछा नहीं छोड़ा है। चुनाव बाद की हिंसा, तृणमूल नेताओं की पुराने मामलों में केंद्रीय एजेंसियों द्वारा गिरफ्तारी, ममता के परिवार के सदस्यों को केंद्रीय एजेंसियों की ओर से नोटिस, केंद्रीय सुरक्षा बलों के जरिए विधायकों की सुरक्षा जैसे अनेक मामले हैं, जिनसे केंद्र-राज्य का संबंध बिगड़ा है। राज्य के पुलिस और प्रशासनिक अधिकारियों का केंद्र सरकार ने मनमाने तरीके से तबादला किया या दिल्ली की सेवा में बुलाने का आदेश जारी किया। राज्य के पूर्व मुख्य सचिव अलापन बंदोपाध्याय इस मामले में केंद्र की नाराजगी झेल रहे हैं, जबकि उन्होंने सेवा से इस्तीफा दे दिया था।
भाजपा ने दो राज्यों- मध्य प्रदेश और कर्नाटक में लोकतांत्रिक तरीके से चुनी हुई सरकारों को गिरा कर अपनी सरकार बना ली। राजस्थान में कांग्रेस की सरकार गिरते गिरते बची। महाराष्ट्र में शिव सेना, कांग्रेस और एनसीपी की सरकार पर तलवार लटकी है। केंद्र में सत्तारूढ़ दल की इस राजनीति ने केंद्र-राज्य संबंधों को बहुत नीचे गिरा दिया है। पिछले दिनों देश के पश्चिमी हिस्से में चक्रवाती तूफान आया तो प्रधानमंत्री हवाई सर्वेक्षण पर गए। उन्होंने गुजरात और दमन दीव का दौरा किया और उन्हीं के लिए एक हजार करोड़ रुपए के मदद की घोषणा की। वे महाराष्ट्र का हाल देखने नहीं गए, जहां तूफान से भारी तबाही मची थी। इसी तरह पश्चिम के बाद पूर्व में तूफान आया तो प्रधानमंत्री ने हवाई सर्वेक्षण करने के बाद ओड़िशा को पांच सौ करोड़ और पश्चिम बंगाल व झारखंड को साझा तौर पर पांच सौ करोड़ रुपए की मदद दी। इस दौरान बंगाल की मुख्यमंत्री और राज्य के मुख्य सचिव के साथ विवाद हुआ सो अलग।
वैक्सीन नीत और जीएसटी के दो ऐसे मुद्दे हैं, जिनसे सभी राज्य परेशान हुए। आजाद भारत के इतिहास में हमेशा किसी भी महामारी या बीमारी के लिए टीके केंद्र सरकार ही खरीदती रही है। लेकिन कोरोना वायरस की महामारी में केंद्र सरकार ने कहा कि राज्य अपने लिए टीके खरीदेंगे और लगवाएंगे। इसका नतीजा यह हुआ कि 51 दिन तक देश में कोरोना वैक्सीनेशन की रफ्तार धीमी पड़ी रही। कंपनियों ने राज्यों को टीका नहीं दिया, जबकि राज्यों के लिए उन्होंने कीमतें बहुत ऊंची रखी थीं। बाद में विवाद बढ़ा तो केंद्र ने टीके खरीद कर बांटने का ऐलान किया। इसी तरह जीएसटी कानून बनाते समय तय हुआ था कि अगर एक निश्चित सीमा से कम कर संग्रह होता है तो केंद्र सरकार पांच साल तक राज्यों को मुआवजा देकर उसकी भरपाई करेगी। लेकिन जब मुआवजा देने की बात आई तो महीनों तक राज्यों का बकाया अटका रहा और उसके बाद केंद्र ने कहा कि राज्य कर्ज लेकर बकाए की भरपाई करें और जब जीएसटी की वसूली बढ़ेगी तो उससे कर्ज चुकाएं। भाजपा शासित राज्यों ने कुछ कहा भले नहीं लेकिन इससे सबको परेशानी हुई।
हरिशंकर व्यास
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)