अगर इस बात की पड़ताल की जाए कि सबसे ज्यादा किस पृष्ठभूमि का लोग मुख्यमंत्री हैं तो हैरान करने वाला नतीजा आएगा। इस समय भले 18 राज्यों में भाजपा या उसकी सहयोगी पार्टियों की सरकार है पर हकीकत यह है कि देश में इस समय सबसे ज्यादा मुख्यमंत्री कांग्रेस की पृष्ठभूमि वाले हैं। राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ की पृष्ठभूमि वालों के मुकाबले ज्यादा मुख्यमंत्री ऐसे हैं, जो या तो कांग्रेस के हैं या कांग्रेस छोड़ कर दूसरी पार्टी में गए हैं या कांग्रेस से अलग होकर अपनी पार्टी बनाई है। इस कड़ी में सबसे ताजा नाम हिमंता बिस्वा सरमा का है। उन्होंने तो महज छह साल पहले ही कांग्रेस छोड़ी। राहुल गांधी की अनदेखी से नाराज होकर उन्होंने 2015 में कांग्रेस छोड़ी थी और सोमवार को उन्होंने असम के मुख्यमंत्री पद की शपथ ली। भाजपा ने उनको मुख्यमंत्री बनाया है। इसी महीने में दो और नेताओं ने मुख्यमंत्री पद की शपथ, जो पहले कांग्रेस में थे। पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी और पुड्डुचेरी में एन रंगास्वामी ने इस महीने मुख्यमंत्री पद की शपथ ली। ये दोनों पहले कांग्रेस में थे और कांग्रेस से अलग होकर अपनी पार्टी बनाई थी। कांग्रेस से अलग होने के बाद रंगास्वामी दूसरी बार और ममता बनर्जी तीसरी बार मुख्यमंत्री बनी हैं। कांग्रेस छोड़ कर अलग पार्टी बनाने वाले दो नेता दक्षिणी राज्यों में मुख्यमंत्री हैं।
जगन मोहन रेड्डी ने कोई आठ-नौ साल पहले कांग्रेस से अलग होकर पार्टी बनाई थी और 2019 में आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री बने। तेलंगाना के मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव भी पहले कांग्रेस में थे और कांग्रेस से अलग होकर अपनी पार्टी बनाई थी। पूर्वोत्तर के राज्यों में अरुणाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री पेमा खांडू और मेघालय के कोनरेड संगमा भी पहले कांग्रेस में थे। मणिपुर के मुख्यमंत्री एन बीरेन सिंह भी पहले कांग्रेस में थे और 2016 में वे भाजपा में शामिल हुए। नगालैंड के मुख्यमंत्री नेफ्यू रियो ने भी 1993 में अपना राजनीतिकर जीवन कांग्रेस के साथ शुरू किया था और पहली बार कांग्रेस की टिकट पर ही विधायक बने थे। इस तरह नौ राज्यों के मुख्यमंत्री तो ऐसे हैं, जो पहले कांग्रेस में थे और कांग्रेस के अपने तीन मुख्यमंत्री हैं। यानी कांग्रेस की पृष्ठभूमि वाले 12 नेता इस समय मुख्यमंत्री हैं। अगर इसकी तुलना संघ की पृष्ठभूमि वाले नेताओं से करें तो उनकी संख्या कम पड़ जाएगी। संघ की पृष्ठभूमि वाले मुख्यमंत्रियों की संख्या नौ है। इस तरह देश के 28 में से 12 राज्यों में कांग्रेसी पृष्ठभूमि वाले, नौ राज्यों में संघ-भाजपा की पृष्ठभूमि वाले और बचे हुए सात राज्यों में गैर कांग्रेसी या गैर भाजपाई मुख्यमंत्री हैं। हिमंता को नहीं बीरेंद्र सिंह को देखें सिंधिया: असम में हिमंता बिस्वा सरमा के मुख्यमंत्री बनने के बाद कांग्रेस के कई नेताओं की उम्मीद जग गई है।
उनको लग रहा है कि एक दिन उनकी भी किस्मत खुल सकती है। पर मुश्किल यह है कि कांग्रेस से भाजपा में जाकर मुख्यमंत्री बनने या प्रदेश अध्यक्ष बनने या किसी अहम पद पर पहुंचने के लिए नेता को अपनी उपयोगिता साबित करनी पड़ती है। जैसे हिमंता बिस्वा सरमा ने की। उन्होंने पार्टी को मजबूर किया कि वह उनको मुख्यमंत्री बनाए। उनसे पहले भी भाजपा पूर्वोत्तर में कांग्रेस के तीन नेताओं को मुख्यमंत्री बना चुकी है। अरुणाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे पेमा खांडू पूरी पार्टी के साथ ही भाजपा में गए थे तो आज मुख्यमंत्री हैं। एन बीरेन सिंह और नेफ्यू रियो भी इसलिए मुख्यमंत्री बने योंकि भाजपा के पास उनका विकल्प नहीं था। यह स्थिति मध्य प्रदेश या महाराष्ट्र या उत्तर और पश्चिमी भारत के किसी दूसरे राज्य में नहीं है। इसलिए अगर ज्योतिरादित्य सिंधिया यह सोच रहे होंगे कि किसी दिन मध्य प्रदेश में उनकी भी किस्मत हिमंता की तरह चमक सकती है तो यह ख्याल उनको दिमाग से निकाल देना चाहिए। भाजपा ने तो पार्टी की संस्थापक रहीं राजमाता विजयराजे सिंधिया को कभी मुख्यमंत्री नहीं बनाया था तो ज्योतिरादित्य को कैसे बनाएगी? असल में उनको हिमंता सरमा की बजाय हरियाणा के चौधरी बीरेंद्र सिंह के उदाहरण को ध्यान में रखना चाहिए। खूब मजबूत जाट नेता होने और बड़ी विरासत के बावजूद भाजपा ने उनको मुख्यमंत्री नहीं बनाया। मजबूर होकर उनको संन्यास लेना पड़ा और आईएएस बेटे को रिजाइन करा कर चुनाव लड़ाना पड़ा।
असम की कहानी पूर्वोत्तर के राज्यों में ही दोहराई जा सकती है। क्या विधायकी छोड़ेंगे प्रमाणिक और सरकार: भारतीय जनता पार्टी के पांच सांसदों ने लोकसभा का चुनाव लड़ा था, जिसमें से तीन हार गए थे। जीते हुए दो सांसदों ने भी विधानसभा सदस्यता की शपथ नहीं ली है। भाजपा के बाकी विधायक शपथ ले चुके हैं। लेकिन कूचबिहार से जीते निशिथ प्रमाणिक और नादिया की रानाघाट सीट के सांसद जगन्नाथ सरकार ने शपथ नहीं ली। तभी इन दोनों को लेकर अटकलें लगाई जा रही हैं। इन दोनों को जल्दी फैसला करना होगा। नियमों के मुताबिक किसी नेता के दोनों सदनों का सदस्य चुने जाने के बाद 14 दिन के अंदर किसी एक सदन से इस्तीफा देना होता है। भाजपा के जानकार सूत्रों का कहना है कि दोनों को लोकसभा सीट से इस्तीफा दिलाना सही रणनीति नहीं होगी क्योंकि पश्चिम बंगाल विधानसभा में दो विधायक ज्यादा होने से कोई खास फर्क नहीं पड़ता है। अगर इन दोनों की विधानसभा सीट भाजपा हार भी जाती है तो उससे कोई फर्क नहीं पड़ेगा। लेकिन अगर इन दोनों की खाली की हुई लोकसभा सीट पर उपचुनाव होता है और तृणमूल कांग्रेस जीत जाती है तो वह पार्टी के लिए बड़ा झटका होगा। लोकसभा में तृणमूल की ताकत बढ़ेगी और उससे विपक्ष की 2024 की तैयारियों को गति मिलेगी। अभी जिस तरह का बहुमत राज्य में ममता बनर्जी को मिला है उसे देखते हुए भाजपा शायद ही कोई जोखिम लेना चाहेगी।
हरिशंकर व्यास
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)