भक्तों को कभी नहीं करते निराश

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एक गुरुजी थे। हमेशा ईश्वर के नाम का जाप किया करते थे। काफी बुजुर्ग हो गये थे। उनके कुछ शिष्य साथ में ही पास के कमरे में रहते थे। जब भी गुरूजी को शौच, स्नान आदि को जाना होता था, वे अपने शिष्यो को आवाज लगाते थे और शिष्य साथ ले जाते थे। धीरे-धीरे कुछ दिन बाद शिष्य दो तीन बार आवाज लगाने के बाद भी कभी आते कभी और भी देर से आते। एक दिन रात को निवृा होने को जैसे ही गुरूजी आवाज लगाते हैं, तुरन्त एक बालक आता है और बड़े ही कोमल स्पर्श के साथ गुरूजी को निवृा करवा कर बिस्तर पर लेटा जाता है। अब ये रोज का नियम हो गया। एक दिन गुरुजी को शक हो जाता है कि, पहले तो शिष्यों को तीन चार बार आवाज लगाने पर भी देर से आते थे। लेकिन ये बालक तो आवाज लगाते ही दूसरे क्षण आ जाता है और बड़े कोमल स्पर्श से सब निवृा करवा देता है। एक दिन गुरुजी उस बालक का हाथ पकड़ लेते है और पूछते कि सच बता तू कौन है, मेरे शिष्य तो ऐसे नही हैं। वो बालक के रूप में स्वयं ईश्वर थे, उन्होंने गुरूजी को स्वयं का वास्तविक रूप दिखाया। गुरूजी रोते हुये कहते हैं, हे प्रभु आप स्वयं मेरे निवृाी के कार्य कर रहे हैं।

यदि मुझसे इतने प्रसन्न हो तो मुक्ति ही दे दो ना। प्रभु कहते है कि जो आप भुगत रहे है वो आपके प्रारब्ध है। आप मेरे सच्चे साधक हैं, हर समय मेरा नाम जप करते हैं इसलिए मैं आपके प्रारब्ध भी आपकी सच्ची साधना के कारण स्वयं कटवा रहा हूं। गुरूजी कहते हैं कि क्या मेरे प्रारब्ध आपकी कृपा से भी बडे हैं, क्या आपकी कृपा, मेरे प्रारब्ध नहीं काट सकती है। प्रभु कहते है कि, मेरी कृपा सर्वोपरि है, ये अवश्य आपके प्रारब्ध काट सकती है, लेकिन फिर अगले जन्म में आपको ये प्रारब्ध भुगतने फिर से आना होगा। यही कर्म नियम है। इसलिए आपके प्रारब्ध स्वयं अपने हाथों से कटवा कर इस जन्म.मरण से आपको मुक्ति देना चाहता हूं। ईश्वर कहते है! प्रारब्ध तीन तरह के होते है। मंद प्रारब्ध, मेरा नाम जपने से कट जाते है। तीव्र प्रारब्ध किसी सच्चे संत का संग करके श्रद्धा और विश्वास से मेरा नाम जपने पर कट जाते है। तीव्रतम प्रारब्ध, भुगतने ही पड़ते है। लेकिन जो हर समय श्रद्धा और विश्वास से मुझे जपते हैंए उनके प्रारब्ध मैं स्वयं साथ रहकर कटवाता हूं और तीव्रता का अहसास नहीं होने देता हूं। प्रारब्ध पहले रचा, पीछे रचा शरीर। तुलसी चिन्ता क्यों करे, भज ले श्री रघुबीर॥

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