पुलिसिया तंत्र के आगे अदालतें भी बौनी

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आम जनता पर मास्क नहीं पहनने पर झट FIR हो जाती है, लेकिन महाराष्ट्र में हफ्ता वसूली के संगठित तंत्र के खुलासे के बावजूद पिछले दो हफ्ते में न तो FIR हुई और न ही सबूत जब्त किए गए। मुंबई के पूर्व पुलिस कमिश्नर और सीनियर IPS अधिकारी को अच्छी तरह से पता है कि ऐसे मामलों में सबसे पहले FIR दर्ज कराई जानी चाहिए।

तो फिर कानून के सरल रास्ते पर चलने की बजाय उन्होंने PIL से परमवीरता हासिल करने का रास्ता क्यों अख्तियार किया? मुंबई हाईकोर्ट के जजों ने सुनवाई के दौरान यह साफ कर दिया कि संगीन आपराधिक मामलों में संत्री हो या मंत्री, सभी पर CRPC कानून के तहत FIR से ही जांच की शुरुआत होनी चाहिए।

महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री, गृहमंत्री और पुलिस कमिश्नर एक ऐसे दरोगा के प्रभाव में क्यों काम करते थे, जो वसूली किंग के साथ सीरियल किलर भी है? इनका जवाब हासिल करने के लिए नए न्यायिक आयोग पर पैसे खर्च करने की बजाय पूर्व गृह सचिव वोरा कमेटी की सन 1993 की रिपोर्ट को पढ़ लिया जाए तो इस आपराधिक गठजोड़ का अक्स भी साफ हो जाएगा। ऐसे मामलों में सबूत मिलना मुश्किल है, इसलिए FIR के साथ ही अदालत की निगरानी में हफ्ता वसूली और ट्रांसफर रैकेट में शामिल किरदारों का नार्को टेस्ट होना चाहिए।

इस कांड की परतों के खुलासे के साथ मर्ज के मूल कारण को समझना जरूरी है, तभी पूरे देश में पुलिस सुधार लागू होने का माहौल बनेगा। अंग्रेजों के समय का गुलाम इंडिया हो या फिर इंदिरा गांधी के आपातकाल का भारत। वझे और परमबीर जैसे जी हुजूरी वाले अफसरों के माध्यम से ही सभी सरकारें पैसा कमाने के साथ विरोधी स्वर का दमन भी करती हैं।

पुलिस फोर्स में अर्थशास्त्र का ग्रेशम सिद्धांत ज्यादा लागू होता है। इसके अनुसार खोटे सिक्के, अच्छे सिक्कों को प्रचलन से बाहर कर देते हैं। इसीलिए एक भ्रष्ट और आपराधिक दरोगा को महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री, गृहमंत्री और पुलिस कमिश्नर से संरक्षण मिल पाना संभव होता है। दूसरी ओर उत्तर प्रदेश में एक IPS अधिकारी अमिताभ ठाकुर को संवैधानिक कर्तव्यों के निर्वहन के लिए जबरिया रिटायरमेंट के इनाम से नवाजा जाता है।

वझे जैसे खोटे सिक्के हर पार्टी के नेता को भाते हैं, जबकि अमिताभ ठाकुर जैसे अफसरों पर, IPS एसोसिएशन भी मौन धारण करना बेहतर समझती है। प्रकाश सिंह मामले में सुप्रीम कोर्ट के 15 साल पुराने फैसले के बावजूद, कोई भी सरकार पुलिस पर राजनीतिक नियंत्रण खत्म नहीं करना चाहती। कम्युनिस्ट शासनकाल में पुलिसिया दमन को झेलने वाली ममता बनर्जी, सरकार बनाने के बाद उसी पुलिसिया तंत्र पर निर्भर हो गई।

सबरीमाला आंदोलन से जुड़े एक भाजपा नेता पर केरल सरकार ने गंभीर प्रकृति के 240 मुकदमे ठोंक दिए। पिछले लोकसभा चुनावों के दौरान उस नेता को अपने खिलाफ दर्ज आपराधिक मुकदमों का विवरण देने के लिए स्थानीय अखबारों में 4 पेज का विज्ञापन देना पड़ा था। दुश्मन देशों से सीमा की सुरक्षा, अपराधों पर रोकथाम, कानून व्यवस्था, नागरिकों की रक्षा जैसे बड़े काम बहादुर और ईमानदार पुलिस अधिकारियों की वजह से हो रहे हैं। लेकिन वझे जैसे खोटे सिक्कों का वर्चस्व कम करने के लिए बीमार सिस्टम को वैक्सीन देने के लिए अदालतों को पहल करनी होगी।

10 साल पहले CBI बनाम किशोर सिंह मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि कानून की रक्षक पुलिस यदि भक्षक बन जाए तो उन्हें सामान्य अपराधियों से ज्यादा दंड मिलना चाहिए। FIR दर्ज करने या नहीं दर्ज करने, जांच को मनमाफिक दिशा में बढ़ाने, गिरफ्तार करने के लिए पुलिस के पास असीमित अधिकार है। इसीलिए एक सीनियर IPS अधिकारी, राज्य की पुलिस के पास FIR दर्ज कराने की बजाय CBI से जांच चाहते हैं।

पुलिस के इस तंत्र के आगे न्यायिक व्यवस्था भी पूरी तरह से बौनी और विफल साबित हो रही है। कुछेक बड़े लोगों के मामलों को छोड़ कर गलत FIR होने पर हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट से भी निर्णायक राहत नहीं मिलती। 240 मुकदमों के बोझ तले दबे नेता लोग इस अन्याय को राजनीतिक शक्ति में तब्दील करके इनाम भी हासिल कर सकते हैं, लेकिन आम जनता की कमर तोड़ने के लिए तो एक FIR ही काफी है।

गृह मंत्रालय की संसदीय समिति की 230वीं रिपोर्ट लोकसभा में 15 मार्च को पेश की गई। रिपोर्ट के पैरा 2.3.14 के अनुसार गलत FIR या कानून के दुरुपयोग के मामलों पर दोषी पुलिस अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई होनी चाहिए। इस बारे में विधि आयोग ने भी अगस्त 2018 में जारी 277वीं रिपोर्ट में विस्तार से अनुशंसा की है, जिस पर सुप्रीम कोर्ट ने भी सरकार से जवाब मांगा है।

विराग गुप्ता
(लेखक सुप्रीम कोर्ट के वकील हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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