पराली से बढ़ी चिन्ता

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अमेरिका के इंटरनेशनल फूड पॉसिली रिसर्च इंस्टिट्यूट में हुई स्टडी में दावा किया गया है कि पराली से होने लावे प्रदूषण की वजह से भारत को 30 बिलियन डालर यानि 21 हजार करोड़ रुपये का नुकसान हर साल हो रहा है। इस रिपोर्ट में यह बताया गया है कि बच्चों में फेफड़ो से संबंधित बीमारियों का खतरा भी बढ़ रहा है। यह सिर्फ चिंता करने वाली बात नहीं होनी चाहिए बल्कि सचेत होने का समय है। पराली जलाने और इससे होने वाले प्रदूषण प्रभावित क्षेत्रों में लोग खास तौर पर पांच साल से छोटे बच्चों में इसकी वजह से एक्यूट रेस्पिरेट्री इंफेक्शन का खतरा कहीं ज्यादा रहता है। बच्चों के स्वास्थ्य पर भारी-भरकम खर्च बैठता है, इससे ग्रामीण इलाकों में प्रदूषण जनित समस्याओं का अंदाजा लगाया जा सकता है। यह समझने के लिए काफी है कि जरा-सी बेपरवाही और जागरूकता के अभाव में कमाई का कितना बड़ा हिस्सा बीमारी पर खर्च हो जाता है। इस पर फौरी नहीं दीर्घकालिक नीति बनाये जाने की जरूरत है।इस लिहाज से रिपोर्ट बड़ी खास है।

इस आशय की यह पहली आंकड़ो वाली जानकारी है, जिसके मुताबिक उत्तर भारत में पराली से अर्थव्यवस्था और सेहत के नुकसान को लेकर अगाह किया गया है। तकरीबन हर साल 21 हजार करोड़ रुपये के नुकसान की चपेट में पंजाब, हरियाणा और दिल्ली है। रिपोर्ट में दावा किया गया है कि सर्दियों में पराली जलाने की वजह से कुछ दिनों तक दिल्ली में पर्टिक्यूलेट मैटर का लेवल डब्ल्यूएचओ के मानको से 20 गुणा तक ज्यादा बढ़ जाता है। सर्दियों में इसे लेकर दिल्ली में हाय-तौबा मच जाती है और वाहनों में ऑड-इवेन की कवायद जोर पकड़ लेती है। बेशक इससे प्रदूषण का स्तर कम हो जाता है लेकिन यह समस्या का स्थाई निदान नहीं है। जरूरी है, उत्तर भारत के राज्यों में पराली जनने से अर्थव्यवस्था और सेहत को होने वाले नुकसान की जानकारी मिलने के बाद राज्य सरकारें सतर्क हो जाएं और प्रदूषण से निपटने की चुनौतियों को नए सिरे से समझ कर निर्णायक कदम उठाएं, हरियाणा और पंजाब के किसान समुदायों के बीच पराली से जुड़ी चुनौतियों को लेकर जागरुकता अभियान चलाए जाने की जरूरत है। उन्हें यह तो बताया जाए कि जब वे खेतों में पराली जलाते हैं तो उसका कितना बुरा असर सीमावर्ती इलाकों में पड़ता है।

साथ ही यह भी बताया जाए कि सबसे पहले इसका प्रतिकूल असर आस-पास के इलाकों में रहने वालों पर पड़ता है। बड़ों पर असर पड़ता है लेकिन देर से समझ में आता है पर बच्चों पर असर साफ दिखाई देता है। जिस तरह बच्चों में फेफड़े की बीमारी फैल रही है, उससे उनकी बाकी जिन्दगी का अंदाजा लगाया जा सकता है। बीमारी पर पैसे खर्च होने से घर की गाड़ी कभी-कभी चलाते रहना चुनौतीपूर्ण हो जाता है। यह स्थिति गांवों-कस्बों से लेकर शहरों तर एक सी है। सरकार की तरफ से कदम उठे और लोगों के बीच प्रदूषण के विरोध में एक मानसिकता बने, यह जरूरी है। स्वच्छता अभियान के पीछे का भी तो यही मकसद है। गंदगी से प्रदूषण की समस्या गंभीर हो जाती है। इसके खिलाफ हर एक की भागीदारी हो तो तस्वीर बदल सकती है। हवा-पानी दोनों साफ हो तो क्या कहने। सारे रोगों की जड़ प्रदूषण है। और इससे निपटने के लिए खुद से शुरुआत होनी चाहिए।।

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