सौंदर्य और तर्क की बहस

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पिछले दिनों इंस्टाग्राम पर खूबसूरत सी फोटो ने ध्यान खींचा। सूरजमुखी के खेत में एक किसान खड़ा है। सूरजमुखी और किसान का चेहरा देखने वालों की ओर है और लाइट सोर्स, सूरज पीछे की ओर चमकता दिख रहा है। पहली नजर में फोटो बहुत ही प्रभावित करने वाली लगी। थोड़ा ठहर कर सोचने पर दिमाग की बत्ती जली। सूरज अगर पीछे है तो कैमरे और सूरज के बीच आने वाली कोई भी चीज सिल्हूट यानी काली (रंगहीन) होगी। सूरज अगर पीछे है तो सूरजमुखी के फूल उसकी ओर घूमे होने चाहिए न कि देखने वालों की ओर। जाहिर है डिजिटल मैनिप्युलेशंस के जरिए ऐसा किया गया।

इस फोटो को हजारों लोगों ने लाइक किया और 340 ने कॉमेंट्स किए हैं। अब बात दूसरी फोटो सीरीज की। यह लखनऊ के सुपरिचित फोटो आर्टिस्ट का काम है। उत्तराखंड के जंगलों में लगी आग की आठ तस्वीरों की सीरीज है। दावानल एक विपदा है, उसके परिणाम भयानक होते हैं, लेकिन तस्वीरें खूबसूरत दिख रही हैं। ज्यादातर लोग वॉउ, नाइस और ब्यूटिफुल जैसी रोबॉटिक प्रतिक्रियाएं दे रहे हैं। इस केस में कलाकार से ज्यादा मीडियम और टूल के इस्तेमाल का दोष है। मिररलेस कैमरे से क्लिक की गईं हाई रेजोल्यूशन की रंगीन तस्वीरों में जंगल की आग भी खूबसूरत दिख रही है। लोग उस सौंदर्य के खतरनाक मायाजाल में फंसते जा रहे हैं।

सौंदर्य के इसी झांसे का जिक्र मशहूर फोटो जर्नलिस्ट रघु राय अपने एक इंटरव्यू में करते हैं। उनसे फटॉग्रफी के सौंदर्यबोध पर सवाल किया गया था। रघु राय बताते हैं कि किसी दोस्त ने उन्हें एक समारोह में शिरकत करने के लिए अपने शहर बुलाया। फाइव स्टार होटल में उनके रुकने का इंतजाम किया। खूबसूरत कमरा, साफ-सुथरा बाथरूम। बाथरूम में टंगे थे सिलिकन टेक्सचर के सफेद तौलिए, जिन पर हरे रंग का बॉर्डर था। नहाने के बाद उन्होंने ऐसे ही एक तौलिए से बदन पोछा, तो तौलिए ने पानी ही नहीं सोखा। ऐसा उसके सिलिकन टेक्सचर के कारण हुआ। तौलिया खूबसूरत था, पर अपना मूल काम नहीं करता था। वह फोटो के सौंदर्यबोध पर आते हुए इस घटना को भारतीय स्पेस से जोड़ते हैं। कहते हैं, ‘भारतीय स्पेस का टेक्सचर खुरदरा है, रफ है, रॉ है। उसे रिप्रेजेंट करने के लिए मैं अपनी इमेजेस में नॉइस या ग्रेंस रखना पसंद करता हूं। आप पैरिस में फोटो खींचेंगे, तो फोटो स्मूथ और ग्लॉसी हो सकती है। भारतीय परिवेश ऐसा नहीं है।’

रघु राय अपने इस किस्से के जरिए फटॉग्रफी की समालोचना के कई गलियारे खोलते हैं। विजुअल आर्ट के सौंदर्यबोध को समझने के लिए फ्रांस की क्रांति रेनेसेंस की ओर लौटते हैं। रेनेसेंस ने सिर्फ फ्रांस की सत्ता ही नहीं बदली बल्कि चित्रकला, साहित्य व सामाजिक चेतना को भी गहराई से प्रभावित किया। रेनेसेंस से पहले तक विजुअल आर्ट में आलोचक कलाकृति को परखने के लिए उसकी खूबसूरती, रंगों के इस्तेमाल को ही महत्व देते थे। लेकिन फ्रांस की क्रांति ने इन मानकों को ज्यादा तार्किक बनाया। उदाहरण के तौर पर कमरे में एक गुलदान रखा है और उस पर दाहिनी तरफ से रोशनी पड़ रही है तो कौन सा हिस्सा ज्यादा चमकदार होगा? किस हिस्से पर कम रोशनी होगी और छाया किस ओर बनेगी, इसका खयाल पेंटिग बनाने वाले को रखना होगा। इसमें गड़बड़ हुई तो कलाकृति कितनी भी खूबसूरत हो आलोचना की दृष्टि से सतही ही मानी जाएगी।

सौंदर्य और तर्क की बहस चल ही रही थी कि डच पेंटर विंसेंट वैन गॉग की सनफ्लॉर सीरीज लोगों के सामने आती है। आलोचकों का कहना है कि विंसेंट के सूरजमुखी सूर्य के आवर्त को दर्शाते हैं। इस सीरीज ने विजुअल आर्ट में रोशनी के सिद्धांतों को स्थापित कर दिया। विजुअल आर्ट के ये कायदे फटॉग्रफी पर भी लागू होते हैं।

अब वर्तमान में लौटते हैं। शुरू में जिन तस्वीरों का जिक्र है, उनके पक्ष में कहा जा सकता है कि कला में कुछ भी संभव है। सही बात है। बिल्कुल संभव है, पर उसे डिजिटल आर्ट कहा जाना चाहिए, फटॉग्रफी नहीं। फटॉग्रफी में कल्पना की उड़ान संभव है पर लाइट के नियम-कायदों के भीतर और मीडियम की समझ के साथ। बाकी वॉउ, नाइस, ब्यूटिफुल जैसे अर्थहीन हो चुके कॉमेंट्स लोग कर रहे हैं, करते रहेंगे।

सौरभ श्रीवास्तव
(लेखक स्तंभकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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