मामला अघोषित इमरजेंसी का नहीं !

0
682

भारत में नागरिक का क्या मतलब है, उसकी आजादी, उसका मानसम्मान-गरिमा का पुलिस की ज्यादती, गिरफ्तारी से कैसे बाजा बजता है, कैसे वह देशद्रोही, आतंकवादी, हत्यारा, राजद्रोही, बलात्कारी, समाज में वैमनस्य, गृहयुद्ध बनवाने वाला कलंकी हो जाता है इसके अनुभव को सफेद-काली दाढ़ी वाले नरेंद्र मोदी-अमित शाह ने बरसों झेला तो पी चिदंबरम ने भी भुगता है और अभी 21 साला लड़की दिशा रवि ने भी भुगता। हां, भारत के मौजूदा गृह मंत्री अमित शाह को 25 जुलाई 2010 को वैसे ही जेल में डाला गया था जैसे उनके पूर्ववर्ती गृह मंत्री चिदंबरम को अमित शाह की पुलिस ने जेल में डाला। बस एक बार जेल फिर भले अमित शाह आरोप मुक्त हुए हों या दंगों, जकिया जाफरी, इसरत जहां जैसे मामले मोदी-अमित शाह पर एफआईआर, एसआईटी, दस-दस घंटे लगातार पूछताछ, तड़ीपार आदेश का पूरा अनुभव हकीकत में सिविल लिबर्टी, इंसानी गरिमा का भट्ठा बैठाने वाला था। तभी दुनिया के हर सख्य देश में, नागरिक अधिकारों की गारंटी देने वाले लोकतंत्र में, लोकतांत्रिक देशों में छोटी सी अदालत यानी दिल्ली के पटियाला कोर्ट के जस्टिस राणा से संविधान की पालना होती है। लोअर कोर्ट सिविल लिबर्टी की सरकार से पालना करवाने का अधिकार लिए होती है। उन देशों में सरकार माई-बाप नहीं होती।

यह कभी नहीं होता कि कोई एक सरकार अमित शाह को जेल में डाले तो मोदी-अमित शाह बदला लेने के लिए चिदंबरम को जेल में डाले। मतलब चाहे जिस पर देशद्रोह का आरोप लगा दो, गद्दार करार दो, आंतकी करार दो, हत्यारा करार दो या भ्रष्टाचारी करार दो! तभी 21 साला दिशा रवि को लोअर कोर्ट के जज राणा द्वारा जमानत पर रिहा करना व राजद्रोह क्या देशद्रोह के डंडे पर बेबाकी दिखाना सिर्फ सत्य और हिम्मत का मामला नहीं है, बल्कि 138 करोड़ नागरिकों की आजादी, मानवाधिकारों की मशाल की बानगी है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इमरजेंसी भले न लगाई हो लेकिन पूरी दुनिया में, भारत के जन-जन में यह हवा बनी है कि नागरिक आजादी आज केवल भक्तों-समर्थकों के लिए है और बाकी विरोधी हैं तो वे दुश्मन हैं इसलिए मौका मिले, हिमाकत करता दिखे तो अपराधी करार दे कर पुलिस से जेल में डलवाओ और न्यायमूर्तियों के संवैधानिक- प्रशासकीय मंदिर आंख-कान-नाक बंद किए कलम को सरकारी बनाए रखें। मामला अघोषित इमरजेंसी का नहीं है। बतौर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, बतौर गृह मंत्री अमित शाह के बनते उस रिकार्ड का है कि कितने नौजवानों को, एक्टिविस्टों, विरोधियों, आलोचकों को जेल में डाल रहे हैं।

अपने को भयावह आश्चर्य है कि जिस पुलिस, जिन जांच एजेंसियों से नरेंद्र मोदी, अमित शाह सालों जुल्म, दमन, घुटन झेलते रहे उसी से भारत माता के नागरिकों को चाहे जिस आरोप में जेल में डलवा दे रहे हैं! क्या इन्हें इतना भी समझ नहीं आ रहा है कि जो करा रहे हैं उससे दस-बीस साल बाद जब भी साा बदलेगी तो उस सत्ता को संघ-भाजपा के लोगों को देश तोड़क, समाज तोड़क, आंतकी, सोशल मीडिया में वैमनस्य फैलाने जैसे आरोपों में जेल में डालने में कितना वक्त लगेगा! तभी पटियाला हाउस कोर्ट के जज राणा से संघ-भाजपा-मोदी-शाह के लिए भी सोचने का मौका है कि कुछ भी हो जाए देश सिविल लिबर्टी की जी जान से रक्षा करने वाला बनें। नागरिक यदि इंसान की तरह नहीं जीये और 21 साला दिशा को भी यदि आजादी से सोचने, बोलने, आंदोलन करने के पंख नहीं मिले तो फिर पिंजराबंद पक्षी और इंसान में कैसे फर्क? हम लोकतंत्र में जीते हुए हैं क्या कम्युनिस्ट तानाशाही में? किस हिंदू विचार, किस सावरकर से मोदी-शाह ने समझा कि अभिव्यक्ति की आजादी पर कट्टरवादी इस्लामी देशों जैसी पाबंदी में राज करना ही हिंदू राष्ट्र बनाना है? तभी न जानें क्यों अपने मन में यह गलतफहमी बनी है कि मोदी-शाह, चिदंबरम सब सिविल लिबर्टी में अपने साथ हुई ज्यादतियों, अनुभवों को याद कर सोचेंगे कि अच्छा हुआ जो दिशा की आजादी की छोटी अदालत ने चिंता कर चिराग बनाया।

एक जज और देश का मन: मैं 1975 की इमरजेंसी के युवा मन पर जेएनयू में हुए अनुभव में मानवाधिकारों और सिविल लिबर्टी का घनघोर समर्थक रहा हूं। दक्षिणपंथ और पश्चिमी सख्यता बनाम सोवियत संघ के कम्युनिस्ट तंत्र पर अपनी सोच में, मैं लेखन की शुरुआत से हर पंथ के विचार अधिकार, मानवाधिकारों का समर्थक रहा हूं। 1975 से ही मैं एमनेस्टी इंटरनेशनल जैसे मानवाधिकार संगठनों का मुरीद रहा हूं (जिसे मोदी सरकार ने भारत छोडऩे को मजबूर किया)। मैं कांग्रेस राज के वक्त में संघ-भाजपा-मोदी-शाह के खिलाफ झूठे आरोपों पर लिखता रहा हूं तो नक्सल नेताओं के मानवाधिकारों का भी पैरोकार रहा हूं। इसी अखबार में कालीसफेद दाढ़ी याकि इसरत जहां केस के झूठे नैरेटिव में मैंने मोदी-शाह के साथ हो रही पुलिस ज्यादती और झूठ का जिस पुरजोर अंदाज में खुलासा करते हुए पहले पेज पर किस्त-दर-किस्त छापा था तो वह खम ठोंक था। तब किसी में हिम्मत नहीं थी वैसा लिखने की। जबकि आज मुझे मोदीशाह, लंगूरी भक्त यह ज्ञान देते हुए हैं कि 21-22 साल की हुई तो क्या हुआ, दिशा देशद्रोही है तो उसका आप कैसे बचाव कर रहे हैं। ऐसी बुद्धि पर क्या रोना रोएं!

यदि उद्धव ठाकरे कल अपनी पुलिस से हजार-दो हजार नामी भक्त लंगूरों पर देशद्रोह, राजद्रोह, सांप्रदायिक वैमनस्य की कंपलेन लिखवा इन्हें जेल में डालें और बिना जमानत ये जेल में सड़ते रहें तो इन सबकी सिविल लिबर्टी संविधान-लोकतंत्र बचाने, मानवता-इंसानियत की रक्षा में अपने आपको झोंकना होगा या नहीं। 21 साल की दिशा या 88 साल के वरवरा राव सभी को (या एक वक्त में कथित हिंदू आंतक के नाम पर प्रज्ञा आदि) जेल में रखना ही देश रक्षा है तो तय मानें भारत हमेशा वैसे ही शापित रहना है जैसे इतिहास में रहा है! तभी जिस तेजी से मोदी-शाह ने छह वर्ष में भारत के लोगों को, भारत की संस्थाओं को मारा है, उन्हें अमानवीय और पालतू बना सिविल लिबर्टी का जो फलूदा बनाया है उसमें 21 साला दिशा रवि का प्रकरण मील का पत्थर है तो देश के मन (कई मायनों में दुनिया को भी) को झिंझोडने वाला भी। भारत राष्ट्र-राज्य का गृह मंत्रालय, महाबली दिल्ली पुलिस के आला नेतृत्व ने एक 21 साला लड़की को राजद्रोही, देशद्रोही करार देने के लिए क्या-क्या नहीं किया!

ऐसे तमाम नौजवानों को पुलिस चाहे फांसी पर चढ़वा दे लेकिन देश-दुनिया का मन इस घृणा को अब पाले रहेगा कि यह कैसा लोकतंत्र है, कैसा देश है और मोदी-शाह के राज का वक्त कैसा था। तभी इस सबके बीच एक जज ने साहस में जो लिखा उसकी देश के नामी सभी अखबारों ने यदि संपादकीय लिख वाह की है तो समझना चाहिए कि कथित गोदी मीडिया भी मन ही मन क्या सोच रही है। सुप्रीम कोर्ट के 30 और देश भर के हाई कोर्टों के कोई हजार जज (ये सभी संवैधानिक अधिकार प्राप्त) और लोअर कोर्ट के कोई 20 हजार सामान्य जजों में दिल्ली की पटियाला हाउस के एक जज के फैसले से देशव्यापी मैसेज और सुकून बना है। यही पते की बात है कि 138 करोड़ लोगों के राष्ट्र में न्यायपालिका, मीडिया, संसद, राष्ट्रपति, सीएजी, चुनाव आयोग जैसी तमाम संस्थागत व्यवस्थाओं में इतना विचार तो जरूर बना होगा कि एक लोअर कोर्ट का जज यदि हिम्मत दिखा रहा है तो वे अपने अधिकारों के साथ न्याय कर रहे हैं या अन्याय? पटियाला हाउस के लोअर कोर्ट में यदि 21 साला दिशा की सिविल लिबर्टी बचाने की हिम्मत है तो बाकी 21 हजार न्यायमूर्तियां अपने मंदिर की ध्वजा का मान बनाएं रखने में क्या समर्थ नहीं हो सकतीं?

हरिशंकर व्यास
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here