राहुल ज्यादा झुकेंगे तो कांग्रेस टूटेगी

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सवाल था कि कांग्रेस के बागी नेता किस हद तक जा सकते हैं? तो जवाब में अब लगता है कि किसी भी हद तक! वे संतुष्ट होने को तैयार ही नहीं हैं। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने उनकी मांग मानकर पार्टी अध्यक्ष का चुनाव करवाने की घोषणा करवा दी लेकिन अब वे इसे तत्काल करवाने की मांग कर रहे हैं। इसका क्या मतलब है? इन दिनों जब पांच राज्यों का चुनाव सिर पर है और किसान आंदोलन चल रहा है तब जी- 23 के नेता संगठन के चुनावों को पहली प्राथमिकता बता रहे हैं। और इन सबकी अगुआई कौन कर रहा है? वे नेता जो कभी पार्षद या सरपंच का भी चुनाव नहीं लड़े। कांग्रेस नेतृत्व की मेहरबानी से राज्यसभा पाते रहे।

ये नेता इस समय जब पार्टी अपने अस्तित्व के सबसे कठिन दौर से गुजर रही है चुनाव की रट लगाए हुए हैं। ये कुछ इस तरह है कि जैसे पार्टी में पहले कभी चुनाव हुए ही न हों और दूसरी पार्टियों में चुनाव के जरिए ही अध्यक्ष बन रहे हों। कांग्रेस में चार साल पहले ही अध्यक्ष का चुनाव हुआ था। राहुल गांधी अध्यक्ष बने थे। और इन्हीं लोगों द्वारा सहयोग न करने के बाद उन्होंने 2019 में यह कहते हुए अध्यक्ष पद छोड़ दिया था कि अपनी मर्जी का अध्यक्ष बनाइए! और नेहरू गांधी परिवार के बाहर का बनाइए। लेकिन लाख कोशिश करने के बावजूद कांग्रेस के नेता किसी एक नाम पर सहमत नहीं हो पाए। आखिर में सोनिया गांधी से अनुनय विनय की और उन्हें वापस अध्यक्ष बनाया। लेकिन पिछले साल ही जब वे बीमार थीं और अस्पताल में भर्ती थीं तो कांग्रेस के उन 23 नेताओं ने जो परिवार की अनुकंपा से ही सांसद, मंत्री, संगठन में पदाधिकारी बनते रहे हैं एक लेटर बम चला दिया।

सोनिया गांधी अस्पताल में भर्ती थीं। और इनका लिखा पत्र अखबारों में लीक हुआ। देश के साथ कांग्रेस भी उस समय कोरोना, लाखों मजदूरों के पलायन, चीन की घुसपैठ और गिरती अर्थव्यवस्था से चिंतित थी लेकिन बागी नेताओं के सामने एक ही मुद्दा था, चुनाव!

क्या पत्र लिखने वाले इन कांग्रेसी नेताओं को किसी ने कभी सड़क पर देखा?अभी भोपाल में किसानों के समर्थन में कांग्रेस के वरिष्ठ नेता कमलनाथ और दिग्विजय सिंह के नेतृत्व में राज्यपाल का ज्ञापन देने जा रहे कांग्रेस कार्यकर्ताओं पर पुलिस ने ऐसी सर्दी में ठंडे पानी की बौछारों के साथ लाठीचार्ज भी किया। इससे पहले दिल्ली में ऐसे ही प्रदर्शन में राहुल और प्रियंका शामिल थे। क्या ऐसा कोई प्रदर्शन असंतुष्ट नेताओं की तरफ से कहीं किया गया? वे कहीं सक्रिय नहीं हैं सिवा एक जगह है। और वह जगह है मीडिया। मीडिया में सुर्खियों में बने रहना ही उनकी सक्रियता है।

उनकी मांग पर पिछले सप्ताह कांग्रेस की सर्वोच्च नीति निर्धारक इकाई कांग्रेस वर्किंग कमेटी (सीडब्ल्यूसी) की मीटिंग हुई। इसमें अध्यक्ष का चुनाव करवाने की उनकी मांग मान ली गई। मगर मीडिया में यह खबर नहीं बनी। खबर बनी चुनाव टाले गए। सीडब्ल्यूसी में कहा गया कि पांच राज्यों पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, असम, केरल और पुदुचेरी के चुनाव होना है उनके बाद जून तक अध्यक्ष का चुनाव करवा लिया जाएगा। लेकिन मीटिंग में राज्यसभा में कांग्रेस के उपनेता (मनोनीत) आनंद शर्मा इससे सहमत नहीं थे। वे तत्काल चुनाव चाहते थे।

वे राज्यसभा के उपनेता चुनाव से नहीं बने हैं। सोनिया के मनोनयन के जरिए बने हैं। मगर यहां वे कांग्रेस के सबसे वरिष्ठ नेताओं में से एक अशोक गहलोत से उलझ रहे थे कि चुनाव से पार्टी मजबूत होती है। कैसी विडंबना है कि गहलोत जो चुनाव से जीतते हैं उन्हें चुनाव की ताकत समझाई जा रही थी। और चुनाव की इस अहमियत की खबर तत्काल मीडिया को भी दे दी गई।

खबर लीक की गई कि सीडब्ल्यूसी में तीखी बहस! क्या ऐसे ही पार्टी मजबूत होगी? क्या इनका मकसद भी हेडलाइन मैनेजमेंट है? नहीं! इनका उद्देश्य शायद इससे बहुत आगे का है। और पीछे कोई बड़ी शक्ति भी है। सोनिया गांधी या राहुल इनकी हर बात मानते जा रहे हैं। बार बार समझौता वार्ताएं कर रहे हैं। मगर ये लोग मानने को तैयार नहीं हैं। क्या कांग्रेस इसका मतलब समझ रही है?

पार्टी के दूसरे समर्पित नेताओं और कार्यकर्ताओं में इसका क्या मैसेज जा रहा है? यह गंभीर सवाल हैं। अगर कांग्रेस झुकती गई तो उसे टूटने तक झुकाया जाता रहेगा। देश की सबसे पुरानी पार्टी और आजादी की लड़ाई की विरसात लिए हुए कांग्रेस इससे पहले इतनी कमजोर और लाचार कभी नहीं दिखी थी। यही तो कहा था प्रधानमंत्री मोदी ने। कांग्रेस मुक्त भारत! ये उसी की तैयारी है। बाहर से कांग्रेस को तोड़ना, खत्म करना संभव नहीं है। मगर अंदर से उसे तोड़ा जा सकता है।

और यह पहली बार नहीं हो रहा है। 1966 में ऐसी ही कोशिशें हुई थीं। इन्दिरा गांधी के प्रधानमंत्री बनते ही पार्टी के अंदर और बाहर उनके खिलाफ साजिशें शुरू हो गईं थीं। मगर इन्दिरा गांधी ने आक्रमण को ही अपनी रक्षा का हथियार बनाया। युवा टीम तैयार की और नए कार्यक्रम देने शुरू किए। बैंकों का राष्ट्रीयकरण, राजाओं के प्रिवीपर्स और प्रिवलेज खत्म करने जैसे फैसले मील के पत्थर स्थापित हुए। पार्टी में मोरारजी देसाई, उस समय के कांग्रेस अध्यक्ष निर्जिलिंगप्पा, एस के पाटिल जैसे बड़े नेता हतप्रभ रह गए थे। सब अप्रसांगिक हो गए। राष्ट्रपति के लिए अपना उम्मीदवार खड़ा कर दिया और देश के इतिहास में पहला निर्दलीय राष्ट्रपति बनवा दिया वीवी गिरी को चुनाव जितवा दिया।

इन्दिरा गांधी को 1977 में दोबारा फिर उन्हीं स्थितियों का सामना करना पड़ा। और इस बार भी वे जगजीवन राम और हेमवतीनंदन बहुगुणा के धोखे से विचलित नहीं हुईं। और फिर नए लोगों के साथ नई कांग्रेस खड़ी कर दी। जिसने 1980 में शानदारकफर वापसी की। क्या राहुल को उस इतिहास से सबक नहीं लेना चाहिए? न लें! इतने पुराने इतिहास के बारे में लोग कह सकते हैं कि आज वह परिस्थितियां नहीं हैं। ठीक है। तो समकालीन इतिहास से ले लें। प्रधानमंत्री मोदी को देख लें। उन्होंने क्या किया? अपने रास्ते की सारी बाधाएं हटा दीं। पार्टी के अंदर उन्हें आज कोई चुनौती देने वाला नहीं है। वे जैसे चाहें अपना काम कर रहे हैं। मोदी की नीतियों से सहमत, असहमत होना अलग बात है लेकिन राजनीतिक कार्यप्रणाली उन्होंने बाधाहीन बना ली।

राहुल उदार होना चाहते हैं। अच्छी बात है। लेकिन अगर ये उदारता उन्हें दो साल भी अध्यक्ष बने रहने नहीं दे पाई तो उसका क्या मतलब है? राजनीति में आपको अपने विचार लागू करना है उन्हें दूसरों के समझने, बहस करने के लिए नहीं छोड़ना है। विचार आपके पास चाहे जितने अच्छे हों जैसा अभी राहुल ने कहा कि मैं सच बोलता रहूंगा। चाहे अकेला रह जाऊं मगर लोगों की आवाज उठाता रहूंगा। वे मुझे डरा नहीं सकते, हां गोली मार सकते हैं।

बहुत प्रभावी और दिल छू लेने वाली बात है। मगर इससे आगे राजनीति में यह बात भी होती है कि आप अकेले कुछ नहीं कर सकते! अकेले का रास्ता राजनीति का रास्ता नहीं है। अकेला करने वालों की कोशिशों को नाकामयाब करना ही राजनीति है!

शकील अख्तर
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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