गृहमंत्री अमित शह की क्या जवाबदेही है अब यह सवाल नए सिलेबस से बाहर किया जा चुका है। शिवराज पाटिल आखिरी गृहमंत्री थे जिनसे सवाल किया जाता था। मंगलवार की हिंसक घटना के बाद ख़बर आती है कि गृहमंत्री ने उच्च स्तरीय बैठक की है और दिल्ली में अतिरित सुरक्षा बलों की तैनाती के आदेश दिए हैं। किसानों की परेड होने वाली थी। दिल्ली हरियाणा और यूपी के पुलिस अधिकारी लगातार किसान नेताओं के साथ बैठक कर रहे थे। क्या गृहमंत्री उन अधिकारियों के साथ बैठक कर रहे थे? हालात की गंभीरता का जायज़ा ले रहे थे? क्या पहले ऐसी कोई ख़बर आई थी? इन सब सवालों के जवाब अटकलों से नहीं दिए जाने चाहिए बल्कि पूछा जाना चाहिए। दो महीने से किसानों को दिल्ली आने से रोका गया। परेड के पहले ही साफ़ हो गया था कि एक धड़ा दिल्ली आने की बात कर रहा है तो ऐसे में पुलिस ने उस धड़े को लेकर या योजना बनाई थी? इतनी बड़ी संख्या में किसान दिल्ली की सीमा पर आ चुके थे, उनमें से किसी भी हिस्से के तय कार्यक्रम से छिटकने की आशंका तो रही ही होगी। ऐसी स्थिति में दिल्ली के भीतर सुरक्षा की क्या तैयारी थी? दिल्ली पुलिस को अतिरिक्त बलों का कितना बैक अप दिया गया था?
क्या लाल कि़ला से लेकर आईटीओ तक एक धड़े को आने दिया गया? पता भी नहीं इसका ठोस जवाब मिलेगा क्या नहीं? लाल कि़ले के साथ जो होने दिया गया वह शर्मनाक है। इस ऐतिहासिक इमारत को क्षति पहुंची होगी लेकिन मुद्दा बनाया जा रहा है तिरंगा को लेकर। एक दिन पहले ख़बर आई थी कि हरियाणा के मंत्री तिरंगा फहराने के तय कार्यक्रम में शामिल नहीं होंगे। उन्हें जिला मुख्यालयों में जाना था और जिसका कार्यक्रम तय था। इसे लेकर तो सब चुप हैं कि मंत्री कैसे तिरंगा फहराने के कार्यक्रम से पीछे हट सकते हैं, जवान तो उसी के लिए जान देता है। वो तो पीछे नहीं हटता। तिरंगा के बहस में आने से बहस बन जाती है इसलिए आप गोदी मीडिया और आई टी सेल का कुछ नहीं कर सकते। लेकिन हिंसा हिंसा है। ये असर किसी भी आंदोलन को तोडऩे के काम आती है। हिंसा से किसका मक़सद पूरा हुआ इसे लिख कर बताने की ज़रूरत नहीं है। किस ख़ेमे में उत्साह है इसे बताने की ज़रूरत नहीं है। दिल्ली पुलिस के 80 से ज्यादा जवान घायल हो गए हैं। लाल कि़ले का वीडियो है जवान जान बचाने के लिए नीचे गिर रहे हैं। उसी पुलिस के जवान ग़ाज़ीपुर बोर्डर पर आंसू गैस के गोले दाग़ रहे हैं। वहाँ भी वे गिनती में कम हैं। किसानों की संख्या ज़्यादा है। आपने इसका वीडियो देखा होगा कि फुट ओवर ब्रिज से दस बीस जवान आंसू गैस के गोले दाग़ रहे हैं।
उसी दिल्ली पुलिस के जवान लाल कि़ले से नीचे कूद रहे हैं. क्या ये दिल्ली पुलिस की ट्रेनिंग है? इन जवानों की जान बचाने के लिए पुलिस के बाक़ी दल यों नहीं आगे आए? क्या कार्रवाई की? क्यों नहीं बैक दिया? दोपहर के वत एक वीडियो आया जिसमें पुलिस लाल कि़ले के बाहर कुर्सियों पर बैठी नजऱ आ रही थी। दिल्ली दंगों के वत भी पुलिस लाचार नजऱ आ रही थी जो हिंसा करने वाली भीड़ थी उन्हें छूट मिली थी। और उस हिंसा के नाम पर कौन लोग पकड़े गए यह आप जानकर भी या करेंगे? दिल्ली दंगों के वत स्पष्ट आदेश न मिलने के कारण दिल्ली पुलिस के ही अफ़सर हिंसा के शिकार होते होते बचे और कुछ पर जानलेवा हमला हुआ भी। नजऱ पर जब हिन्दू मुस्लिम का चश्मा चढ़ा हो तो आसानी से साफ़ नहीं किया जा सकता है। तब सवाल उठे थे कि तात्कालीन कमिश्नर हिंसा को रोकने में अक्षम हैं। आज तक दिल्ली पुलिस के पास एटिंग कमिश्नर हैं। एस एन श्रीवास्तव साहब की कार्यकुशलता और अनुभव की काफ़ी चर्चा हुई थीलेकिन सोचिए दिल्ली राजधानी है और यहाँ फ़ुल टाइम कमिश्नर नहीं है। दिल्ली पुलिस के पास या या विकल्प थे, कितने सुरक्षा बल थे? इन सब पर जल्दी में बात नहीं होनी चाहिए.यह ख़बर आई थी कि परेड ख़त्म होते ही परेड की सुरक्षा में लगे जवान तुरंत ही किसानों की परेड की सुरक्षा में लगेंगे?
क्या यह समझा जाए कि उतनी देर तक किसानों की परेड की सुरक्षा अपर्याप्त थी? अगर उनकी ज़रूरत थी तो पहले से ही दूसरे राज्यों से सुरक्षा बलों को बुला कर तैनात किया जा सकता था। किसान आंदोलन के लिए हिंसा की यह घटना सीधे जाल में जाकर फँस जाने के जैसी है। जो आंदोलन दो महीने से बार बार यह साबित कर रहा था कि तमाम उकसावे के बाद भी उसके भीतर शांति को लेकर स्थिरता आ गई है। अनुशासन आ गया है। गणतंत्र दिवस के दिन उसकी इस स्थिरता को गहरा धक्का तो लगा ही है। बेशक बड़े हिस्से में परेड शांति से हुई. जिस तादाद में किसान ट्रैक्टर लेकर आए अगर सब अराजक होते तो हालात बिगड़ जाते। हिंसक भीड़ के बीच भी कई किसान थे जो समझा रहे थे। उग्र लोगों को रोक रहे थे। पुलिस के भी कई जवान और मध्यम श्रेणी के अफ़सर उन्हीं के बीच में रह कर संवाद से हालात को सुलझा रहे थे। यह बेहद जोखिम का काम रहा होगा। हिंसा और अराजकता का स्केल जब बड़ा हो जाता है तो पहले दिन सभी तथ्यों तक पहुँचना आसान नहीं होता। मंगल को देर रात तक यहाँ से वीडियो आते रहे तो वहाँ से आते रहे। किसी में पुलिस बेवजह शांति से बैठे किसानों को मारती नजऱ आ रही थी तो किसी में किसान पुलिस पर हमलावर थे। जो नहीं होना चाहिए था वो सब हुआ। पर क्यों?
रवीश कुमार
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)