साईनाथ व लोढ़ा कमेटी में क्यों नहीं?

0
218

केंद्र सरकार के बनाए कृषि कानूनों और किसानों के आंदोलन को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने कमेटी बनाने की बात कोई एक महीने पहले कही थी। उसके बाद जब भी सुनवाई हुई अदालत ने इस पर जोर दिया कि वह कमेटी बना देगी। आखिरकार सर्वोच्च अदालत ने मंगलवार को सुनवाई में चार सदस्यों की एक कमेटी बना दी। कमेटी में जिन सदस्यों को रखा गया है वे सब सरकार के समर्थक हैं और उसके बनाए कानूनों का भी समर्थन करते हैं, यह बात सब जानते हैं और कह भी रहे हैं। पर यह सवाल नहीं उठ रहा था कि कृषि विशेषज्ञ और पत्रकार पी साईनाथ कमेटी में क्यों नहीं हैं?

यह सवाल इसलिए उठ रहा है क्योंकि सुप्रीम कोर्ट ने अपनी पहले की सुनवाई में खुद कहा था कि वह कमेटी बनाएगी और उसे पी साईनाथ जैसे लोगों को रखा जाएगा। सवाल है कि जब सुपीम कोर्ट ने खुद पी साईनाथ का नाम लिया था तो उनको कमेटी में क्यों नहीं रखा? क्या अदालत ने यूं ही उनका नाम ले लिया था, उनको कमेटी में रखना नहीं था? या उनसे एप्रोच किया गया और उन्होंने मना कर दिया या सरकार नहीं चाहती थी कि पी साईनाथ जैसा कोई व्यक्ति कमेटी में रहे? कारण किसी को पता नहीं है।

इसी तरह सोमवार की सुनवाई के बाद खबर आई थी कि अदालत सुप्रीम कोर्ट के पूर्व चीफ जस्टिस आरएम लोढ़ा की अध्यक्षता में कमेटी बनाने पर विचार कर रही है। लेकिन कमेटी बनी तो उसमें कोई रिटायर जज भी नहीं है। सोचें, कितनी हैरान करने वाली बात है कि सुनवाई में तो जस्टिस लोढ़ा और पी साईनाथ के नाम की चर्चा हो और कमेटी बने तो ये दोनों उसमें से गायब हों!

समिति में शामिल किए गए सदस्यों के नाम और इस मामले में उनका रुख इतना चर्चित है कि इस समिति का विवादास्पद बन जाना अस्वाभाविक नहीं है। चीफ जस्टिस ने कृषि अर्थशास्त्री अशोक गुलाटी, भारतीय किसान यूनियन के एक धड़े के अध्यक्ष भूपिंदर सिंह मान, साउथ एशिया इंटरनेशनल फूड पॉलिसी संस्था के निदेशक प्रमोद कुमार जोशी और शेतकारी संघठना के अनिल घनवत को समिति के सदस्यों के रूप में मनोनीत किया। किसान संगठनों ने अपने पहले के रुख की पुष्टि करते हुए इस कमेटी से संवाद करने से इनकार कर दिया है। इसलिए फिलहाल यह नहीं कहा जा सकता कि सुप्रीम कोर्ट का यह हस्तक्षेप गतिरोध को अंत करने में कितना सहायक सिद्ध होगा। किसानों का कहना है कि उनकी मांग तीनों कानूनों को रद्द करने की है। सिर्फ रोक लगाए जाने से वे संतुष्ट नहीं हैं।

वैसे मौजूदा किसान आंदोलन को इस बात का श्रेय देना होगा कि उसके नेतृत्व ने कुछ अदभुत राजनीतिक समझ दिखाई है। मसलन, पहले उसने अपने आक्रोश को महज सरकार तक सीमित नहीं रखा, बल्कि उन उद्योग घरानों की इस मामले में खुल कर चर्चा की, जिन्हें इन कानूनों से सीधा लाभ पहुंचेगा। इस तरह मौजूदा पोलिटकल इकॉनोमी की नज पर उसने सीधे हाथ रखी। इसी तरह उसने न्यायपालिका की संवैधानिक भूमिका और आज के माहौल में उसकी बन गई भूमिका पर भी बड़ी स्पष्ट समझ दिखाई है। इसलिए कार्यपालिका के अधिकार क्षेत्र से जुड़े इस मसले पर न्यायपालिका की पनाह लेने से वह बचा। ऐसे में सुप्रीम कोर्ट का आगे आकर कृषि कानूनों के मामले में सक्रियता दिखाना अजीब सा लगा है। कुल मिलाकर सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप ने उम्मीद जगाने के बजाय खुद कोर्ट की भूमिका पर बहस खड़ी कर दी है।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here