प्रधानमंत्री इतने परेशान क्यों हैं ?

0
345

पिछले साढ़े छह साल में पहली बार ऐसा दिख रहा है कि प्रधानमंत्री परेशान हैं। इससे पहले नोटबंदी के फैसले के बाद वे थोड़े परेशान दिखे थे और यहां तक कि विदेश दौरे में भी उन्होंने नोटबंदी के फैसले को न्यायसंगत ठहराने वाला भाषण दिया था। देश के कई हिस्सों में अपने भाषणों में उन्होंने कई अजीब-अजीब सी बातें कहीं। जैसे 50 दिन बाद किसी चौराहे पर आने को तैयार हूं, फांसी पर लटकने को तैयार हूं, लोग गंगा जी में नोट बहा रहे हैं, जैसी बातें उन्होंने कही थीं। वह उनकी परेशानी का संकेत था। लेकिन थोड़े दिन में ही वे संभल गए थे और अपनी पुरानी रंगत में लौट गए थे। लेकिन इस बार परेशानी ज्यादा दिख रही है इसलिए भाषण भी ज्यादा हो रहे हैं। हैरानी कि बात है कि एक अमेरिकी एजेंसी ने उनको दुनिया में सर्वाधिक सकारात्मक रेटिंग वाला नेता बताया है पर भारत में लोगों को उनकी बातों पर यकीन नहीं हो रहा है!

तभी तो उनको बार बार कहना पड़ रहा है कि विपक्ष किसानों को गुमराह कर रहा है। सोचें, सर्वाधिक रेटिंग वाला प्रधानमंत्री किसानों को सही राह नहीं दिखा पा रहा है और जिस विपक्ष को उन्होंने पाताल की अतल गहराईयों तक पहुंचा दिया है वह किसानों को गुमराह कर दे रहा है! तो फिर किसकी रेटिंग बेहतर हुई? लोकसभा चुनावों को छोड़ दें तो पहली बार प्रधानमंत्री इतनी मेहनत करते दिख रहे हैं। पिछले करीब एक महीने से वे लगातार भाषण दे रहे हैं। हर छोटे-बड़े सरकारी कार्यक्रम में शामिल हो रहे हैं। हर कार्यक्रम को बड़ा इवेंट बनाया जा रहा है।

प्रधानमंत्री किसी दिन राजकोट में आईआईटी की आधारशिला रख रहे हैं तो किसी दिन संभल में आईआईएम की स्थायी इमारत की नींव रख रहे हैं। किसी दिन चालकरहित मेट्रो को हरी झंडी दिखा रहे हैं तो किसी दिन एक सौवें किसान ट्रेन को रवाना कर रहे हैं। किसी दिन कच्छ में किसान को संबोधित कर रहे हैं तो किसी दिन मध्य प्रदेश के किसान को। किसी दिन कश्मीर के लिए पीएम-जय योजना की शुरुआत कर रहे हैं तो किसी दिन किसानों के खाते में पीएम-किसान योजना के पैसे की किस्त ट्रांसफर कर रहे हैं। किसी दिन एसोचैम में बोल रहे हैं तो किसी दिन रेडियो पर बोल रहे हैं।

पिछले एक महीने में शायद ही कोई दिन ऐसा गया है, जिस दिन प्रधानमंत्री ने भाषण नहीं दिया है। हर भाषण में कृषि कानूनों के फायदे समझा रहे हैं और यह जरूर कह रहे हैं कि आंदोलन कर रहे किसानों को गुमराह किया जा रहा है। पर हैरानी की बात है कि उनके इतने भाषणों के बावजूद देश के किसान इस कानून के फायदे नहीं समझ रहे हैं और न आंदोलन कर रहे किसान उनकी बात मान रहे हैं। प्रधानमंत्री ने कृषि कानून के जितने फायदे समझाए हैं, अगर लोगों को उन पर यकीन होता तो अब तक उनके समर्थन में जन सैलाब उमड़ा रहता। पर ऐसा लग रहा है कि सब एक कान से सुन कर दूसरे कान से बातों को निकाल रहे हैं। भाजपा के नेता देश भर में घूम कर प्रेस कांफ्रेंस कर रहे हैं और चौपाल लगा रहे हैं पर मीडिया के संपूर्ण भक्ति में होने के बावजूद इससे भी कोई माहौल नहीं बन पा रहा है। उलटे किसान आंदोलन तेज हो रहा है और किसानों का संकल्प मजबूत हो रहा है कि वे कानून को निरस्त कराए बगैर दम नहीं लेंगे।

प्रधानमंत्री पहली बार इतनी मेहनत करते दिख रहे हैं तो पहली बार ही इतने कमजोर भी दिख रहे हैं। एक तो उन्होंने दाढ़ी और बाल बढ़ा कर जो नया गेटअप बनाया है उससे अपने आप वे ज्यादा उम्रदराज दिख रहे हैं। दूसरे, इसकी वजह से वे पहले ही तरह चुस्त-दुरुस्त नहीं दिख रहे हैं। टेलीविजन या सार्वजनिक स्पेस में उनकी मौजूदगी बहुत ढीली-ढाली सी दिख रही है। तीसरे, पहली बार इतनी अधिक तीव्रता के साथ सरकार के क्रोनी पूंजीपतियों पर खुला हमला हो रहा है। पहली बार ऐसा लग रहा है कि प्रधानमंत्री को समझ नहीं आ रहा है कि वे क्या करें। न सरकार की ताकत काम आ रही है और न भाजपा का आईटी सेल कोई असर छोड़ पा रहा है। यहां तक कि देश के दो सबसे धन्ना सेठ भी कुछ नहीं कर पा रहे हैं।

हालांकि वे परेशान हैं, कमजोर दिख रहे हैं और बहुत मेहनत कर रहे हैं, इससे यह नहीं सोचना चाहिए कि प्रधानमंत्री मोदी अपनी राजनीतिक पूंजी गंवा रहे हैं। उनकी राजनीतिक पूंजी अपनी जगह बनी हुई है। ऐसा इसलिए है क्योंकि संसद से बना कोई कानून या कोई प्रशासनिक फैसला या उनके द्वारा किया गया कोई ‘महान’ काम उनकी राजनीतिक पूंजी नहीं है। इन सबसे कोई राजनीतिक पूंजी न बनी है और न बनाने की उनकी मंशा है। अगर ऐसी कोई मंशा होती तो 40 दिन से दिल्ली की सीमा पर आंदोलन कर रहे किसानों का मसला अब तक सुलझ गया होता। चीन के बारे में सरकार कोई ठोस फैसला कर चुकी होती। अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए वैसे ही फैसले किए गए होते, जैसे दुनिया के दूसरे सभ्य देशों ने किया है। कोरोना वायरस को रोकने के लिए वैज्ञानिक सोच पर आधारित कदम उठाए गए होते। पर ऐसा कुछ नहीं हो रहा है इसका मतलब है कि उनको यकीन है कि इससे कोई राजनीतिक पूंजी बनती-बिगड़ती नहीं है।

इसके बावजूद वे परेशान हैं तो इसलिए क्योंकि राजनीतिक पूंजी भले अपनी जगह बनी हुई है पर वे धारणा के स्तर पर लड़ाई हार रहे हैं। इससे राजनीतिक पूंजी गंवाने की शुरुआत होती है। पहले कोई भी लड़ाई धारणा के स्तर पर ही लड़ी और जीती जाती है। पिछले करीब 20 साल में पहली बार ऐसा हो रहा है कि नरेंद्र मोदी धारणा के स्तर पर पिछड़ रहे हैं। उनके मुख्यमंत्री रहते गुजरात में दंगा हुआ, उनके ऊपर इसे लेकर आरोप लगे, उनको मौत का सौदागर बताया गया, फर्जी मुठभेड़ों का मामला उठा, लड़की की जासूसी का मामला आया, मीडिया भी विरोध में था और सोशल मीडिया था ही नहीं पर इन सबको उन्होंने अपनी राजनीतिक पूंजी में बदल दिया। गुजरात का दंगा, फर्जी मुठभेड़ आदि उनकी और भाजपा की भी सबसे बड़ी राजनीतिक पूंजी बने। लेकिन पहली बार ऐसा हो रहा है कि वे अपने आसपास हो रही घटनाओं को राजनीतिक पूंजी में नहीं बदल पा रहे हैं और धारणा के स्तर पर पिछड़ रहे हैं।

दूसरे कार्यकाल के साथ ही इसकी शुरुआत हुई है। मई के अंत में दूसरा कार्यकाल शुरू होने के तीन महीने बाद अगस्त में मोदी सरकार ने जम्मू कश्मीर का विभाजन कराया, अनुच्छेद 370 खत्म कराया और उसके बाद वाले सत्र में संशोधित नागरिकता कानून पास कराया। लेकिन लोकसभा चुनाव के बाद हुए हर चुनाव में भाजपा को झटका लगा। महाराष्ट्र और झारखंड की सरकार हाथ से निकल गई। हरियाणा में सरकार ने बहुमत गंवा दिया और दुष्यंत चौटाला की पार्टी से तालमेल करके सरकार बनानी पड़ी। दिल्ली में पार्टी बुरी तरह से हारी तो बिहार में जैसे तैसे नीतीश कुमार के नाम पर सत्ता हाथ लगी। सो, भाजपा चाहे कोई भी ढिंढोरा पीटे और नगर निगमों के चुनावों में मिली जीत पर ताली बजाए पर प्रधानमंत्री को अंदाजा है कि निजी राजनीतिक पूंजी का नुकसान नहीं होने के बावजूद देश में धारणा बदल रही है। चीन के सीमा में घुस कर जमीन कब्जा करने, सरकारी कंपनियों को बेचने, अपने क्रोनी पूंजीपतियों को बढ़ाने, लोगों की आर्थिक हालत खराब होने, बेरोजगारी बढ़ने, किसानों की बात नहीं सुनने जैसी अनेक बातें हैं, जिनसे धारणा प्रभावित हो रही है और इसलिए प्रधानमंत्री परेशान हैं।

अजीत द्विवेदी
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here