भारत के चार खास प्रधानमंत्री जिन्हें लोग सदैव याद रखेंगे

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मेरे दो बुजुर्ग घनिष्ट मित्रों की पुण्य-तिथि और जन्म-तिथि सिर्फ दो दिन के अंतर से पड़ रही है। नरसिंहरावजी ने 23 दिसंबर को महाप्रयाण किया और अटलबिहारी वाजपेयीजी का अवतरण 25 दिसंबर को हुआ। देश के चार प्रधानमंत्री– जवाहरलाल नेहरु, इंदिरा गांधी, नरसिंहराव और अटलबिहारी वाजपेयी– बेजोड़ रहे, विलक्षण रहे, उनकी भूमिका एतिहासिक रही। यदि लालबहादुरजी शास्त्री और चंद्रशेखरजी को भी पूरे पाँच साल मिलते तो वे भी किसी से कम सिद्ध नहीं होते। प्रधानमंत्री पद का सिलसिला ब्रिटेन में 1721 में राबर्ट वालपोल की नियुक्ति से शुरु हुआ था। अब तक लंदन में 55 प्रधानमंत्री हो चुके हैं। इन 55 में से कितनों के नाम लोगों को याद हैं लेकिन भारत के अब तक के 15 प्रधानमंत्रियों में से उक्त चार नाम आगे आने वाली कई पीढ़ियों तक याद रहेंगे।

ऐसा नहीं है कि उन चारों ने जितनी भी नीतियां लागू कीं, वे सब ठीक थीं या वे सब सफल ही हुईं या उनके कार्यकाल में भयंकर भूलें नहीं हुईं। लेकिन चारों प्रधानमंत्रियों की खूबी यह थी कि वे भारत के और अपने वर्तमान का ही प्रतिनिधित्व नहीं करते थे, भारत के भूतकाल और भविष्य भी उनकी नीतियों में सदा प्रतिबिंबित होते रहते थे। उनकी कुछ कमियों के बावजूद उनके व्यक्तित्व और नीतियों में भारत की अजस्र धारावाहिकता बहती रहती थी।उनकी सबसे बड़ी खूबी यह थी कि वे प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठे थे, वह कुर्सी उन पर नहीं बैठी थी। यही लोकतंत्र की आत्मा है। ये चारों प्रधानमंत्री किसी जाति, संप्रदाय, मजहब, भाषा या वर्ग-विशेष के प्रतिनिधि नहीं थे। वे संपूर्ण भारत के प्रतिनिधि थे। वे प्रधानमंत्री थे, प्रचारमंत्री नहीं थे। वे प्रधानसेवक थे, प्रधानमालिक नहीं थे। वे सर्वसमावेशी थे, वे सर्वज्ञ नहीं थे। नेहरुजी और शास्त्रीजी के अलावा सभी प्रधानमंत्रियों से मेरा व्यक्तिगत संपर्क रहा है।

इसी आधार पर मैं कह सकता हूं कि आपात्काल के दो साल (1975-77) छोड़ दें तो शेष वर्षों में भारतीय लोकतंत्र सदा फलता-फूलता रहा है। सिर्फ बाहरी लोकतंत्र ही नहीं, पार्टियों का अंदरुनी लोकतंत्र भी। पड़ौसी देशों में लोकतंत्र का सूर्य डूबता-चढ़ता रहा है लेकिन भारत में वह हमेशा चमचमाता रहा है।भारतीय राजनीति में वाद, प्रतिवाद और संवाद की द्वंद्वात्मकता ने भारत को विश्व का महान लोकतंत्र बना दिया है। यह द्वंद्वात्मक विविधता आज भी बनी हुई है। यह बढ़ती चली जाए, यही कामना मैं करता हूँ, अपने बुजुर्ग मित्रों की पुण्य तिथि और जन्म-तिथि के अवसर पर !

डा. वेदप्रताप वैदिक 
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं)

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